60 फीसदी
दिव्यांगों के पास नहीं हैं प्रमाण-पत्र
पूरी दुनिया में लगभग एक अरब लोग दिव्यांगता की
गिरफ्त में हैं। अधिकांश देशों में हर दस व्यक्तियों में से एक व्यक्ति शारीरिक या
मानसिक रूप से दिव्यांग है। इसी चिन्ताजनक स्थिति से उबरने के प्रयास हो रहे हैं,
जिन्हें और गति देने की दरकार है। वैसे तो पूरे विश्व में तीन दिसम्बर को विकलांग दिवस मनाया जाता है लेकिन दिव्यांगता को अवसर में बदलने
के अभी तक वाजिब प्रयास नहीं हुए। विकलांगता एक ऐसा शब्द है, जो किसी को भी
शारीरिक, मानसिक और उसके बौद्धिक विकास में अवरोध पैदा करता है। ऐसे व्यक्तियों को
समाज में अलग ही नजर से देखा जाता है। यह शर्म की बात है कि हम जब भी समाज के विषय
में विचार करते हैं तो सामान्य नागरिकों के बारे में ही सोचते हैं। इसमें हम दिव्यांगों
को बिसरा देते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। ऐसा
किस संविधान में लिखा है कि यह दुनिया केवल सक्षम लोगों के लिए ही बनी है, बाकी वह
लोग जो एक साधारण इंसान की तरह व्यवहार नहीं कर सकते, उन्हें मुख्य धारा से अलग
रखा जाए। क्या इन लोगों के लिए यह दुनिया नहीं है।
दिव्यांगों में सबसे बड़ी बात यही होती है कि
ये स्वयं को कभी लाचार नहीं मानते। वह सिर्फ यह चाहते हैं कि उन्हें अक्षम न माना
जाए। उनसे सामान्य तरह से व्यवहार किया जाए। दिव्यांगों की असलियत को जानना है तो
हमें उनके बीच पहुंचना होगा। कभी किसी विकलांग संस्था में जाकर देखें तो पाएंगे कि
जिन्हें हम लाचार मानते हैं, उनमें कुछ कर गुजरने का जुनून होता है, वह अपने आपको कभी
दिव्यांग नहीं मानते। यह अपनी छोटी सी दुनिया में ही मस्त रहते हैं। कई बार तो यह
अपना प्रदर्शन एक सामान्य व्यक्ति से अधिक बेहतर करते हैं। सरकारी ही नहीं बल्कि
निजी संस्थानों में भी यह दिव्यांग अपनी सेवाएं बड़ी शिद्दत से दे रहे हैं। यह
अपनी ही दुनिया में इतने व्यस्त और मस्त हैं कि इन्हें हमारी आवश्यकता ही नहीं है।
इनके अपने खेल होते हैं। ये साधारण इंसान के साथ ताश भी खेल सकते हैं। हम चाहकर भी
इन्हें धोखा नहीं दे सकते। जो नेत्रहीन हैं, उनके पोरों में ही छिपी होती है ताकत।
ईश्वर उनसे दृष्टि ले लेता है, पर स्पर्श का वह खजाना दे देता है कि जिस चीज को वे
एक बार छू लें तो वह स्पर्श वे कभी नहीं भूलते। यह हमारी कमजोरी है कि हम एक जागरूक
समाज के नागरिक होने के नाते समाज के विभिन्न वर्ग को समझने और स्वीकारने का साहस
रखते हैं, पर दिव्यांगों के लिए यह भाव नहीं रखते। हमारे संविधान में सामान्य
नागरिक की तरह सभी को अधिकार दिए गए हैं, इसी तरह दिव्यांगों को भी कई अधिकार दिए
गए हैं। फिर भी समाज में उन्हें अपना स्थान प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ता
है। हमने न जाने कितने दिव्यांगों को अपने अधिकार के लिए जूझते देखा होगा। कोई
पेंशन के लिए, कोई अपनी नौकरी बचाने के लिए, कोई अपने बच्चे की फीस के लिए और कोई
अपने जीने के हक के लिए संघर्ष करता दिखाई देता है। पर हम कभी आगे बढ़कर उनकी
सहायता के लिए आगे नहीं आते। कई बार इन्हें बुरी तरह से दुतकारा जाता है। मानो
