Wednesday, 11 January 2017

पैरालम्पिक में भारतीय दिव्यांगों का कमाल

नौ खिलाड़ियों ने जीते 12 पदक
पैरालम्पिक को दुनिया भर के दिव्यांगों का खेल महोत्सव कहा जाता है। निःशक्तजनों को सर गुडविंग गुट्टमान का अहसान मानना होगा कि उन्होंने खेलों के माध्यम से ही सही दुनिया को एक मण्डप के नीचे ला खड़ा किया। निःशक्तजनों के हौसला-अफजाई की जहां तक बात है, हमारे समाज में अब भी प्रगतिगामी नजरिया नहीं बन पाया है। दिव्यांगता को हम जीवन भर की मुसीबत के रूप में देखते हैं। भारत में दिव्यांगों को दया की नजर से देखा जाता है बावजूद इसके सारी परेशानियों को ठेंगा दिखाते हुए भारतीय दिव्यांगों ने इस कमजोरी को ही फौलादी शक्ल में बदल दिखाया। समाज और सरकार की ओर से बहुत ज्यादा सहयोग न मिलने के बावजूद पैरालम्पिक जैसे विश्वस्तरीय खेल मंचों पर यदि हमारे खिलाड़ी पदक हासिल करते हैं तो यह बड़ी उपलब्धि है।
ओलम्पिक की गहमागहमी के बाद उसी मैदान पर पैरालम्पिक खेलों में पदक जीतने की होड़ अब ओलम्पिक कैलेण्डर का नियमित हिस्सा बन गई है। दिव्यांग खिलाड़ी पूरे जोश और जज्बे के साथ पदक तालिका में अपना और अपने देश का नाम दर्ज कराने के लिए वर्षों की मेहनत को झोंक देते हैं। पैरालम्पिक खेलों की शुरुआत दूसरे विश्व युद्ध के बाद घायल सैनिकों को मुख्यधारा से जोड़ने के मकसद से हुई थी। खासतौर पर स्पाइनल इंज्यूरी के शिकार सैनिकों को ठीक करने के लिए इस खेल को शुरू किया गया। साल 1948 में विश्वयुद्ध के ठीक बाद स्टोक मानडेविल अस्पताल के न्यूरोलाजिस्ट सर गुडविंग गुट्टमान ने सैनिकों के रिहेबिलेशन के लिए खेलों को चुना, तब इसे अंतरराष्ट्रीय ह्वीलचेयर गेम्स नाम दिया गया था। गुट्टमान ने अपने अस्पताल के ही नहीं दूसरे अस्पताल के मरीजों को भी खेल प्रतियोगिताओं में शामिल कराने का अभिनव प्रयास किया जोकि काफी सफल रहा और लोगों ने इसे काफी पसंद किया। सर गुट्टमान के इस सफल प्रयोग को ब्रिटेन की कई स्पाइनल इंज्यूरी इकाइयों ने अपनाया और एक दशक तक स्पाइनल इंज्यूरी को ठीक करने के लिए ये रिहेबिलेशन प्रोग्राम चलता रहा। 1952 में फिर इसका आयोजन किया गया। इस बार ब्रिटिश सैनिकों के साथ ही डच सैनिकों ने भी इसमें हिस्सा लिया। इस तरह पैरालम्पिक खेलों के लिए एक जमीन तैयार हुई। सर गुट्टमान की सोच को पर लगे और 1960 रोम में पहले पैरालम्पिक खेलों का आयोजन किया गया। देखा जाए तो 1980 के दशक में ही इन खेलों में क्रांति आई।
आमतौर पर पैरालम्पिक खेलों से आम जनता अनजान रहती है। अब तक हुए पैरालम्पिक खेलों में भारत का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा बावजूद इसके कुछ ऐसे भारतीय एथलीट हैं जिन्होंने अपने लाजवाब प्रदर्शन से इन खेलों को भी यादगार बना दिया। भारतीय पैरा एथलीटों को व्यक्तिगत पदक लाने में 56 साल लगे तो पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक हासिल करने के लिए भारत को 112 साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा। सामान्य ओलम्पिक खेलों की तरह पैरालम्पिक खेलों का भी खासा महत्व है। भारत ने सामान्य ओलम्पिक खेलों में अब तक 28 पदक जीते हैं तो पैरालम्पिक में हमारे 09 खिलाड़ियों ने ही अपनी क्षमता व लाजवाब प्रदर्शन का लोहा मनवाते हुए अब तक 12 पदक मुल्क की झोली में डाले हैं।
