खिलाड़ियों के सामने लक्ष्य भेदने की चुनौती
एक तरफ रियो ओलम्पिक खेलों की उल्टी गिनती शुरू
हो चुकी है तो दूसरी तरफ दावे-प्रतिदावे भी परवान चढ़ने लगे हैं। आधुनिक ओलम्पिक
खेलों के आयोजन का यह 31वां पड़ाव है जिसमें दुनिया भर के लगभग 17 हजार खिलाड़ी और
अधिकारी शिरकत करेंगे। पहली बार ओलम्पिक खेलों का आगाज सन् 1896 में हुआ था। उसके
चार वर्ष बाद सन् 1900 में पेरिस में हुए दूसरे ओलम्पिक खेलों से भारत ने इन खेलों
में हिस्सा लेना शुरू किया। 116 साल के अपने ओलम्पिक खेलों के सफर में दुनिया की
दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले भारत ने सिर्फ 24 पदक ही जीते हैं, जिनमें अकेले पुरुष हाकी के नाम रिकार्ड आठ
स्वर्ण सहित 11 पदक शामिल हैं। लोग ब्रिटेन के नार्मन पिचार्ड को भारत की तरफ से
पहला पदक जीतने का श्रेय देते हैं। पिचार्ड ने 1900 के पेरिस ओलम्पिक खेलों में दो
पदक जीते थे, उन्हें भी भारत
के पदक मान लें तो पदकों की संख्या 26 हो जाती है। 1900 के बाद अगले 20 वर्षों तक
भारत ने किसी भी ओलम्पिक आयोजन में हिस्सा नहीं लिया। 1920 में चार एथलीटों और दो
पहलवानों की टीम ने एंटवर्प खेलों में भाग लिया जिसका सारा खर्चा मुम्बई के
उद्योगपति सर दोराबजी टाटा ने वहन किया था। अब स्थितियां बदल गई हैं। भारत सरकार
प्रतिवर्ष खिलाड़ियों के नाम पर अरबों रुपये निसार करती है, उसका फायदा खिलाड़ियों को मिलता भी है या नहीं
इसकी कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। जो भी हो रियो ओलम्पिक भारत की नाक का सवाल
हैं। इस बार 12 पदकों का भारतीय लक्ष्य हमारे खिलाड़ियों के पौरुष का कड़ा इम्तिहान
साबित होगा। हालांकि इस बार हमारे कई सूरमा खिलाड़ी भारतीय खेलों के कीर्तिमान भंग
कर ओलम्पिक खेलने जा रहे हैं लेकिन ब्राजील में भी ऐसा ही हो तो बात बने।
ब्राजील के रियो-डी-जेनेरियो में पांच से 21 अगस्त तक होने
वाले खेलों के महासंग्राम में सबसे तेज दौड़ने, सबसे ऊंची और लम्बी छलांग लगाने वाले, सबसे तेज तैराक तथा सबसे अच्छा खेलने वाले
खिलाड़ी दुनिया भर के साढ़े 10 हजार खिलाड़ी देश, नस्ल और रंगभेद की सभी दीवारें तोड़कर एक-दूसरे
से बाजी मारने की होड़ करेंगे। उल्लास और रोमांच से सनसनाती, सिहरती दुनिया इनका न केवल मुकाबला देखेगी
बल्कि अपने आपको तालियां पीटने से भी नहीं रोक सकेगी। 120 साल पहले शुरू हुए
आधुनिक ओलम्पिक खेलों के जनक पियरे दि कुबर्तिन का यही सपना था कि दुनिया भर के
अलग-अलग देशों के खिलाड़ी एक मंच पर इकट्ठे हों, आपसी मनभेद, तनाव और दूरियों को कुछ दिनों के लिए ही सही
भूल जाएं और मानवीय सामर्थ्य तथा गरिमा की नई मिसाल कायम करें। 1896 में एथेंस में
नौ राष्ट्रों के खिलाड़ियों के साथ शुरू हुआ यह फलसफा आज दुनिया में खेलों का सबसे
