Friday 6 January 2017

नेत्रहीनों का भाग्य विधाता




भावेश भाटिया का जवाब नहीं
किसी ने सच कहा है कि खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है। अगर इंसान सोच ले और पूरी लगन और इच्छाशक्ति से उस लक्ष्य के लिए समर्पित हो जाए तो वह हर चीज को पा सकता है। ऐसा कर दिखाया है नेत्रहीन भावेश चंदू भाई भाटिया ने जिन्होंने अपनी अक्षमता को ही अपनी शक्ति बनाकर 25 करोड़ की कम्पनी सनराइज कैंडल कम्पनी खड़ी कर दी। यह कम्पनी दिव्यांगों द्वारा चलाई जाने वाली दुनिया की शायद पहली कम्पनी है। इस कम्पनी का टर्नओवर 25 करोड़ रूपये है। इसके अलावा भावेश ने मलेश्वर गाँव में दृष्टिबाधितों के लिए एक कोचिंग सेण्टर खोला जोकि मोमबत्तियां बनाने का प्रशिक्षण देता है। भावेश को अब तक अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
भावेश कहते हैं कि आपको अपनी जिन्दगी में कभी असफलता नहीं मिली तो इसका मतलब है कि आपने कभी कोई नया काम नहीं किया। असफलता ही सफलता की चाबी है इसके बिना आप सफलता के द्वार नहीं खोल सकते। जीवन में कठिनाइयां तो आती ही हैं और कभी-कभी सम्हलने का पूरा समय भी नहीं मिलता, पर यही जीवन का कटु सत्य है कि ठोकर खाकर ही हम सम्हलना सीख सकते हैं। नेत्रहीन भावेश भाटिया ने हिम्मत नहीं हारी और किसी से मदद की आस किए बिना खुद अपने लक्ष्य तय किए तथा उन्हें हासिल कर यह जता दिया कि हिम्मत बंदे मदद खुदा। रेटिना मस्कुलर डिटेरिएशन नामक रोग से ग्रस्त भावेश भाटिया को पता था कि उनकी नजर समय के साथ कमजोर पड़ती जाएगी। लेकिन जब वह 23 वर्ष के थे तो उनकी आंखों की रोशनी पूरी तरह से चली गई। वह उस समय होटल मैनेजर के रूप में काम कर रहे थे और अपनी कैंसर से पीड़ित मां के इलाज के लिए पैसे बचाने का प्रयास कर रहे थे। अपनी मां को बचाने की उनकी अधीरता महज संतानोचित प्रेम नहीं बल्कि अस्तित्व की रीढ़ थी। भावेश जानते थे कि निःशक्तता वाले जीवन को आगे बढ़ाने के लिए मां का होना बहुत जरूरी है। जब वह अपने जीवन को लेकर परेशान थे तब उनकी मां ने कहा कि दुनिया नहीं भी देख पाओगे तो क्या हुआ, कुछ ऐसा करो कि दुनिया तुम्हें देखे। अपनी मां के ये शब्द भावेश के दिल में इस तरह उतर गए कि वह अंधे होते हुए भी दुनिया के लिए मिसाल बन गए।
भावेश बताते हैं कि स्कूल में मुझे बुरी तरह से तंग किया जाता था। एक दिन घर लौटने के बाद मैंने मां से कहा कि अब मैं स्कूल नहीं जाऊंगा। सब लड़के मुझे अंधा लड़का-अंधा लड़का चिल्लाकर फब्तियां कसते हैं। मुझ पर दबाव देने या मेरी मांग मान लेने के बजाय मेरी मां ने मेरा सिर सहलाते हुए कहा कि लड़के निर्दयी नहीं हैं। वे तुम्हारा मित्र बनना चाहते हैं लेकिन तुम उनसे इतने भिन्न हो इसलिए वे तुमसे अलग रहते हैं। उन्होंने मुझे बताया कि तंग करना तुम्हारा ध्यान आकर्षित करने का उनका तरीका है। मैं बहुत मुश्किल से उनकी बात पर विश्वास कर पाया। अगले दिन तंग करने की कोशिशों के बावजूद मैंने उनसे दोस्ती की पेशकश की और हम लोग जिन्दगी भर के लिए दोस्त बन गए। भावेश बताते हैं कि जीवन का यह शुरुआती सबक मेरे व्यवसाय का भी निर्देशक सिद्धांत है। मेरी गरीबी और निःशक्तता ने मेरे सामने अपार चुनौतियां प्रस्तुत कीं लेकिन उनके विवेक के कारण ही मैं सही निर्णय कर पाता हूं। वह कहते हैं कि एक दिन मैंने अपनी मां को खो दिया। मां को खोने के बीच आंखों की रोशनी का चला जाना उनके लिए संघातक आघात था। उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। उनके पिताजी उनकी मां के इलाज पर अपनी सारी बचत पहले ही फूंक चुके थे। बिना नौकरी और नौकरी की सम्भावना के बिना वे उनकी देखरेख नहीं कर सकते थे। भावेश के पिताजी गेस्ट हाउस में केयर टेकर थे।
