Wednesday, 11 January 2017

शादी से ज्यादा निःशक्तों की सेवा जरूरीः कंचन सिंह चौहान

                     
निःशक्तों को स्वावलम्बी बनाने का जुनून
सफलता प्राप्त करने वाले इंसान बेसुध होकर दिन भर काम करते हैं लेकिन हर काम करने का उनका एक उद्देश्य होता है। वे हमेशा परिणाम देखना चाहते हैं और वे अपना काम भी परिणाम मिलने की चाह से ही करते हैं न की काम में व्यस्त रहने के लिए। मैं जानती हूं कि दिव्यांगों में मुश्किलों को स्वीकारने की क्षमता अधिक होती है, मुश्किलों का वे आसानी से सामना करते हैं और उनसे कुछ सीखकर ही आगे बढ़ते हैं। वे खुद ही अपने आपको प्रेरित करते हैं और खुद ही अवसरों का निर्माण करते हैं। मैंने भी कुछ लक्ष्य तय किए हैं। मैं चूंकि दिव्यांगता को जी रही हूं। मैंने मुफलिसी और उपेक्षा के हर दौर को करीब से देखा है लिहाजा चाहती हूं कि देश का हर दिव्यांग स्वावलम्बी बने, इसीलिए मैं अपनी सरकारी नौकरी के बाद का हर क्षण दिव्यांगों को बीच बिताना पसंद करती हूं। यह कहना है चार दशक से पोलियो का शिकार और निःशक्तों की मददगार कंचन सिंह का।
24 जुलाई, 1975 को महादेव सिंह-बिलासकुमारी के घर कानपुर में जन्मीं और अब नवाबों के शहर लखनऊ की तहजीब को आत्मसात कर रही कंचन सिंह चौहान बताती हैं कि मैं अपने पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी हूं। जब मैं एक साल की थी तभी एक दिन आए तेज बुखार ने मुझसे हमेशा-हमेशा के लिए चल-फिर सकने की शक्ति छीन ली। मेरे माता-पिता हर उस डाक्टर से मिले जहां से मुझे ठीक होने की उम्मीद थी। अफसोस सारे प्रयास व्यर्थ चले गए। मैं छह साल तक बिस्तर में पड़े-पड़े चलने की उम्मीद में जिन्दा रही लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पहले गर्दन फिर दाएं-बाएं पैर और उसके बाद मैं कमर से लाचार हो गई। ह्वीलचेयर ही मेरी जिन्दगी हो गई। मैंने अपने शरीर को चैतन्य रखने के लिए योगासन शुरू किए जिसका काफी लाभ मिला। परेशानियों के बीच उम्र बढ़ी और मां-बाप को मेरी शिक्षा-दीक्षा की फिक्र होने लगी। माता-पिता चाहते थे कि मेरा अच्छे स्कूल में दाखिला हो लेकिन सारे प्रयासों के बाद भी मुझे कानपुर के किसी अच्छे स्कूल में प्रवेश नहीं मिला। आखिरकार मेरी शिक्षक मां ने ही मुझे पढ़ाना-लिखाना शुरू किया और मैंने घर में रहते हुए ही कक्षा चार तक की शिक्षा पूरी कर ली, इसके बाद मैंने स्कूल जाना शुरू किया। शिक्षा से मेरा लगाव बढ़ता ही गया और मैंने डी.बी.एस. डिग्री कालेज में पढ़ते हुए पहले अंग्रेजी में मास्टर डिग्री हासिल की उसके बाद हिन्दी से भी एम.ए. किया। शिक्षा पूरी करने के बाद मुझे नौकरी भी मिल गई।