विकलांगता इनके लिए एक श्राप हो। कोई खुद होकर विकलांग होना नहीं चाहता। इंसान
हालात से मजबूर होता है। कई जन्म से विकलांग होते हैं तो कोई दुर्घटना से। किसी को
बीमारी के बाद विकलांगता आ जाती है, आखिर इसमें इनका क्या दोष है। अब सवाल यह कि इनके
साथ भी सामान्य नागरिक सा व्यवहार क्यों नहीं किया जाता।
विश्व में न जाने कितने दिव्यांग ऐसे हुए हैं,
जिन्होंने अपने प्रदर्शन से सामान्य लोगों को सोचने के लिए विवश कर दिया है। कई
लोग एवरेस्ट की ऊंचाई को पार कर चुके हैं, तो हजारों हजार लोगों ने अच्छी तालीम
हासिल कर नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। दिव्यांगों ने विज्ञान के क्षेत्र में भी
सफलता का परचम लहराया है। समाज का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहां दिव्यांगों ने
अपनी उपस्थिति दर्ज न कराई हो। वे सक्षम हैं, पूरी तरह से सक्षम हैं, हम ही उन्हें
सक्षम नहीं मान रहे। इन्हें हमारी सहानुभूति नहीं चाहिए। यह भी चाहते हैं कि
उन्हें लाचार न समझा जाए, एक सामान्य नागरिक की तरह उनसे व्यवहार किया जाए। स्टीफन
हाकिंग का नाम दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम है। चाहे वह कोई स्कूल का छात्र हो
या फिर वैज्ञानिक, सभी इन्हें जानते हैं। उन्हें जानने का केवल एक ही कारण है कि
वे दिव्यांग होते हुए भी आइंस्टाइन की तरह अपने व्यक्तित्व और वैज्ञानिक शोध के
कारण हमेशा चर्चा में रहे।
स्टीफन हाकिंग ने ब्रह्मांड और ब्लेक होल पर नए
सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। विज्ञान को एक साधारण से साधारण व्यक्ति तक
पहुंचाने वाले हाकिंग ने एक किताब लिखी है ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम। इस किताब की
अब तक एक करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं। उन्हें विज्ञान का प्रचारक कहा जाता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उन्हें अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति का खिताब
देकर सम्मानित कर चुके हैं। हाकिंग स्वयं विकलांगता की व्याख्या इस प्रकार करते
हैं- विकलांग होना बुरी बात नहीं है। मेरी बीमारी के विषय में मेरे पास अच्छे शब्द
नहीं हैं, परंतु मुझे इतना समझ में आता है कि हमें कभी भी किसी की दया का पात्र
नहीं बनना है क्योंकि अन्य लोग आपसे भी अधिक खराब स्थिति में हैं। इसलिए आप जो कर
सकते हो, उसे प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ो। मैं भाग्यशाली हूं कि सैद्धांतिक
विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहा हूं। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें विकलांगता
कोई बड़ी समस्या नहीं है। अभी मैं जीवन के सातवें दशक में हूं। एमयोट्रोफिक लेटरल
स्केलरोसिस बीमारी से पीड़ित हूं। इस बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों में से सबसे
अधिक समय तक जिन्दा रहने वालों में से मैं हूं। इससे भी बड़ी बात यह है कि मेरे
शरीर का अधिकांश हिस्सा शिथिल हो गया है, अपनी बात कम्प्यूटर के माध्यम से करता