भावेश कहते हैं कि मां बिना मैं अकिंचन हो गया था। उन्होंने खुद को काफी शिक्षित ही नहीं किया था, मेरे अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए अथक परिश्रम भी किया था। मैं ब्लैकबोर्ड नहीं पढ़ पाता था। वह मेरे पाठों को याद कराने के लिए घंटों जूझा करतीं। उनका यह व्यवहार मेरे पोस्ट ग्रेजुएशन करने तक जारी रहा। भावेश उनके लिए खुद को कुछ सार्थक बनाना चाहते थे। कामयाबी की राह पकड़ते ही मां का चला जाना उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा अन्याय महसूस हुआ। भावेश कहते हैं कि मां, नजर और नौकरी चले जाने के दुःख से वह टूट गए थे लेकिन जिस चीज ने उन्हें सांत्वना दी, वह था मां द्वारा मिली सर्वोत्तम सलाह। इसीलिए मैं आत्मदया में डूबने-उतराने के बजाय उस मोहक कुछ की तलाश में लग गया जो उन्हें दुनिया की नजरों में देखने के काबिल बनाए। भावेश बताते हैं कि बचपन से ही मेरी रुचि अपने हाथों से चीजें बनाने में थी। मैं पतंगें बनाया करता था। मिट्टी के साथ प्रयोग किया करता था। खिलौने और छोटी मूर्तियां आदि गढ़ा करता था। मैंने मोमबत्ती निर्माण में हाथ आजमाने का फैसला किया क्योंकि उसमें मेरे लिए आकार और गंध की संवेदना का उपयोग करने की गुंजाइश थी। लेकिन मुख्यतः इसलिए भी कि मैं प्रकाश के प्रति आकर्षित हूं और हमेशा से रहा हूं। वह कहते हैं कि ज्वलंत जुनून के सिवा कोई संसाधन नहीं होने के कारण मैं समझ नहीं पा रहा था कि शुरुआत कैसे की जाए। भावेश बताते हैं कि मैंने 1999 में मुंबई के नेशनल एसोसिएशन ऑफ ब्लाइंड संस्थान से प्रशिक्षण लिया। वहां उन लोगों ने सिखाया कि सादा मोमबत्ती कैसे बनाई जाती है।
वह मायूस होते हुए कहते हैं कि मैं रंगों, सुगंधों और आकारों से खेलना चाहता था लेकिन रंग और सुंगध मेरे बजट से बाहर थे। अर्थाभाव के चलते मैं रात भर जागकर मोमबत्तियां बनाता और दिन में उन्हें महाबालेश्वर के स्थानीय बाजार के एक कोने में ठेले पर बेचता था। ठेला भी मेरा नहीं बल्कि मेरे एक मित्र का था जो उसने मुझे पचास रुपए रोज पर उपयोग करने के लिए दिया था। हर दिन मैं अगले दिन के लिए सामान की खरीद के वास्ते पचीस रुपए अलग रख दिया करता था। यह मेरे जीवित रहने का एकमात्र और कमरतोड़ जरिया था। लेकिन मुझे आत्मसंतोष इस बात का था कि मैं कम से कम वह तो कर पा रहा था जो करना चाहता था। भावेश सहानुभूति की किसी अभिव्यक्ति को दृढ़तापूर्वक नकारते हुए कहते हैं कि मैं अपने कर्म-पथ पर चल रहा था और अप्रत्याशित रूप से चीजें बदलने लगीं। इसकी शुरुआत तब हुई जब एक महिला उसके ठेले के सामने मोमबत्तियां खरीदने के लिए रुकी। वह उसके सौम्य व्यवहार और जीवंत हंसी से प्रभावित हुई। हम दोनों मित्र बन गए और घंटों बातें करते रहे। इसे पहली नजर का प्रेम कहा जा सकता है। लेकिन यह दो आत्माओं के बीच सम्पर्क से बढ़कर भी बहुत कुछ था।
