कुश्ती की
पृष्ठभूमि पर बनी सुल्तान फिल्म का ग्लैमर पूरे देश के सिर चढ़ कर बोला। सलमान खान
अभिनीत यह फिल्म कमाई के मामले में भी ठीक रही। कुछ ऐसे ही आंकड़े आमिर खान की
दंगल की कमाई के भी मिले। सुल्तान और दंगल को लेकर बना क्रेज बताता है कि देश में
कुश्ती के चाहने वाले कम नहीं हैं। लेकिन विडम्बना देखिए, पहलवान होने का
दिखावा (एक्टिंग) करने वाले तो करोड़ों कमा रहे हैं लेकिन असली पहलवान आर्थिक
मोर्चे पर संघर्ष करते ही नजर आते हैं। कुछ नामी-गिरामी पहलवानों को छोड़ दिया जाए
तो अधिकांश की हालत ज्यादा अच्छी नहीं कही जा सकती। खासतौर से उन पहलवानों की
जिन्होंने कुश्ती का ककहरा मिट्टी के अखाड़ों में सीखा है और जिनमें आज भी पारम्परिक
कुश्ती को जिंदा रखने का जज्बा है। सुल्तान और दंगल सरीखी फिल्मों से भी अखाड़ों
या पहलवानों की दशा में कोई खास बदलाव आने वाला नहीं है। हां, इन फिल्मों से कुश्ती संघ यह जरूर सीख सकता है कि जब एक
फिल्मकार कुश्ती की लोकप्रियता को भुनाकर करोड़ों रुपये कमा सकता है तो वह क्यों
नहीं अपने लिए बाजार तैयार कर सकता। कुश्ती को इस मामले में कबड्डी और हॉकी का
अनुसरण करना चाहिए। इन दोनों ही खेलों की हालत कुश्ती से इतर नहीं थी, लेकिन लीग शुरू होने के बाद आज स्थिति अलग है। कुश्ती संघ ने
लीग की शुरुआत कर अच्छा प्रयास किया है, लेकिन अभी उसे लम्बा
सफर तय करना होगा।
देश की ज्यादातर
व्यायामशालाएं (अखाड़े) दान और चंदे पर ही निर्भर हैं। तीज-त्योहारों और खास मौकों
पर दंगलों का आयोजन तो आज भी खूब हो रहा है लेकिन मिट्टी के अखाड़ों में कुश्ती के
दांवपेच सीखने वाले पहलवानों के लिए अवसर सिमट रहे हैं। अब कई बड़े दंगल मिट्टी
नहीं, मैट पर हो रहे हैं। गांव-देहात में
मिट्टी में कुश्ती लड़-लड़कर बड़ा हुआ पहलवान मैट पर गच्चा खा जाता है। मिट्टी पर
चित और पट का खेल मायने रखता है तो मैट पर अंक जुटाने की चतुराई ज्यादा काम आती
है। यही वजह है कि मिट्टी पर जो पहलवान ताकतवर है वह मैट पर वैसा साबित नहीं हो
पाता। पूर्व प्रसिद्ध पहलवान जगदीश कालीरमन कहते हैं, ‘सवाल मिट्टी और मैट का नहीं है। सवाल है अवसर
का। अगर आप आगे बढ़ना चाहते हैं, ओलम्पिक और अन्य
अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में देश का नाम रोशन करना चाहते हैं तो आपको मैट पर
अपनी दक्षता साबित करनी ही होगी। पिछले दो ओलम्पिक में हमने तीन पदक मैट पर लड़कर
ही जीते हैं। अगर हमारे खिलाड़ी सिर्फ मिट्टी पर अभ्यास करते तो ये पदक कैसे आते।’
यह बात बेशक अपनी
जगह सही है लेकिन परम्परागत कुश्ती का क्या? किसी भी पहलवान
से पूछ लीजिए। उसे सोंधी-सोंधी खुशबू वाली मिट्टी ही अखाड़े में खींचती है। पर, उसी मिट्टी से पहलवानों की दूरी बढ़ रही है। पर जगदीश
कालीरमन इस बात से इत्तफाक नहीं रखते। वह कहते हैं, ‘जिन अखाड़ों में
मैट पर अभ्यास कराया जाता है, वहां भी मिट्टी
के अखाड़े हैं। मैट पर अभ्यास करने वाला पहलवान मिट्टी के अखाड़े में भी लड़ सकता