भारतीय खिलाड़ियों ने पैरालम्पिक खेलों में पदक जीतने का सिलसिला 1972 में शुरू किया था जब मुरलीकांत पेटकर ने भारत के लिए पैरालम्पिक खेलों का पहला स्वर्ण पदक दिलवाया। 1972 में मुरलीकांत पेटकर का जर्मनी जाना मील का पत्थर साबित हुआ और उन्होंने पैरालम्पिक खेलों में इतिहास रच दिया। सेना के इस जांबाज ने न सिर्फ भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता बल्कि सबसे कम समय में 50 मीटर की तैराकी प्रतियोगिता जीतने का पैरालम्पिक रिकार्ड भी बना डाला। भारतीय खेलों के नजरिए से देखें तो मुरलीकांत पेटकर आज तरणताल की किंवदंती हैं। पेटकर की सफलता के 12 साल बाद 1984 में न्यूयार्क के स्टोक मैंडाविल में आयोजित पैरालम्पिक खेलों में भारतीयों ने दो रजत व दो कांस्य पदक जीते। इस पैरालम्पिक में भीमराव केसरकर ने भालाफेंक तो जोगिन्दर सिंह बेदी ने गोलाफेंक में रजत पदक जीते। भारतीय पहलवान सुशील कुमार ही एकमात्र ऐसे एथलीट हैं जिन्होंने ओलम्पिक में दो बार पदक जीते हैं लेकिन पैरालम्पिक में एक बड़ा इतिहास दर्ज है। 1984 स्टोक मैंडाविल पैरालम्पिक भारत के लिहाज से सबसे सफल रहे, इसमें जोगिन्दर सिंह बेदी ने एक चांदी और दो कांसे के पदक अपने नाम किए थे। यह कारनामा उन्होंने गोला फेंक, भाला फेंक और चक्का फेंक प्रतिस्पर्धा में हासिल किया।
इस सफलता के बाद 20 साल तक भारत की पदक तालिका खाली रही और फिर 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में देवेन्द्र झाझरिया ने भालाफेंक में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया तो राजिन्दर सिंह रहेलू ने भारत को पावरलिफ्टिंग में कांस्य पदक दिलवाकर भारत के पदकों की संख्या दो कर दी। 2012 के लंदन पैरालम्पिक खेलों में भारत को केवल एक रजत पदक से संतोष करना पड़ा। भारत को गिरीश नागराज गौड़ा ने ऊंचीकूद में चांदी का पदक दिलाया। रियो में भारतीय पैरा एथलीटों ने दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक जीते। भारत ने अब तक पैरालम्पिक खेलों में जीते 12 पदकों में से एथलेटिक्स में 10, तैराकी और पावरलिफ्टिंग में एक-एक पदक जीते हैं। इन एक दर्जन पदकों में चार स्वर्ण, चार रजत और चार कांस्य पदक शामिल हैं। इन 12 पदकों में से तीन स्वर्ण, चार रजत और तीन कांस्य पदक तो एथलेटिक्स में ही मिले हैं। भारत को तैराकी और पावरलिफ्टिंग में एक स्वर्ण और एक कांस्य पदक हासिल हुआ है। 2016 में हुए रियो पैरालम्पिक में चैम्पियन चीन, ब्रिटेन और अमेरिकी दिव्यांग खिलाड़ियों की अदम्य इच्छाशक्ति से परे भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों ने दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक के साथ भारत को तालिका में 42वां स्थान दिलाया।
भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों की यह उपलब्धि कई मायनों में खास है। हमारे 117 सक्षम खिलाड़ियों ने इसी रियो में दो बेटियों शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक के पदकों की बदौलत बमुश्किल मुल्क को शर्मसार होने से बचाया था तो पैरालम्पिक खेलों में महज 19 सदस्यीय दल ने दो स्वर्ण सहित चार पदक जीतकर धाक जमा दी। पैरालम्पिक खेलों में स्वीमर से एथलीट बनी हरियाणा की दीपा मलिक गोला फेंक में चांदी का तमगा जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं। मेरी लीला रो भारत की तरफ से ओलम्पिक खेलों में शिरकत करने वाली पहली महिला खिलाड़ी हैं तो पैरालम्पिक में तीरंदाज पूजा ने पहली बार लक्ष्य पर निशाने साधे हैं। दिव्यांग दीपा मलिक ने कुदरत द्वारा दी गई अपूर्णता को अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से पूर्णता में बदल दिखाया। कितना प्रेरक है कि जिसका धड़ से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो जाये वह मुल्क को पदक दिलाने का संकल्प बना ले। 31 सर्जरी और 183 टांकों की टीस से गुजरने वाली दीपा में जीत का हौसला तब तक कायम रहा जब तक कि उसने चांदी का पदक गले में नहीं डाल लिया।