कंचन सिंह चौहान शासकीय सेवा में बतौर ट्रांसलेटर लखनऊ में कार्यरत हैं। वह कहती हैं कि शासकीय सेवा में आने के बाद मैंने दिव्यांगों की मदद का संकल्प लिय़ा। मुझे लगा कि मैं दिव्यांगों का जीवन स्तर सुधारने में मदद कर सकती हूं। आज कंचन नौकरी के बाद का शेष समय उन मायूसों को दे रही हैं जोकि निःशक्तता से आजिज हैं। कंचन समय-समय पर दो निःशक्त स्कूलों में पहुंच कर बच्चों का हौसला बढ़ाने के साथ ही उन्हें आत्मनिर्भर बनने के रास्ते भी सुझाती हैं। कंचन कहती हैं कि दिव्यांगों को भी अपनी जिन्दगी जीने का अधिकार है। मुझे अपने जैसे लोगों की सेवा से जोकि सुखानुभूति होती है, उसे शब्दों से बयां नहीं किया जा सकता। मैं जो भी कर रही हूं उसके पीछे कुछ पाने की लालसा नहीं बल्कि कुछ देने का संकल्प है। दिव्यांगों की मदद की खातिर आजीवन शादी न करने का निश्चय करने वाली कंचन सिंह चौहान कहती हैं कि मेरी इच्छा है कि मैं जब तक जियूं दिव्यांगों के लिएं जियूं।
कंचन कहती हैं कि दिव्यांग सेवा राष्‍ट्रोन्‍नति का केन्‍द्रबिन्‍दु है जिसके चारों ओर देश और समाज की प्रगति का चक्र रूपी पहिया चलता-फिरता रहता है। इनकी सेवा में क्षणिक सी कमी या शिथिलता आने पर प्रगति का चक्र डगमगाने लगता है और शनैः-शनैः राष्‍ट्र की प्रगति रुक जाती है। वैसे मानव सेवायें सदैव एक सी नहीं रहतीं क्‍योंकि समय तथा वातावरण परिवर्तनशील है, जिसके द्वारा मनुष्‍य के रंग, लिंग, स्‍वभाव, वेशभूषा, बोलचाल, रुचि, लगन तथा संस्‍कृति पर प्रभाव पड़ते हैं जिसके कारण मनुष्‍य की प्रवृत्ति में भी थोड़े-बहुत परिवर्तन होते रहते हैं। जिनसे प्रभावित होकर मनुष्‍य फिर नयी उमंग और उत्‍साह के साथ राष्‍ट्र की सेवा प्रारम्‍भ कर देता है। मानव द्वारा की गयी सत्‍यपूर्ण सेवा से ही राष्‍ट्रोन्‍नति में गति आती है। राष्‍ट्र में खुशहाली का वातावरण झलकने लगता है। मनुष्‍य असत्‍य, लोभ, घृणा, ईर्ष्‍या तथा आलस्‍य जैसे दुर्गुणों का त्‍याग करके ही सेवाभाव के पथ पर चल सकता है। सेवाभाव ही राष्‍ट्र की उन्‍नति में सहायक होने वाला एकमात्र ऐसा शब्‍द है, जिसके द्वारा देश और समाज का चहुंमुखी विकास सम्‍भव है।

कंचन कहती हैं कि राष्‍ट्रोन्‍नति के लिए आवश्‍यक है कि मनुष्‍य अपनी स्‍वार्थपरता को त्‍याग कर समस्‍त देश के लिए हमभाव की भावना अपने अन्‍दर समाहित करे। हमभाव से ही निःशक्तों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। सेवा में दिखावा नहीं बल्कि समर्पण होना चाहिए। मनुष्‍य की सच्‍ची स्‍वार्थरहित एवं निष्‍ठापूर्ण सेवाओं से ही बड़े.बड़े चमत्‍कार हुए और देश विकास के भौतिक तथा सांस्‍कृतिक पक्षों को बल मिला है। निःशक्तजन चूंकि अपने जैसे लोगों की भाषा को सहजता से स्वीकारता है लिहाजा हम जैसे लोग अपने दिली सेवाभाव से लाखों लाख लोगों के जीवन को खुशहाल बना सकते हैं। कंचन कहती हैं कि मेरी लेखन में भी काफी रुचि है बावजूद इसके मैं दिव्यांगों की बेहतरी के ही सपने देखती हूं।

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