भावेश बताते हैं कि उनका नाम नीता था। मैंने उनसे विवाह करने का इरादा कर लिया था। वह भी उनसे मिलकर लौटते समय हर रोज उनसे बात करने और साथ जिन्दगी बिताने के लिए सोचा करती थीं। नीता को गरीब और अंधे मोमबत्ती बनाने वाले से शादी के फैसले के कारण घर वालों के विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने पक्का इरादा कर लिया था और जल्द ही महाबलेश्वर के खूबसूरत हिल स्टेशन में छोटे से मकान में उनके साथ जिन्दगी जीने की राह पर बढ़ गईं। नीता जबर्दस्त आशावादी थीं। भावेश नया बर्तन नहीं खरीद सकते थे इसलिए उन्हीं बर्तनों में वह मोम पिघलाते थे और नीता खाना पकाती थीं। उन्हें चिंता होती थी कि इससे शायद पत्नी के दिल को चोट पहुंचती होगी लेकिन वह उनकी चिन्ता पर हंसती थीं। उन्होंने एक दोपहिया वाहन खरीदा जिससे वह अपने पति को मोमबत्तियां बेचने के लिए शहर ले जा सकें। बाद में परिस्थितियों में सुधार हुआ तो उन्होंने वैन चलाना भी सीखा ताकि बड़ी मात्रा में मोमबत्तियों को ले जाया जा सके। भावेश कहते हैं कि आज नीता ही मेरी जिन्दगी की रोशनी है।
कहने की बात नहीं है कि नीता के जिन्दगी में आने के बाद उनके लिए संघर्ष आसान हो गया था। बोझ उठाने के लिए एक संगिनी थी इसलिए बोझ अब उतना भारी नहीं लगता था। आंख वाले लोग स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि कोई अंधा आदमी अपने पांव पर खड़ा हो सकता है। एक बार कुछ उपद्रवी लोगों ने भावेश की सारी मोमबत्तियां ठेले से उठाकर नाली में फेंक दीं। वह जहां भी मदद को गए उन्हें अंधा कहकर भगा दिया गया। भावेश बताते हैं कि मैंने प्रोफेशनल मोमबत्ती निर्माताओं और अन्य संस्थाओं से मार्गदर्शन पाने की कोशिश की लेकिन किसी ने मदद नहीं की। वह कहते हैं कि अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए मैं जहां भी ऋण सम्बन्धी आवेदन देता उन्हें सिरे से नकार दिया जाता था। अमौद्रिक अनुरोधों पर भी आक्रामक प्रतिक्रिया मिलती थी। वह मोमबत्ती निर्माण पर विशेषज्ञों की सलाह लेना चाहते थे लेकिन उन्हें हर जगह डांट-फटकार और अपमान मिलता था।
भावेश कहते हैं इन विषम परिस्थितियों में मैं अपनी पत्नी के साथ मॉल में जाता और वहां रखी विभिन्न प्रकार की कीमती मोमबत्तियों को छूता और महसूस करता। वह जो भी महसूस करते थे उसको अपनी प्रतिभा और सृजनात्मकता से संवारकर वह अधिक प्रकार की मोमबत्तियां बनाने लगे। टर्निंग पाइंट तब आया जब उन्हें सतारा बैंक से पंद्रह हजार रुपए का ऋण स्वीकृत हुआ जहां अंधे लोगों के लिए एक विशेष योजना चल रही थी। उससे हम लोगों ने पंद्रह किलो मोम, दो डाई और पचास रुपए में एक ठेला लिया। धीरे-धीरे समय का चक्र बदला और कई करोड़ रुपये का कारोबार खड़ा कर लिया। आज मेरी कम्पनी के देश-दुनिया में प्रतिष्ठित कॉर्पोरेट ग्राहक हैं और दो सौ कर्मचारियों की समर्पित टीम भी जिसमें सारे के सारे दृष्टिबाधित हैं। भावेश बताते हैं कि अब जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो महसूस करता हूं कि मेरे ऋण मांगने पर इतने सारे लोगों ने मुझे इस कारण दुत्कार दिया कि दुनिया में निर्मम तरीके से कारोबार चलता है। हर कोई अपने दिमाग से सोचता है, दिल से नहीं। मैंने महसूस किया सफल व्यापार चलाने का एकमात्र तरीका दिल से सोचना है। इसमें समय लगेगा, काफी समय। लेकिन अगर आप अपने दिल के कहे के अनुसार कर रहे हैं तो आपने जो लक्ष्य तय किया है, उसे हासिल करके रहेंगे।