बड़ा महाकुम्भ बन चुका है। हालांकि हर चार साल बाद होने वाले इस आयोजन ने भी काफी
उतार-चढ़ाव देखे हैं। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों के कारण क्रमश: 1912, 1916 और 1940
व 1944 में ओलम्पिक खेलों के आयोजन ही नहीं हो सके। 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक में
आतंकवादियों ने ग्यारह इस्रायली खिलाड़ियों की हत्या कर इन खेलों में खलल पैदा की तो
1980 के मास्को ओलम्पिक का अमरीका ने बहिष्कार कर खेलभावना को ठेस पहुंचाई। 1984
के लांस एंजिल्स मुकाबलों में साम्यवादी खेमे ने बाहर रहकर विश्व बंधुत्व की भावना
को चोट पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन आघातों के बावजूद ओलम्पिक खेलों की
मूलभावना बची रही। यही है वह खेलभावना जिसके कारण हर देश अपने यहां अगला ओलम्पिक
आयोजित करने का दावा प्रस्तुत करने को आतुर रहता है।
प्राचीनकाल में शांति के समय योद्धाओं के बीच प्रतिस्पर्धा
के साथ खेलों का विकास हुआ। दौड़, मुक्केबाजी, कुश्ती और रथों
की दौड़ सैनिक प्रशिक्षण का हिस्सा हुआ करते थे। इनमें से सबसे बेहतर प्रदर्शन करने
वाले योद्धा प्रतिस्पर्धी खेलों में अपना दमखम दिखाते थे। प्राचीन ओलम्पिक खेलों
का आयोजन 1200 साल पहले योद्धा-खिलाड़ियों के बीच हुआ था। ओलम्पिक का पहला आधिकारिक
आयोजन 776 ईसा पूर्व में जबकि आखिरी आयोजन 394 ईस्वी में हुआ। इसके बाद रोम के
सम्राट थियोडोसिस द्वारा इसे मूर्तिपूजा वाला उत्सव करार देकर इस पर प्रतिबंध लगा
दिया गया। इसके बाद लगभग डेढ़ सौ साल तक इन खेलों को भुला ही दिया गया। हालांकि
मध्यकाल में अभिजात्य वर्गों के बीच अलग-अलग तरह की प्रतिस्पर्धाएं होती रहीं
लेकिन इन्हें खेल आयोजन का दर्जा नहीं मिल सका। कुल मिलाकर रोम और ग्रीस जैसी
प्रभुत्वादी सभ्यताओं के अभाव में इस काल में लोगों के पास खेलों के लिए समय ही
नहीं था। 19वीं शताब्दी में यूरोप में सर्वमान्य सभ्यता के विकास के साथ ही
पुरातनकाल की इस परम्परा को फिर से जिंदा होने का मौका मिला। इसका श्रेय फ्रांस के
अभिजात पुरुष बैरो पियरे दि कुबर्तिन को जाता है। कुबर्तिन ने दो लक्ष्य रखे,
एक तो खेलों को अपने देश
में लोकप्रिय बनाना और दूसरा, सभी देशों को एक शांतिपूर्ण प्रतिस्पर्धा के लिए एक मुल्क में एकत्रित करना।
कुबर्तिन मानते थे कि खेल युद्धों को टालने का सबसे अच्छा माध्यम हो सकते हैं।
कुबर्तिन की इसी परिकल्पना को साकार करने की खातिर वर्ष 1896६
में पहली बार आधुनिक ओलम्पिक खेलों का आयोजन ग्रीस की राजधानी एथेंस में हुआ।
शुरुआती दशक में तो ओलम्पिक आंदोलन अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करता रहा
और वर्ष 1900 तथा 1904 में पेरिस तथा सेंट लुई में हुए ओलम्पिक खेलों को जो