है। जब कोई बड़ा टूर्नामेंट नहीं होता तो कई नामी पहलवान दंगलों में भाग लेते हैं।’
निजी या सामाजिक
संस्थाओं द्वारा आयोजित दंगलों को छोड़ दिया जाए तो कुश्ती संघों से लेकर सरकार तक
उन्हीं पहलवानों को तवज्जो देती है जो मैट पर लड़ते हैं। मिट्टी के अखाड़ों में
लड़ने वाले पहलवानों के लिए तो गांव-कस्बों की कुश्तियों में मिलने वाला ईनाम ही
आजीविका का सहारा बन पाता है। पर इसके बावजूद कुछ तो बात है कि परम्परागत कुश्ती
का आकर्षण बना हुआ है। उत्तर प्रदेश के बनारस, गाजियाबाद, मेरठ, आगरा, हरियाणा के
पानीपत, सोनीपत, भिवानी, मध्यप्रदेश के भोपाल, इंदौर से लेकर
महाराष्ट्र के कोल्हापुर और सांगली तक के कई अखाड़े परम्परा को संजोए हुए हैं।
कोल्हापुर और सांगली के दंगलों में हजारों लोगों का जुटना सामान्य सी बात है।
इस सबके बावजूद
यह एक तथ्य है कि ओलम्पिक सरीखी प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर देश का नाम रोशन करने
की इच्छा युवा पीढ़ी को मैट पर कुश्ती लड़ने के लिए प्रेरित कर रही है। ओलम्पिक, राष्ट्रमंडल खेलों तथा अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में सुशील
कुमार, योगेश्वर दत्त और नरसिंह यादव सरीखे
पहलवानों की सफलता से यह तो हुआ कि कुश्ती को अब गंभीरता से लिया जाने लगा है।
पिछले कुछ वर्षों में पहलवानों की संख्या में भी अच्छा-खासा इजाफा हुआ है। पर, अब भी यह खेल शहरी युवाओं को लुभा नहीं पाया है। जगदीश
कालीरमन बताते हैं, ‘ज्यादातर बच्चे साधारण किसान परिवारों
से ही आ रहे हैं।’ शायद इसकी एक वजह यह भी है कि अन्य
खेलों के मुकाबले कुश्ती ज्यादा मेहनत और ताकत मांगती है। कुश्ती मैट पर लड़ें या
मिट्टी पर तैयारी के लिए शारीरिक तपस्या एक जैसी ही है।
ओलम्पिक में भारत
के लिए पहला व्यक्तिगत पदक खाशाबा जाधव ने 1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक
में कुश्ती में ही जीता था लेकिन इसके बावजूद कुश्ती और पहलवान उपेक्षा के शिकार
रहे हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले
पहलवानों को जीवनयापन के बारे में नहीं सोचना पड़ता, लेकिन आज भी ऐसे पहलवान
हैं जो गरीबी में जीवन काट रहे हैं।
हां, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार ने पहलवानों की मदद के
लिए जरूर अच्छी पहल की है। हरियाणा में जिलास्तरीय प्रतियोगिता से लेकर राज्यस्तरीय
प्रतियोगिता के विजेताओं के लिए पुरस्कार राशि में इजाफा किया गया है। हरियाणा के
खेल मंत्री अनिल विज बताते हैं, ‘हरियाणा सरकार ने
गत 23 मार्च को शहीद दिवस पर राष्ट्रीय स्तर
का भारत केसरी दंगल का आयोजन किया। इस प्रतियोगिता में एक लाख से लेकर एक करोड़
रुपये तक के ईनाम बांटे गए। अब हर वर्ष 23 मार्च को यह
प्रतियोगिता आयोजित की जाएगी।’ इतना ही नहीं, हरियाणा सरकार
गांवों में बंद पड़े अखाड़ों को फिर से खोलने पर भी काम कर रही है। कुछ अखाड़े तो