एक समय ऐसा भी था जब भावेश अगले दिन की मोमबत्तियों के लिए मोम खरीदने के लिए पच्चीस रुपए अलग रख दिया करते थे। अब वह सनराइज कैंडल्स 9000 डिजाइन वाली सादा, सुगंधित और सुगंध चिकित्सा की मोमबत्तियां बनाने के लिए पच्चीस टन मोम का उपयोग रोज करते हैं। वे अपना मोम अमेरिका से खरीदते हैं। उनके ग्राहकों में रिलायंस इंडस्ट्रीज, रनबैक्सी, बिग बाजार, नरोदा इंडस्ट्रीज और रोटरी क्लब आदि कुछ प्रमुख नाम हैं। सनराइज कैंडल्स चलाने के लिए दृष्टिबाधित लोगों को काम में लगाने के बारे में भावेश कहते हैं। हम अंधे लोगों को सिखाते हैं जिससे कि वे हमारी इकाई को महज सहायता न करके काम समझ सकें जिससे किसी दिन लौटकर अपना कारोबार भी खड़ा कर सकें। जहां वह कम्पनी के सृजनात्मक पक्षों पर ध्यान केंद्रित करना पसंद करते हैं वहीं नीता उद्यम की प्रशासनिक जिम्मेदारियों की देखरेख करती हैं। वह स्वावलम्बी बनने के लिए अंधी लड़कियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण भी देती हैं।

कोई भी सोचेगा कि खाक से कई करोड़ का कारोबार खड़ा करने में वाले भावेश को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा उसे देखते हुए उनका पूरा समय लग जाता होगा लेकिन वह एक नैसर्गिक खिलाड़ी हैं और अपनी क्षमताओं को पेशेवराना ढंग से तराशने के लिए वह पर्याप्त समय देते हैं। भावेश कहते हैं कि मैं बचपन से ही खेलकूद में सक्रिय रहता था। बद्धमूल धारणाओं के विपरीत अंधेपन का मतलब शरीर से कमजोर होना नहीं है। मुझे अपने खिलाड़ीपन पर गर्व है। सनराइज कैंडल्स खड़ा करने के दौरान लम्बे समय तक वह खेलकूद से दूर रहे लेकिन अब जब कारोबार अपने पूरे उत्कर्ष पर है, वह अपने दैनिक प्रशिक्षण के मामले में कठोर हैं। भावेश कहते हैं कि मोमबत्ती का कारोबार जमा लेने के बाद मैंने फिर से स्पोर्ट्स (शॉर्टपुट, डिस्कस और जेवलिन थ्रो) की प्रैक्टिस शुरू कर दी। पैरालम्पिक स्पोर्ट्स में मिले कुल 109 मेडल मेरे पास हैं। अपने रियाज के दौरान मैं रोज 500 दण्ड करता हूं। आठ किलोमीटर दौड़ता हूं और अपने कारखाने में स्थापित जिम का उपयोग करता हूं। दौड़ने के रियाज के लिए मेरी पत्नी 15 फीट लम्बी नाइलोन की रस्सी का एक सिरा अपने वैन से बांध देती हैं और दूसरा सिरा मुझे पकड़ा देती हैं। फिर वह मेरी गति से वैन चलाती हैं और मैं साथ-साथ दौड़ता हूं। अगर किसी दिन मैं उनसे तेज आवाज में बात करता हूं तो दूसरे दिन वह वैन की गति बढ़ा देती हैं। भावेश कहते हैं कि दुनिया में 21 मीटर की सबसे ऊंची मोमबत्ती बनाने का रिकॉर्ड जर्मनी के नाम है। मेरी योजना उससे ऊंची मोमबत्ती बनाने की है। मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर और 25 अन्य नामचीन व्यक्तियों की मोम की आदमकद मूर्तियां बनाना चाहता हूं। भावेश कहते हैं कि उन्होंने जो लक्ष्य तय किए हैं उनको हासिल कर लेने पर उन्हें अत्यंत संतुष्टि मिलेगी। मेरे कई सपने और अनेक लक्ष्य हैं। मैं माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाला दुनिया का पहला अंधा आदमी बनना चाहता हूं। मैं सुनिश्चित करना चाहता हूं कि हर अंधा भारतीय अपने पांवों पर खड़ा हो।

No comments:

Post a Comment