लोकप्रियता मिलनी चाहिए वह नहीं मिली। देखा जाए तो लंदन में अपने चौथे संस्करण के
साथ ओलम्पिक आंदोलन शक्ति सम्पन्न हुआ, इसमें 2000 एथलीटों ने शिरकत कर इसकी कामयाबी को चार चांद
लगा दिए। वर्ष 1930 के बर्लिन संस्करण के साथ तो मानो ओलम्पिक आंदोलन में नई जान
डल गई तथा सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर जारी प्रतिस्पर्धा के कारण नाजियों ने इसे
अपनी श्रेष्ठता साबित करने का माध्यम ही बना दिया। 1950 के दशक में सोवियत-अमेरिका
प्रतिस्पर्धा खेलों के मैदान में आने के साथ ही ओलम्पिक की ख्याति चरम पर पहुंच
गई। इसके बाद तो खेल कभी भी राजनीति से अलग हुए ही नहीं। खेल केवल राजनीति का विषय
ही नहीं रहे, ये राजनीति का
अहम हिस्सा भी बन गए। चूंकि सोवियत संघ और अमेरिका जैसी महाशक्तियां कभी खुलेतौर
पर एक-दूसरे के साथ युद्ध के मैदान में कभी नहीं भिड़ीं सो उन्होंने ओलम्पिक को
अपनी श्रेष्ठता साबित करने का माध्यम बना लिया।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी ने एक बार कहा
था कि अंतरिक्षयान और ओलम्पिक स्वर्ण पदक ही किसी देश की प्रतिष्ठा का प्रतीक होते
हैं। शीतयुद्ध के काल में अंतरिक्षयान और स्वर्ण पदक महाशक्तियों का सबसे बड़ा
उद्देश्य बनकर उभरे। बड़े खेल आयोजन इस शांति युद्ध का अंग बन गए और खेल के मैदान
युद्धस्थलों में परिवर्तित हो गए। सोवियत संघ ने वर्ष 1968 के मैक्सिको ओलम्पिक
में पदकों की होड़ में अमेरिका के हाथों मिली हार का बदला 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक
में चुकाया। सोवियत संघ की 50वीं वर्षगांठ पर वहां के लोग किसी भी कीमत पर अमेरिका
से हारना नहीं चाहते थे। इसी का नतीजा था कि सोवियत एथलीटों ने 50 स्वर्ण पदकों के
साथ कुल 99 पदक जीते। यह संख्या अमेरिका द्वारा जीते गए पदकों से एक तिहाई अधिक
थी। वर्ष 1980 में अमेरिका और उसके पश्चिम के मित्र राष्ट्रों ने मॉस्को ओलम्पिक
में शिरकत करने से इनकार कर दिया तो हिसाब चुकाने के लिए सोवियत संघ ने 1984 के
लॉस एंजिल्स ओलम्पिक का बहिष्कार कर दिया। साल 1988 के सियोल ओलम्पिक में सोवियत
संघ ने एक बार फिर अपनी श्रेष्ठता साबित की और उसने पदकों का सैकड़ा जमाकर (132 पदक
जीते) अमेरिका को बगलें झांकने को विवश कर दिया। रूस को जहां 55 स्वर्ण पदक मिले
वहीं अमेरिका 34 स्वर्ण सहित 94 पदक ही जीत सका। अमेरिका पूर्वी जर्मनी के बाद
तीसरे स्थान पर रहा। वर्ष 1992 के बार्सिलोना ओलम्पिक में भी सोवियत संघ ने अपना
वर्चस्व कायम रखा। हालांकि उस वक्त तक सोवियत संघ का विघटन हो चुका था। उस ओलम्पिक
में रूस की संयुक्त टीम ने हिस्सा लिया था और 112 पदक जीते, इसमें 45 स्वर्ण थे। अमेरिका को 37 स्वर्ण के
साथ 108 पदक मिले थे। साल 1996 के अटलांटा और 2000 के सिडनी ओलम्पिक में रूस गैर