खुलने भी शुरू हो गए हैं। अनिल विज बताते हैं, ‘योग और
व्यायामशाला के लिए गांवों को जमीन दी जा रही है। सरकार ऐसे 100 अखाड़ों में जिम और मैट्स की व्यवस्था करेगी
जो अच्छे खिलाड़ी निकाल रहे हैं।’
हरियाणा के पुरुष
पहलवान लम्बे समय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रांत और देश का नाम रोशन करते
रहे हैं। पर, हाल के वर्षों में गीता फोगाट, बबीता फोगाट, विनेश फोगाट और
साक्षी मलिक सरीखी पहलवान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिला कुश्ती में भारत का परचम
फहरा रही हैं। राजस्थान में उदयपुर, भरतपुर और अलवर
में कुश्ती जमाने से लोकप्रिय खेल रहा है। लोगों की रुचि देखते हुए कांग्रेस की
अशोक गहलोत सरकार ने कुश्ती अकादमी खोलने की घोषणा की थी, लेकिन सरकार बदलने के साथ ही यह मामला अधर में लटक गया। बात
यदि उत्तर प्रदेश की करें तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले
पहलवानों का मान-सम्मान करने में सरकार पीछे नहीं रही है, लेकिन छोटे स्तर पर कामयाबी हासिल करने वाले पहलवानों को
प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है।
हालांकि प्रदेश की
अखिलेश यादव सरकार ने कई पहलवानों को यश भारती पुरस्कार से भी नवाजा है लेकिन सभी
नामी-गिरामी हैं। वैसे भी प्रदेश की सपा सरकार के पहलवानों का हितैषी माने जाने के
अपने कारण हैं। दरअसल, सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव स्वयं
पहलवान रहे हैं। प्रसिद्ध सैफई महोत्सव में मुलायम सिंह अपनी मौजूदगी में हर वर्ष
दंगल भी कराते हैं जिसमें देश भर के पहलवान हिस्सा लेते हैं। मुलायम सिंह पहलवानी
अब भी नहीं भूले हैं। कुश्ती में वैसे उत्तर प्रदेश के हिस्से कुछ बड़ी उपलब्धियां
भी हैं। रियो ओलम्पिक के लिए चुने गए नरसिंह यादव उत्तर प्रदेश से ही ताल्लुक रखते
हैं, दुर्भाग्य से वह षड्यंत्र का शिकार हो गये।
बनारस में कुश्ती
और अखाड़ों की समृद्ध परम्परा रही है। यहां कहा जाता था कि जिस युवक ने दिन में
दो-तीन घंटे ‘धूर’ में लोटाई नहीं
की, उसने कुछ नहीं किया। कभी यहां हर
मोहल्ले का अपना अखाड़ा था मगर अब बदलते दौर में ज्यादातर
बंद हो गए। पंडाजी का अखाड़ा आज भी दूर-दूर तक अपनी पहचान बनाए हुए है। राम मंदिर
अखाड़ा दो सौ साल पुराना बताया जाता है। मोहल्ला बड़ा गणेश अखाड़ा डेढ़ सौ साल का
इतिहास समेटे हुए है। अखाड़ा रामसिंह अब तक सात हजार से अधिक पहलवान तैयार कर चुका
है। कहा जाता है कि यहां के कुन्नू जी पहलवान महीने में सवा लाख दंड पेलते थे। यह
सब बातें अब गुजरे दौर की हैं। अब तो यहां मात्र बीस-पच्चीस अखाड़े ही बचे हैं जो
बनारस की इस परम्परा को बचाए हुए हैं।
पहलवान विनोद
यादव बताते हैं, ‘अन्य राज्य के मुकाबले उत्तर प्रदेश में
पहलवानों के लिए सुविधाएं बेहद कम हैं। सरकार ने अनेक शहरों में स्टेडियम तो बनवाए मगर वहां कोच ही नहीं
हैं।’ विनोद गाजियाबाद के बमहैटा गांव के हैं।
