क्या मोदी सरकार ध्यानचंद को देगी भारत रत्न
हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद परिचय के मोहताज नहीं हैं। खिलाड़ियों को भारत रत्न देने का जैसे ही फैसला लिया गया। अपने जेहन में विचार आया कि यह गौरव शायद दद्दा को ही पहले मिले। मिलना भी चाहिए था लेकिन इस मामले में राजनीतिक महत्वाकांक्षा परवान चढ़ी। महाराष्ट्र सहित दूसरे राज्यों में वोटों की फसल काटने के लिए कांग्रेस ने सचिन तेंदुलकर का नाम उछाल कर कालजयी दद्दा की हैसियत को ही बौना कर दिया। किसी को उम्मीद हो या नहीं मुझे लगता है हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देकर मोदी सरकार भूल सुधार जरूर करेगी। कुछ इस तरह जैसे मदन मोहन मालवीय के मामले में किया है।
सचिन तेंदुलकर और दद्दा ध्यानचंद की तुलना नहीं की जा सकती। दद्दा तो अतुलनीय हैं। किसी भी खिलाड़ी की महानता को मापने का सबसे बड़ा पैमाना है कि उसके साथ कितनी किंवदंतियां जुड़ी हैं। उस हिसाब से तो मेजर ध्यानचंद का कोई जवाब ही नहीं है। हॉलैंड में लोगों ने उनकी हॉकी स्टिक तुड़वा कर देखी कि कहीं उसमें चुम्बक तो नहीं लगा है। जापान के लोगों को अंदेशा था कि उन्होंने अपनी स्टिक में गोंद लगा रखी है। हो सकता है कि इनमें से कुछ बातें बढ़ा-चढ़ा कर कही गई हों लेकिन अपने जमाने में इस खिलाड़ी ने किस हद तक अपने हाकी कौशल का लोहा मनवाया होगा इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वियना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है जिसमें उनके चार हाथ और उनमें चार स्टिकें दिखाई गई हैं, मानों कि वो कोई देवता हों।
१९३६ के बर्लिन ओलम्पिक में उनके साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने वर्ल्ड हॉकी मैगजीन के एक अंक में लिखा था, ध्यानचंद के पास कभी भी तेज गति नहीं थी बल्कि वो धीमा ही दौड़ते थे लेकिन उनके पास गैप को पहचानने की गजब की क्षमता थी। बाएं फ्लैंक में उनके भाई रूप सिंह और दाएं फ्लैंक में मुझे उनके बॉल डिस्ट्रीब्यूशन का बहुत फायदा मिला। डी में घुसने के बाद वो इतनी तेजी और ताकत से शॉट लगाते थे कि दुनिया के बेहतरीन से बेहतरीन गोलकीपर के लिए भी कोई मौका नहीं रहता था।
दो बार के ओलम्पिक चैम्पियन केशव दत्त ने बताया कि बहुत से लोग उनकी मजबूत कलाईयों और ड्रिबलिंग के कायल थे लेकिन उनकी असली प्रतिभा उनके दिमाग में थी। वह उस ढंग से हॉकी के मैदान को देख सकते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है। उनको बिना देखे ही पता होता था कि मैदान के किस हिस्से में उनकी टीम के खिलाड़ी और प्रतिस्पर्धी मूव कर रहे हैं। याद कीजिए १९८६ के विश्व कप फुटबॉल का फाइनल। माराडोना ने बिल्कुल ब्लाइंड एंगिल से बिना आगे देख पाए तीस गज लम्बा पास दिया था जिस पर बुरुचागा ने विजयी गोल दागा था। किसी खिलाड़ी की सम्पूर्णता का अंदाजा इसी बात से होता है कि वह आँखों पर पट्टी बाँध कर भी मैदान की ज्योमेट्री पर महारत हासिल कर पाए। केशव दत्त कहते हैं, जब हर कोई सोचता था कि ध्यानचंद शॉट लेने जा रहे हैं वे गेंद को पास कर देते थे। इसलिए नहीं कि वो स्वार्थी नहीं थे (जोकि वो नहीं थे) बल्कि इसलिए कि विरोधी उनके इस मूव पर हतप्रभ रह जाएं। जब वह इस तरह का पास आपको देते थे तो जाहिर है आप उसे हर हाल में गोल में डालना चाहते थे।