अधिकारिक अंक तालिका में दूसरे स्थान पर रहा तो 2004 के एथेंस ओलम्पिक में उसे
तीसरा स्थान मिला। बीजिंग ओलम्पिक 2008 को अब तक का सबसे अच्छा आयोजन करार दिया जा
सकता है। पंद्रह दिन तक चले ओलम्पिक खेलों के दौरान चीन ने न सिर्फ़ अपनी शानदार
मेजबानी से दुनिया का दिल जीता बल्कि सबसे ज्यादा स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास भी रच
दिया। पहली बार पदक तालिका में चीन सबसे ऊपर रहा जबकि अमरीका को दूसरे स्थान से ही
संतोष करना पड़ा। रूस पर डोपिंग डंक लगने के बाद रियो ओलम्पिक में एक बार फिर चीन
और अमेरिकी खिलाड़ियों के बीच श्रेष्ठता की जंग हो सकती है।
इन खेलों में हमारे मुल्क की जहां तक बात है भारत में
ओलम्पिक संघ का गठन 1917 में परवान चढ़ सका, जिसके पहले अध्यक्ष सर दोराबजी टाटा थे। लेकिन
उसी साल पटियाला के तत्कालीन महाराजा अध्यक्ष बने। 1928 में भारत ने एम्सटर्डम में
आयोजित खेलों में भाग लिया और भारत की हाकी टीम ने यहां स्वर्ण पदक जीता। भारत ने
हाकी में इतना अच्छा प्रदर्शन किया कि उसे हाकी का बादशाह नाम दिया गया। टीम के कप्तान थे जसपाल सिंह जो बाद में संसद सदस्य भी रहे। 1928
के ओलम्पिक खेलों में भारत ने कई खेलों में अपने खिलाड़ी भेजे जिनमें लम्बीकूद में
दिलीप सिंह ने 12 फुट दो इंच की छलांग लगाकर प्रथम स्थान हासिल किया। भारत की ओर
से भेजे गये खिलाड़ियों में एथलेटिक्स, मुक्केबाजी, साइकिलिंग, फुटबाल, हाकी, कुश्ती आदि के खिलाड़ी शामिल थे। 1932 और 1936 के ओलम्पिक
में भारत ने फिर से हाकी का स्वर्ण तमगा जीत दिखाया। इस बीच द्वितीय विश्व
महायुद्ध शुरू हुआ। इस कारण 1940 और फिर 1944 के ओलम्पिक खेलों का आयोजन ही नहीं
हो सका। 12 वर्ष के अंतराल के बाद लन्दन में 1948 में पुन: ओलम्पिक खेलों का आयोजन
हुआ। इन खेलों में एक बार फिर भारतीय टीम के खिलाड़ियों ने स्वर्ण पदक से अपने गले
सजाकर यह साबित किया हाकी में वह दुनिया के बेताज बादशाह हैं। 1952 के हेलसिंकी और
फिर 1964 मेलबोर्न ओलम्पिक खेलों में भी भारतीय हाकी टीम स्वर्ण पदक विजेता बनी। 1952
के हेलसिंकी में आयोजित 15वें ओलम्पिक खेलों में भारत ने हाकी के अलावा जिमनास्टिक,
फुटबाल, मुक्केबाजी, भारोत्तोलन और तैराकी में भी भाग लिया। इसमें
कुश्ती में भारत को के.डी. जाधव ने कांस्य पदक दिलाया। यह किसी भारतीय खिलाड़ी का
ओलम्पिक खेलों में पहला व्यक्तिगत पदक था। 1956 में आयोजित 16वें ओलम्पिक में भी
भारत ने अनेक प्रतियोगिताओं में भाग लिया। कुश्ती के अलावा हाकी में स्वर्ण पदक
जीतने के साथ-साथ फुटबाल में भी भारत ने अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन फुटबाल की निर्णायक प्रतियोगिता में वह
युगोस्लाविया से हार गया। अन्य खेलों में उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली। 17वें