यह गांव विख्यात जगदीश पहलवान के गांव के रूप में जाना जाता है। गांव में इन दिनों
छह अखाड़े चल रहे हैं। विनोद बताते हैं, ‘पहलवानों को
अच्छी खुराक लेनी होती है अत: सक्षम परिवारों से आए युवक तो कुछ साल तक निश्चिंत
होकर पहलवानी कर लेते हैं मगर जो पहलवान आर्थिक रूप से कमजोर हैं उन्हें मजबूरन
पहलवानी छोड़नी पड़ती है। पहलवान सतवीर सिंह कहते हैं, ‘कुश्ती में हरियाणा और दिल्ली के आगे निकलने
की वजह पहलवानों को मिली सरकारी मदद है। उत्तर प्रदेश में भी बहुत प्रतिभाएं हैं
जो सरकारी सहयोग से निखर सकती हैं।’
भारतीय कुश्ती
संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह बताते हैं कि 2016 में सब जूनियर एशियाई चैम्पियनशिप
में उत्तर प्रदेश की दो महिला पहलवान मानसी यादव और पूजा यादव ने दांव-पेच दिखाए
थे। श्री सिंह गोंडा से सांसद हैं और स्वयं अपने क्षेत्र में अखाड़ा चलाते हैं। वह
कहते हैं, ‘हमारे खिलाड़ी ओलम्पिक और एशियाई खेलों
में पदक ला रहे हैं। ऐसे में सरकार को इस तरफ और ध्यान देना चाहिए।’
उत्तर प्रदेश के
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दावा करते हैं कि उनके कार्यकाल में सरकार ने लखनऊ, गोरखपुर और सैफई में स्पोर्ट्स कॉलेज खोले हैं जहां अन्य
खेलों के साथ-साथ कुश्ती पर भी पूरा ध्यान दिया जा रहा है। प्रसिद्ध पहलवान
रामाश्रय सिंह भी कुश्ती को लेकर आश्वस्त नजर आते हैं। वह कहते हैं, ‘देश के पहलवानों ने माहौल बना दिया है, अब कुश्ती सबकी निगाहों में है।’ बड़े पहलवानों और सरकारी दावों की हवा निकालने के लिए
कुश्तियों के आयोजक सतीश विधूड़ी का यह कथन काफी है कि गांव-देहात में पहलवानों की
हालत खस्ता है। पहलवानी छूटने पर भी खुराक कम नहीं होती जो जेब पर बहुत भारी पड़ती
है।
दरअसल, पहलवानों की खुराक हमेशा मुद्दा बनती रही है। पहलवान का सबसे
ज्यादा खर्चा उसकी खुराक पर ही होता है। दूध, दही, घी और बादाम पहलवानों के भोजन का अभिन्न अंग हैं। महीने में 12 से 15 हजार रुपये एक
पहलवान की खुराक पर खर्च हो जाते हैं। इसलिए यह मान लेना कि कुश्ती जैसे खेल में
कुछ खर्च नहीं आता, एक भ्रांत धारणा है। फिर अब तो मैट और
किट का खर्च अलग से है। यह सही है कि ज्यादातर अखाड़ों में नि:शुल्क प्रशिक्षण
मिलता है। भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) भी कई योजनाएं चला रहा है। राष्ट्रीय और
अंतरराष्ट्रीय पहलवान निकालने वाले अखाड़ों को साई मैट और कोच उपलब्ध कराता है।
बहुत से अखाड़ों में पहलवानों के रहने की भी व्यवस्था है लेकिन उन्हें अपनी खुराक
का खर्चा खुद उठाना पड़ता है। एक पहलवान पर महीने में 20-25 हजार रुपये का खर्च तो आ ही जाता है। सवाल यह
है कि देश में ऐसे कितने किसान परिवार हैं जो यह खर्च उठाने में सक्षम हैं। जानकार
बताते हैं कि ज्यादातर पहलवान अपनी खुराक का खर्च या तो दंगल में कुश्ती लड़कर
निकालते हैं या फिर कुछ संस्थाओं या समाज के प्रभावशाली व्यक्तियों के सहयोग से