हूं। यह हैं एक विकलांग के शब्द, जो हमें आज तक प्रेरणा देते हैं।
हम अपना नजरिया बदलें और देखें कि हमारे आसपास
ऐसे न जाने कितने दिव्यांग मिल जाएंगे जो अपनी दिव्यांगता को भूलकर अपनी जिन्दगी को
आसान बनाकर जी रहे हैं। कई बार तो इन्होंने सरकारी सहायता को भी ठुकरा दिया है। ये
अपना अधिकार चाहते हैं, ये दया के पात्र नहीं हैं। इन्हें भी जीने का अधिकार है,
इन्हें जीने का अधिकार सरकार दे या न दे, पर हम अपना नजरिया बदल कर दे सकते हैं।
इनकी खिलखिलाहट को महसूस करें, इनकी पीड़ा को समझने की कोशिश करें, इनकी वेदना से
जुड़ने की हमारी एक छोटी सी कोशिश इनके जीवन में उजास भर देगी।
दिव्यांगता एक ऐसी परिस्थिति है जिससे आप चाहकर
भी पीछा नहीं छुड़ा सकते। एक आम आदमी छोटी-छोटी बातों पर झुंझला उठता है तो जरा
सोचिये उन लोगों के बारे में जिनका खुद का शरीर उनका साथ छोड़ देता है। फिर भी
जीना कैसे है कोई इनसे सीखे, कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने दिव्यांगता जैसी कमजोरी को
अपनी ताकत बनाया है। सरकार की भी कोशिश होनी चाहिए कि वह इनके अधिकारों से इन्हें
रूबरू कराए, इन्हें बंदी न बनने दे। लोग यह बात न भूलें की अपंग और विकलांग कोई भी,
कभी भी हो सकता है। जिस घृणा भरी नजरों से हम इन्हें देखते हैं उन्हीं नजरों में
अगर खुद के किसी व्यक्तिगत आपातकाल का नजारा देख लें तो दिव्यांगों के प्रति यह
भावना अपने आप दूर हो जाएगी। जरा सोचिए इनके हालात, जहाँ आज के समय में जब खून के
रिश्ते तक धोखा दे जाते हैं और अपना सहारा स्वयं बनना पड़ता है, ऐसे में अगर आपका
खुद का शरीर ही साथ न दे तो इंसान किस उम्मीद पर जिएगा, किसके सहारे जिएगा।
दिव्यांगों के उत्थान के लिए सरकार ने कई
योजनायें मुहैया करायी हैं मगर क्या सिर्फ इतना ही इनके लिए काफी होगा। दिव्यांगों
की थोड़ी सी मदद उनका जीवन संवार सकती है। अगर किसी के सुनने की शक्ति कमजोर है तो
उसे लिप-रीडिंग यानी होठों को पढ़ने की विद्या सिखाई जा सकती है। इनकी आँखों का
इस्तेमाल करके इन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। वैसे ही अगर कोई देख नहीं सकता तो
उसके सुनने की शक्ति को इतना मजबूत बनाएं कि वह कानों से ही देखने लगे और नाक से
महसूस कर ले। कोई अंग खराब है तो ऐसा पहनावा दें की वह छिप जाए और इंसान पूरे
आत्मविश्वास के साथ सर उठाकर चल सके। ऐसी तमाम चीजें हैं जिनसे विकलांगता की
समस्या को अनदेखा किया जा सकता है और दवा और दुआ तो दो ऐसे विकल्प हैं जिन पर यह
दुनिया चलती है। इस समस्या को हम इस दुनिया से मिटा नहीं सकते पर हाँ इससे लड़कर
हम इसे दुनिया से गायब जरूर कर सकते हैं।
विकलांग
दिवस के मायने
तीन दिसम्बर को पूरी दुनिया में विश्व विकलांग दिवस मनाया जाता है। संयुक्त
राष्ट्र संघ ने तीन दिसम्बर, 1991 से प्रतिवर्ष विश्व विकलांग दिवस को मनाने की
स्वीकृति प्रदान की थी। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्राप्त आंकड़ों के अनुसार
दुनिया के 65 करोड़ लोग