ओलम्पिक खेल 1960 में रोम में हुए। इसमें भारत हाकी प्रतियोगिता में पहली बार हारा
तो दूसरी ओर 25 वर्षीय भारतीय धावक मिल्खा सिंह ने 400 मीटर दौड़ में विश्व
कीर्तिमान स्थापित किया। मिल्खा बेशक पदक नहीं जीत सके लेकिन उन्हें उड़न सिख की
उपाधि जरूर मिल गई। 1964 के टोकियो ओलम्पिक खेलों में भारत ने हाकी में फिर विजय
नाद कर स्वर्ण पदक जीता। इसी ओलम्पिक में गुरुबचन सिंह रंधावा ने 100 मीटर की दौड़
में पांचवां स्थान प्राप्त किया। मैक्सिको में 1968 में आयोजित 19वें ओलम्पिक
खेलों में भारत हाकी में भी हार गया। उसके बाद हाकी में जो पराजय का सिलसिला
प्रारम्भ हुआ वह चलता ही रहा। 1972 एवं 1976 के क्रमश: 20वें और 21वें ओलम्पिक
खेलों में भी भारत को हाकी में हार का ही मुंह देखना पड़ा। 1976 के मांट्रियल
ओलम्पिक में भारतीय दल बैरंग लौटा तो 1980 मास्को ओलम्पिक खेलों के 22वें पड़ाव में
भारत को 16 साल बाद हाकी का स्वर्ण पदक नसीब हुआ। 1984 के लास एंजिल्स ओलम्पिक
खेलों में भारत ने स्वर्ण पदक जीतने की बहुत कोशिश की लेकिन उसे निराश होना पड़ा।
हां, उड़नपरी पी.टी. ऊषा ने
कमाल का प्रदर्शन कर सबका ध्यान अपनी ओर जरूर खींचा। यहां भारत पहली बार 400 मीटर
महिला रिले दौड़ के फाइनल में पहुंचा परन्तु सेकेण्ड के सौवें हिस्से से हमारी
चौकड़ी पदक से चूक गई। मास्को में कई देशों के भाग नहीं लेने के कारण हाकी टीम ने
स्वर्ण पदक तो जीता लेकिन इसके बाद अगले तीन ओलम्पिक खेलों 1984 लास एंजिल्स,
1988 सियोल और 1992
बार्सिलोना में भारत को एक भी पदक हासिल नहीं हुआ।
वर्ष 1996 के अटलांटा ओलम्पिक में भारतीय टेनिस खिलाड़ी
लिएंडर पेस ने टेनिस स्पर्धा में कांस्य पदक जीतकर तीन ओलम्पिक खेलों में पदक के
अकाल को जहां खत्म किया वहीं वर्ष 2000 के सिडनी ओलम्पिक में भारत की कर्णम
मल्लेश्वरी भारोत्तोलन के 69 किलोग्राम वर्ग में कांस्य पदक जीतने वाली पहली महिला
ओलम्पिक पदकधारी बनीं। इसके बाद शूटर राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने वर्ष 2004 एथेंस
ओलम्पिक की डबल ट्रैप स्पर्धा में रजत पदक जीतकर भारतीय झोली को खाली रहने से बचा
लिया। 2008 बीजिंग ओलम्पिक खेल जहां मेजबान चीन के लिए रिकार्डतोड़ साबित हुए वहीं
भारत ने भी ओलम्पिक इतिहास में व्यक्तिगत स्पर्धा में पहली बार कोई स्वर्ण पदक
जीता और उसे पहली बार एक साथ तीन पदक भी मिले। भारत के शूटर अभिनव बिन्द्रा ने
जहां स्वर्ण पदक से अपना गला सजाया वहीं पहलवान सुशील कुमार और मुक्केबाज विजेन्दर
सिंह ने भारत की झोली में दो कांस्य पदक डाले। भारत ने 27 जुलाई से 12 अगस्त,
2012 तक हुए 30वें लंदन
ओलम्पिक खेलों की 13 स्पर्धाओं में भाग लेते हुए सर्वाधिक छह पदक अपनी झोली में
डाले। इन पदकों में दो रजत एवं चार कांस्य पदक शामिल थे। लंदन ओलम्पिक में सुशील