उन्हें सहारा मिलता है। ऐसा नहीं है कि केंद्र या राज्य सरकारें मदद नहीं करतीं
लेकिन खिलाड़ी के एक मुकाम पर पहुंचने के बाद ही यह हासिल हो पाती है।
सलमान खान की
फिल्म सुल्तान की रिकॉर्ड तोड़ कमाई से यह तो साबित होता है कि भारत की जनता को
स्त्री की अस्मिता से ज्यादा असहिष्णुता के मुद्दे छूते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो
सलमान के बयान के बाद सुल्तान का हाल भी शाहरुख खान की फिल्म दिलवाले की तरह होता।
खैर। सलमान खान की यह फिल्म कमाई के आंकड़ों में सुल्तान बनी हुई है। चुटीले संवाद, सुल्तान बने सलमान की हाजिर जवाबी, भोला सा चेहरा और उस पर पहलवानी के दांवपेच ने इस फिल्म की
कमाई के सारे आंकड़े ध्वस्त कर दिए हैं। विशुद्ध सलमान खान मार्का इस फिल्म में
एक्शन की भरपाई कुश्ती से हुई है। अगर यह फिल्म सलमान की न होती तो कमाई और फिल्म
की तारीफ औसत से ऊपर नहीं बढ़ पाती। पहलवान के चरित्र को जीते हुए सलमान ने जिंदगी
में हारे व्यक्ति की भूमिका के जरिये भारत में पहलवानों की स्थिति पर भी रोशनी
डाली है।
भारत में पहलवानी
का इतिहास बहुत पुराना है। भारत भर में नागपंचमी पर दंगल लड़े जाते थे। भारत ने
बड़े-बड़े पहलवान दिए मगर ये पहलवान अपने हुनर को ओलम्पिक पदक में परिवर्तित नहीं
कर सके। यह दुख बहुत पुराना है कि क्रिकेट के अलावा भारत में किसी भी खेल में पैसा
नहीं है। भारत में खेल का मलतब क्रिकेट ही होता है। ऐसे में सलमान की फिल्म बिना
भाषण के बताती है कि एक ओलम्पिक पदक विजेता कैसे एक छोटी सी नौकरी कर आम आदमी का
जीवन जीता है। बाद में जब उसे प्रायोजक की जरूरत होती है तो नामी पहलवान रह चुके
उस आदमी को स्थानीय बाजार का एक दुकानदार अपने कुकर के ब्रांड के लिए प्रायोजित करता
है! भारत में खेल में प्रतिभा का आकलन ओलम्पिक जैसी बड़ी स्पर्धाओं में चमकता हुआ
सुनहरा तमगा है। सुल्तान भी ऐसा ही पहलवान है जो तमाम विश्वस्तरीय प्रतियोगिताएं
जीतते हुए ओलम्पिक में पदक लाता है लेकिन पैसा नहीं कमा पाता। तभी एक ब्लड बैंक
बनवाने की खातिर पैसा इकट्ठा करने के लिए उसे चंदा जमा करना पड़ता है। निर्देशक
अली अब्बास जफर शायद इसलिए ऐसा दिखा पाए होंगे कि उन्होंने ओलम्पिक पदक विजेताओं
या ऐसे ही प्रतिभावान खिलाड़ियों की दुर्दशा की खबरें अखबारों में पढ़ी होंगी।
सुल्तान ने छह
जुलाई 2016 को पूरे भारत में चार हजार तीन सौ पचास स्क्रीन और भारत से बाहर 1100 स्क्रीन में अपने मुरीदों को आदाब किया था। पहले
फिल्मों से कमाई का जो शिगूफा 100 करोड़ रुपये का
था अब बढ़कर 300 करोड़ रुपये हो गया है। अब करोड़ी क्लब
का आंकड़ा सौ नहीं बल्कि 300 करोड़ तक पहुंच गया है। सलमान बॉलीवुड
के अकेले ऐसे सुपरस्टार हैं, जिनकी 10 फिल्में 100 करोड़ रुपये के
क्लब में शामिल हुई हैं। इस क्लब में शाहरुख की छह, अक्षय कुमार-अजय
देवगन की पांच और आमिर खान की पांच फिल्में शामिल हैं।
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