हमें सोना जीतने वाले खिलाड़ी मरियप्पन थंगवेलु, देवेन्द्र झाझरिया व कांस्य पदक विजेता वरुण भाटी को भी याद करना चाहिए। वे भी भारतीय सुनहरी कहानी के महानायक हैं। इन्होंने अपने दर्द को लाचारी नहीं बनने दिया। अपने जोश व हौसले को जिन्दा रखा। भारतीयों के सामने मिसाल रखी कि हालात कितने ही विषम हों, जीत का हौसला कायम रखो। विडम्बना है कि खाते-पीते स्वस्थ लोग जरा-सी मुश्किल से घबराकर आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं लेकिन इन पदक विजेताओं को देखिये इन्हें समाज की उपेक्षा व सम्बल देने वाली नीतियों के अभाव में भी जीतना आया। रियो पैरालम्पिक में कुछ खास बातें भी हुईं जैसे ऊंची कूद में एक स्वर्ण और एक कांस्य लेकर पहली बार दो भारतीय खिलाड़ी एक साथ पोडियम पर चढ़े। मरियप्पन थंगावेलू ने स्वर्ण जीता तो इसी प्रतियोगिता में वरुण भाटी ने कांस्य पदक से अपना गला सजाया।

मरियप्पन थंगावेलू जब बहुत छोटे थे तभी नशे में धुत एक ट्रक ड्राइवर ने उन पर ट्रक चढ़ा दी थी और उन्हें अपना पैर खोना पड़ा। विकलांगता के कारण उनके पिता ने उन्हें छोड़ दिया और मां ने कठिन परिश्रम कर उन्हें पाला-पोसा। बेहद गरीबी में जीकर भी उन्होंने अपने हौसले से स्वर्ण पदक हासिल कर मुल्क का मान बढ़ाया। मरियप्पन की मां आज भी सब्जी बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण करती हैं। ऊंची कूद में कांस्य पदक हासिल करने वाले वरुण प्रारम्भ में बास्केटबाल खिलाड़ी थे और अच्छा खेलते भी थे लेकिन विकलांग होने के कारण उन्हें बाहर होने वाले मैचों में नहीं ले जाया जाता था और कई बार स्कूल में भी खेल से बाहर कर दिया जाता था। इस संवेदनहीनता से वरुण हारे नहीं और बास्केटबाल छोड़कर ऊंची कूद में भी अपना हुनर दिखाया और पदक विजेता बनकर सारे मुल्क का नाम रोशन किया। रियो पैरालम्पिक में दूसरा स्वर्ण पदक जीतने वाले राजस्थान के चुरू जिले के देवेंद्र झाझरिया की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। इस राजस्थानी एथलीट ने भाला फेंक में न केवल स्वर्णिम सफलता हासिक की बल्कि 63.97 मीटर दूर भाला फेंककर विश्व कीर्तिमान भी रच डाला। इससे पहले 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में भी देवेंद्र को स्वर्ण पदक हासिल हुआ था। तब उन्होंने 62.15 मीटर दूर भाला फेंका था। दुर्घटना में एक हाथ खोने वाले देवेंद्र झाझरिया ने साबित कर दिखाया कि एक ही हाथ से दो बार विश्व रिकार्ड बनाने के लिए मानसिक हौसले की जरूरत होती है। देवेन्द्र पैरालम्पिक खेलों में दो स्वर्ण पदक जीतने वाले भारत के पहले खिलाड़ी हैं। अधूरेपन से लड़ाई लड़ते हुए भी पैरालम्पिक में पदक जीतने वाले इन खिलाड़ियों की मानसिक ताकत को हर खेलप्रेमी को सलाम करना चाहिए जो बताते हैं कि मुश्किल कितनी भी बड़ी क्यों न हो, हमें हिम्मत नहीं हारनी। 

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