कुमार ने पुरुष फ्रीस्टाइल कुश्ती के 66 किलोग्राम वर्ग का रजत, योगेश्वर दत्त ने पुरुष फ्रीस्टाइल कुश्ती के 60 किलोग्राम वर्ग का कांस्य,
गगन नारंग ने 10 मीटर एयर
रायफल शूटिंग स्पर्धा में कांस्य, शूटर विजय कुमार ने पुरूषों की 25 मीटर रैपिड फायर पिस्टल स्पर्धा का रजत, तो शटलर साइना नेहवाल ने महिला बैडमिंटन एकल स्पर्धा का
कांस्य और मुक्केबाज एमसी मैरीकॉम ने 51 किग्रालोग्राम वर्ग का कांस्य पदक जीत
दिखाया। रियो ओलम्पिक में हमारे खिलाड़ी क्या एथलेटिक्स में पदक जीत पाएंगे यह
सबसे बड़ा सवाल है।
अंकित ने बचाई एमपी की लाज
बजरंग बली की कृपा से कजाकिस्तान के अलमाटी में चम्बल की
माटी का जिसने भी कमाल देखा होगा उसने दांतों तले उंगली जरूर दबाई होगी। जी हां
अंकित शर्मा ने उस दिन एक बार नहीं दो बार (8.17 और 8.19 मीटर) मुल्क के लम्बी कूद
के रिकार्ड को भंग कर खेलप्रेमियों से किया अपना वादा पूरा कर दिखाया। अब लम्बी
कूद के सारे रिकार्ड पीटरसन के नाम हो गये हैं। अंकित का पहला प्यार क्रिकेट था
लेकिन लांगजम्पर पिता हरिनाथ शर्मा और जेवलिन थ्रोवर भाई प्रवेश शर्मा की इच्छा थी
कि अंकित एथलेटिक्स में ही हाथ आजमाये। हरिनाथ शर्मा और भाई प्रवेश शर्मा भी अपने
समय के लाजवाज एथलीट रहे हैं। अपने साथियों में पीटरसन नाम से मशहूर अंकित सिर्फ
लाजवाब खिलाड़ी ही नहीं ईश्वर भक्त भी हैं। वह रियाज करने से पहले अलसुबह
सुन्दरकाण्ड का पाठ और तुलसी की माला जपना नहीं भुलते। यह दोनों चीजें अंकित
शर्मा के पास 24 घण्टे रहती हैं। कहते हैं
कि सफलता के कई बाप होते हैं। अंकित के रिकार्डतोड़ प्रदर्शन के बाद आज उसके कई प्रशिक्षक
हो गये हैं तो हर राज्य इसे अपना खिलाड़ी करार दे रहा है। दरअसल मध्यप्रदेश
एथलेटिक्स फेडरेशन में चल रही अहम की लड़ाई के चलते ही यह नौटंकी हो रही है। केरल
में हुए राष्ट्रीय खेलों में बेशक अंकित मध्य प्रदेश के लिए खेले हों लेकिन उसके
बाद वह हरियाणा से ही खेले। सच्चाई तो यह है कि अंकित भारतीय खेल प्राधिकरण की देन
है। अंकित के इस रिकार्डतोड़ प्रदर्शन से
मध्य प्रदेश गौरवान्वित महसूस करे या उत्तर प्रदेश या फिर हरियाणा ओलम्पिक में
अंकित किसी राज्य का नहीं बल्कि भारत का प्रतिनिधित्व करने जा रहा है। इस लांगजम्पर
पर भारतीय एथलेटिक संघ को भी नाज होगा कि उसका कोई पुरुष जम्पर भी रियो में जम्प
लगाएगा। इससे पहले ओलम्पिक की लम्बीकूद स्पर्धा में दिलीप सिंह और अंजू बाबी जार्ज
छलांग लगा चुके हैं। लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन अब खेलप्रेमियों को
दुआ करनी चाहिए कि अंकित शर्मा ओलम्पिक की एथलेटिक्स स्पर्धा का पदक जीतकर 116 साल
की निराशा को दूर करे।
मेरी मेहनत रंग
लाईः दुती चंद
ओलम्पिक में खिलाड़ियों के लिए क्लीफिकेशन प्रणाली लागू होने