१९४७ के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान उन्होंने केडी सिंह बाबू को गेंद पास करने के बाद अपने ही गोल की तरफ़ अपना मुंह मोड़ लिया और बाबू की तरफ़ देखा तक नहीं। जब उनसे बाद में उनकी इस अजीब सी हरकत का कारण पूछा गया तो उनका जवाब था, अगर उस पास पर भी बाबू गोल नहीं मार पाते तो उन्हें मेरी टीम में रहने का कोई हक नहीं था। १९६८ में भारतीय ओलम्पिक टीम के कप्तान रहे गुरुबख़्श सिंह ने बताया कि १९५९ में जब ध्यानचंद ५४ साल के हो चले थे भारतीय हॉकी टीम का कोई भी खिलाड़ी बुली में उनसे गेंद नहीं छीन सकता था। १९३६ के ओलम्पिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय टीम जर्मनी से ४-१ से हार गई। ध्यानचंद अपनी आत्मकथा गोल में लिखते हैं, मैं जब तक जीवित रहूँगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा। इस हार ने हमें इतना हिलाकर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाए। हमने तय किया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज से बर्लिन बुलाया जाए। दारा सेमीफाइनल मैच तक ही बर्लिन पहुँच पाए।
जर्मनी के खिलाफ फाइनल मैच १४ अगस्त, १९३६ को खेला जाना था लेकिन उस दिन बहुत बारिश हो गई। इसलिए मैच अगले दिन यानि १५ अगस्त को खेला गया। मैच से पहले मैनेजर पंकज गुप्ता ने अचानक कांग्रेस का झण्डा निकाला। उसे सभी खिलाड़ियों ने सैल्यूट किया (उस समय तक भारत का अपना कोई झण्डा नहीं था। वो गुलाम देश था इसलिए यूनियन जैक के तले ओलम्पिक खेलों में भाग ले रहा था।) बर्लिन के हॉकी स्टेडियम में उस दिन ४०,००० लोग फाइनल देखने के लिए मौजूद थे। देखने वालों में बड़ौदा के महाराजा और भोपाल की बेगम के साथ-साथ जर्मन नेतृत्व के चोटी के लोग मौजूद थे। ताज्जुब ये था कि जर्मन खिलाड़ियों ने भारत की तरह छोटे-छोटे पासों से खेलने की तकनीक अपना रखी थी। हाफ टाइम तक भारत सिर्फ एक गोल से आगे था। इसके बाद ध्यानचंद ने अपने स्पाइक वाले जूते और मोजे उतारे और नंगे पांव खेलने लगे। इसके बाद तो गोलों की झड़ी लग गई।
दारा ने बाद में लिखा, छह गोल खाने के बाद जर्मन रफ़ हॉकी खेलने लगे। उनके गोलकीपर की हॉकी ध्यानचंद के मुँह पर इतनी जोर से लगी कि उनका दांत टूट गया। उपचार के बाद मैदान में वापस आने के बाद ध्यानचंद ने खिलाड़ियों को निर्देश दिए कि अब कोई गोल न मारा जाए। सिर्फ जर्मन खिलाड़ियों को ये दिखाया जाए कि गेंद पर नियंत्रण कैसे किया जाता है। इसके बाद हम बार-बार गेंद को जर्मन डी में ले कर जाते और फिर गेंद को बैक पास कर देते। जर्मन खिलाड़ियों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है। भारत ने जर्मनी को ८-१ से हराया और इसमें तीन गोल ध्यानचंद ने किए। एक अखबार मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा, बर्लिन लम्बे समय तक भारतीय टीम को याद रखेगा। भारतीय टीम ने इस तरह की हॉकी खेली मानो वो स्केटिंग रिंक पर दौड़ रहे हों। उनके स्टिक वर्क ने जर्मन टीम को अभिभूत कर दिया।
भारत लौटने के बाद ध्यानचंद के साथ एक मजेदार घटना हुई। फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ध्यानचंद के फैन थे। एक बार मुम्बई में हो रहे एक मैच में वह अपने साथ नामी गायक कुंदन लाल सहगल को ले आए। हाफ टाइम तक कोई गोल नहीं हो पाया। सहगल ने कहा कि हमने दोनों भाईयों का बहुत नाम सुना है। मुझे ताज्जुब है कि आप में से कोई आधे समय तक एक गोल भी नहीं कर पाया। रूप सिंह ने तब सहगल से पूछा कि क्या हम जितने गोल मारे उतने गाने हमें आप सुनाएंगे? सहगल राजी हो गए। दूसरे हाफ में दोनों भाईयों ने मिलकर १२ गोल दागे। लेकिन फाइनल विसिल बजने से पहले सहगल स्टेडियम छोड़ कर जा चुके थे। अगले दिन सहगल ने अपने स्टूडियो आने के लिए ध्यानचंद के पास अपनी कार भेजी। लेकिन जब ध्यानचंद वहाँ पहुंचे तो सहगल ने कहा कि गाना गाने का उनका मूड उखड़ चुका है। ध्यानचंद बहुत निराश हुए कि सहगल ने नाहक ही उनका समय खराब किया। लेकिन अगले दिन सहगल खुद अपनी कार में उस जगह पहुँचे जहाँ उनकी टीम ठहरी हुई थी और उन्होंने उनके लिए १४ गाने गाए। न सिर्फ गाने गाए बल्कि उन्होंने हर खिलाड़ी को एक-एक घड़ी भी भेंट की।
रेहान फजल (बीबीसी से साभार)
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