मुरलीकांत
पेटकर
अफसोस भारत सरकार ने राजीव गांधी खेल पुरस्कार,
अर्जुन अवार्ड या पद्मश्री के लायक नहीं समझा
यह धरती वैसे तो अनगिनत शूरवीरों की गवाह है लेकिन कुछ ऐसी
विलक्षण शख्सियतें भी हैं जिनका नाम अमरता की श्रेणी हमेशा शुमार होगा। भारत की
ऐसी ही शख्सियत हैं पहले पैरालम्पिक पदकधारी
मुरलीकांत पेटकर। इस शख्सियत ने 1972 में भारत के लिए पैरालम्पिक में पहला पदक जीता
था। पेटकर से पहले सामान्य ओलम्पिक खेलों में भी भारत ने सिर्फ और सिर्फ हाकी में
ही पदक जीते थे। भारत की तरफ से ओलम्पिक में पहला पदक जीतने वाली इस विलक्षण
शख्सियत के बिना खेलों की वर्णमाला कभी पूरी नहीं हो सकती।
मुरलीकांत पेटकर पुणे के बाहरी इलाके में एक तिमंजिले मकान
की पहली मंजिल पर अपने परिवार के साथ रहते हैं। श्री पेटकर बताते हैं कि उस दिन जर्मनी
का वह स्वीमिंग पूल खेलप्रेमियों से ठसाठस भरा था और मैं चार में से तीन हीट जीत
चुका था। लोग मेरा हौसला बढ़ा रहे थे। मुझे पता था कि मैं इतिहास बना सकता हूं।
मैं भारत के लिए पहला ओलम्पिक स्वर्ण पदक ला सकता हूं। मुरलीकांत पेटकर की जहां तक
बात है वह भारत-पाकिस्तान के बीच हुई 1965 की जंग में बुरी तरह घायल हो गए थे। वह बताते हैं कि हम
सियालकोट में थे और मैं लाइट इंफेंट्री का हिस्सा था। हम बंकरों में बैठे थे कि
अचानक बाहर से सायरन की आवाज आई। हममें से कई सैनिकों को लगा कि यह रोजाना की चाय
की आवाज है और मेरे साथी बाहर चले गए लेकिन यह पाकिस्तानी वायु सेना का हमला था। हर
तरफ से गोलियां चल रही थीं। हम पर बिना चेतावनी हमला हो गया था। मैं और बचे-खुचे
तीन हवलदार बाहर भागे और 45 मिनट तक लड़ने के बाद मुझे पोजीशन बदलने की जरूरत पड़ी। मैं जैसे ही चट्टान
की ओट से निकला एक लड़ाकू विमान गोलियां बरसाता मेरे सर के ऊपर से निकला। पैरों से
होते हुए मेरे सिर तक सात गोलियां लगीं और मैं पहाड़ी से नीचे की ओर
मौजूद एक सड़क पर गिरा जहां भारतीय सेना के कई वाहन चल रहे थे। मैं ठीक एक आर्मर
ट्रक के सामने गिरा और वो ट्रक मुझे कुचलते हुए कुछ दूरी पर रुका। मैं बेहोश हो
गया।
17 महीने तक कोमा में रहने के बाद दिल्ली के रक्षा अस्पताल
में मुरलीकांत को होश आया और उन्हें मालूम चला कि रीढ़ में गोली लग जाने के कारण
उनकी कमर से नीचे के हिस्से को लकवा मार गया है। उन्हें बताया गया कि समय लगेगा और
शायद वह चल सकेंगे लेकिन उनकी रीढ़ की हड्डी में एक गोली अभी भी बाकी है जिसे कभी
हटाया नहीं जा सकता। मुरलीकांत पेटकर को फिजियोथैरिपी के लिए मुंबई के रक्षा
अस्पताल आईएनएस अश्विनी भेजा गया जहां वह तैराकी की ट्रेनिंग लेने लगे। श्री पेटकर
बताते हैं कि मैं डिफेंस के लिए बॉक्सिंग की कई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं जीत
चुका था और भारत का प्रतिनिधित्व बॉक्सिंग में ही करना चाहता था लेकिन शायद होनी
को कुछ और ही मंजूर था। मुरलीकांत ने डिफेंस की कई प्रतियोगिताओं में तैराकी में
अच्छा प्रदर्शन किया और फिर मशहूर क्रिकेटर विजय मर्चेंट की ओर से मिली आर्थिक
सहायता से वह जर्मनी में होने वाले पैरालम्पिक खेलों के लिए भारत के सात सदस्यीय दल का हिस्सा बन गए।
श्री पेटकर बताते हैं कि हमें भेजते हुए रक्षा अधिकारियों
और एक-दो मंत्रियों को छोड़कर कोई भी खुश नहीं था। वे ताने दे रहे थे कि चलो इनको
भी मौका दे ही दो। जर्मनी में हुए उन पैरालम्पिक खेलों में मुरलीकांत ने इतिहास रच
दिया। उन्होंने न सिर्फ भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता बल्कि उन्होंने सबसे कम समय
में 50 मीटर की तैराकी
प्रतियोगिता जीतने का विश्व रिकार्ड (पैरालम्पिक) भी बनाया। वह
कहते हैं कि स्वीमिंग पूल के अंदर मुझे सिर्फ इतना पता था कि मैं जीत गया हूँ लेकिन
बाहर आने के बाद मुझे मालूम चला कि मैंने वर्ल्ड रिकॉर्ड भी बनाया है। भारत के लिए
यह बड़ी उपलब्धि थी। मुरलीकांत को इस ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए भारत सरकार की ओर से
कई पुरस्कार मिले। भारतीय कम्पनी टाटा ने उन्हें नौकरी दी। महाराष्ट्र सरकार ने
उन्हें महाराष्ट्र भूषण का सम्मान दिया और डिफेंस की ओर से उन्हें इलाज की
रियायतें और सफर के लिए सहूलियतें भी दी जा रही हैं लेकिन मेरे मन में एक टीस है। भारत
सरकार ने कभी भी मुझे राजीव गांधी खेल पुरस्कार, अर्जुन अवार्ड या पद्मश्री के
लायक नहीं समझा।
श्री पेटकर कई सारे कागज हिलाते हुए कहते हैं, मैंने कई
सरकारी दफ्तरों को चिट्ठियां लिखीं लेकिन मेरी अपील पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
मैंने भारत का पहला ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीता था लेकिन लोग पैरालम्पिक को भूल जाते
हैं और मुझे भी भूल गए। आज मुरलीकांत पेटकर पर अभिनेता से निर्माता बने सुशांत
सिंह राजपूत एक फिल्म बना रहे हैं। उस पर मुरलीकांत सिर्फ इतना कहते हैं फिल्म से
ही सही लोगों को पता तो चलेगा कि एक पेटकर था जिसने अपने वतन का नाम ऊंचा किया था
और कहानी अमर हो जाएगी।
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