विकलांग की श्रेणी में आते हैं। यह दुनिया की सम्पूर्ण जनसंख्या का आठ प्रतिशत है। विश्व विकलांग दिवस का उद्देश्य आधुनिक समाज में शारीरिक रूप से
अक्षम लोगों के साथ हो रहे भेदभाव को समाप्त किया जाना है। यह दिवस शारीरिक रूप से
अक्षम लोगों को देश की मुख्य धारा में लाने के लिए मनाया जाता है। इस भेदभाव में
समाज और व्यक्ति दोनों की भूमिका रेखांकित होती रही है। आज दुनिया में करोड़ों
व्यक्ति दिव्यांगता का शिकार हैं। दिव्यांगता अभिशाप नहीं है क्योंकि शारीरिक
अभावों को यदि प्रेरणा बना लिया जाये तो दिव्यांगता व्यक्तित्व विकास में सहायक हो
जाती है। यदि सकारात्मक रहा जाये तो अभाव भी विशेषता बन जाते हैं। दिव्यांगता से
ग्रस्त लोगों को मजाक बनाना, उन्हें कमजोर समझना और उनको दूसरों पर आश्रित समझना
एक भूल और सामाजिक रूप से एक गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है। आज हम इस बात को समझें
कि उनका जीवन भी हमारी तरह है और वे अपनी कमजोरियों के साथ उठ सकते है। किसी को
कुछ देना है तो सबसे उत्तम है कि आत्मविश्वास जगाने वाला उत्साह व प्रोत्साहन दें।
दुनिया में अनेकों ऐसे उदाहरण मिलेंगे जो बताते
हैं कि सही राह मिल जाये तो अभाव एक विशेषता बनकर सबको चमत्कृत कर देती है। भारत
विकासशील देशों की गिनती में आता है। विज्ञान के इस युग में हमने कई ऊंचाइयों को
छुआ है। लेकिन आज भी हमारे देश, हमारे समाज में कई लोग हैं जो हीनदृष्टि झेलने को
मजबूर हैं। वह लोग जो किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा का शिकार हो जाते हैं अथवा
जो जन्म से ही विकलांग होते हैं, समाज उन्हें हीनदृष्टि से देखता है जबकि यह लोग
सहायता एवं शाबासी के योग्य होते हैं। हर साल दिव्यांगों के लिए एक बेहतर जीवन और
समाज में समान अधिकार के लिए आवाज बुलंद की जाती है लेकिन सच्चाई यह है कि भारत
में निःशक्त आज भी अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित हैं।
भारत में विकलांगों से सम्बन्धित योजनाओं का
क्रियान्वयन सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन होता है। भारत का
संविधान अपने सभी नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता, न्याय व गरिमा सुनिश्चित
करता है और स्पष्ट रूप से यह विकलांग व्यक्तियों समेत एक संयुक्त समाज बनाने पर
जोर डालता है। हाल के वर्षों में विकलांगों के प्रति समाज का नजरिया तेजी से बदला
है। यह माना जाता है कि यदि विकलांग व्यक्तियों को समान अवसर तथा प्रभावी पुनर्वास
की सुविधा मिले तो वे बेहतर गुणवत्तापूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं। भारत सरकार
द्वारा किये गए प्रयासों में सरकारी सेवा में आरक्षण देना, योजनाओं में विकलांगों
की भागीदारी को प्रमुखता देना आदि शामिल हैं। भारत में बहुत सी ऐसी सरकारी योजनाएं हैं जो विकलांगों की मदद के लिए हैं
लेकिन आज भी सिर्फ चालीस फीसदी विकलांग भारतीयों को ही विकलांगता प्रमाण-पत्र मुहैया
कराये जा सके हैं, ऐसे में विकलांगों के लिए सरकारी सुविधाएं महज मजाक बनकर रह गई
हैं। भारत में आज भी विकलांगता प्रमाण-पत्र हासिल करना किसी चुनौती से कम नहीं है।