के बाद देश के लिए फर्राटा दौड़ में हिस्सा लेने जा रही उड़ीसा की फर्राटा धावक
दुतीचंद ने कहा कि पिछला साल उसके लिए चुनौतियों से भरा रहा लेकिन आखिरकार उसकी
मेहनत रंग लाई और उसने 100 मीटर दौड़ में 11.24 सेकेण्ड का न केवल नया कीर्तिमान
बनाया बल्कि 31वें ओलम्पिक के लिए भी क्वालीफाई कर लिया। बीस वर्षीय दुतीचंद ने
कजाकिस्तान की प्रतियोगिता में महिलाओं की 100 मीटर दौड़ 11.24 सेकेंड में पूरी की
और इस तरह से रियो ओलम्पिक में अपनी जगह पक्की कर ली। दुती एक साल तक अभ्यास या
किसी प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले पाई लेकिन उसने इसका पूरे साहस के साथ सामना
किया और स्विट्जरलैंड में खेल पंचाट में प्रतिबंध के खिलाफ अपील की। पिछले साल
जुलाई में खेल पंचाट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में आंशिक रूप से उनकी अपील को सही
ठहराया और उन्हें अपना करियर फिर से शुरू करने की अनुमति दी। महान पीटी ऊषा
ओलम्पिक की 100 मीटर दौड़ में हिस्सा लेने वाली आखिरी भारतीय महिला एथलीट थीं।
उन्होंने मास्को ओलम्पिक 1980 में हिस्सा लिया था, लेकिन तब क्वालीफिकेशन प्रणाली नहीं थी। ऊषा से
पहले भी तीन भारतीय महिला खिलाड़ी ओलम्पिक की 100 मीटर दौड़ में हिस्सा ले चुकी हैं।
रियो ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीमों को आठ-आठ
कोच देने की मांग
चैम्पियंस ट्रॉफी हॉकी टूर्नामेंट में भारतीय टीम के शानदार
प्रदर्शन के बाद हॉकी इंडिया के अध्यक्ष ने भारतीय ओलम्पिक संघ के शीर्ष
अधिकारियों से महिला और पुरुष दोनों ही टीमों के लिए आठ-आठ कोचिंग और सहयोगी स्टाफ
देने की लिखित मांग की है। हॉकी इंडिया के अध्यक्ष नरिंदर बत्रा ने लिखा, हाकी इंडिया का मानना है कि पुरुष और महिला हॉकी टीमों में से प्रत्येक को आठ
कोचिंग और सहयोगी स्टाफ (कुल 16 कोचिंग और सहयोगी स्टाफ) की जरूरत है। यह चिट्ठी
आईओए के अध्यक्ष एन. रामचंद्रन और महासचिव राजीव मेहता को भेजी गई है। साथ ही बत्रा
ने यह भी आगाह किया कि यदि आईओए इस मामले को गम्भीरता से नहीं लेता है तो रियो
ओलम्पिक में टीम के प्रदर्शन के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा। उन्होंने कहा,
यदि आईओए स्थिति से समझौता करने की नीति अपनाता है तो हॉकी इंडिया मानेगा कि
आईओए ने टीमों के ओलम्पिक खेलों के लिए रवाना होने से पहले उन्हें हतोत्साहित करने
का फैसला किया है और यदि टीमें अपना बेस्ट परफॉर्मेंस नहीं दिखाती हैं तो फिर आईओए
को इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसके जवाब में मेहता ने
कहा कि सहयोगी स्टाफ के सदस्यों की संख्या क्वालीफाई करने वाले कुल खिलाड़ियों की
संख्या का 40 फीसदी से अधिक नहीं हो सकती।
No comments:
Post a Comment