सरकारी कार्यालयों और अस्पतालों के कई दिनों के चक्कर लगाने के बाद भी लोगों को मायूस
होना पड़ता है। हालांकि सरकारी दावे कहते हैं कि इस प्रक्रिया को काफी सरल बनाया
गया है लेकिन हकीकत इससे काफी दूर नजर आती है। विकलांगता प्रमाण-पत्र जारी करने के
सरकार ने जो मापदण्ड बनाये हैं, अधिकांश सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक उनके अनुसार
विकलांगों को विकलांग होने का प्रमाण-पत्र जारी ही नहीं करते हैं, जिसके चलते
विकलांग व्यक्ति सरकारी सुविधायें पाने से महरूम हो जाते हैं।
सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो 2013-14 में महज 39.28 फीसदी लोगों को विकलांगता का प्रमाण-पत्र
प्राप्त हैं वहीं पश्चिम बंगाल में 41 फीसदी लोगों को यह प्रमाण-पत्र प्राप्त हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश मे 2.68 करोड़ विकलांग हैं जिनमें से महज 1.05 करोड़ लोगों को विकलांगता का सर्टिफिकेट हासिल है। पश्चिम
बंगाल में 20.17 लाख लोग विकलांग हैं जिनमें से 8.27 लाख लोगों को विकलांगता का प्रमाण-पत्र प्राप्त है जबकि
नागालैंड में महज 5.7 फीसदी, अरुणाचल प्रदेश में सात फीसदी, दिल्ली में 21 फीसदी विकलांगों के पास विकलांगता का प्रमाण-पत्र है जोकि सरकार की नीतियों
पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। त्रिपुरा इस मामले में सबसे बेहतर है। यहां 97.72 फीसदी विकलांगों को विकलांगता का प्रमाण-पत्र प्राप्त हैं।
तमिलनाडु में 84 फीसदी लोगों के
पास विकलांगता का प्रमाण-पत्र है। देश में विकलांगों के लिए सरकार ने कई नीतियां
बनायी हैं। उन्हें सरकारी नौकरियों, अस्पताल, रेल, बस सभी जगह आरक्षण प्राप्त है।
साथ ही विकलांगों के लिए सरकार ने पेंशन योजना भी शुरू की है लेकिन ये सभी सरकारी
योजनाएं विकलांगों के लिए मजाक बनकर रह गयी हैं। वजह इन सुविधाओं को हासिल करने के
लिए विकलांगता का प्रमाण-पत्र जरूरी होना है।
हाल ही में केन्द्र की मोदी सरकार ने देशभर के
विकलांग युवाओं को बड़ा तोहफा दिया है। सरकार ने शारीरिक तौर पर अक्षम लोगों को
सरकारी नौकरी में 10 साल तक की छूट
दी है। केन्द्र सरकार में सीधी भर्ती वाली सेवाओं के मामले में दृष्टि बाधित, बधिर
और चलने-फिरने में विकलांग या सेरेब्रल पल्सी के शिकार लोगों को उम्र में 10 साल की छूट दी है। कार्मिक एवं प्रशिक्षण
विभाग ने इस बाबत नए नियमों की घोषणा कर दी है। नए नियम के मुताबिक अनुसूचित जाति
और अनुसूचित जनजाति श्रेणी के लोगों को 15 साल की छूट मिलेगी जबकि अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को 13 साल की छूट हासिल होगी। सरकार की यह खास छूट
उन आवेदकों को मिलेगी जिनकी अधिकतम उम्र 56 साल से ज्यादा नहीं है। आपको बता दें कि इससे पहले सरकारी
नौकरियों के लिए एससी-एसटी को अधिकतम उम्र सीमा में पांच साल छूट थी जबकि ओबीसी को आठ साल तक की छूट का प्रावधान था। देश में मध्य
प्रदेश एकमात्र ऐसा राज्य है जहां विकलांगों को 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है।
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