कुश्ती फेडरेशन का धोबी पाट
ओलम्पिक खेल बिल्कुल करीब हैं लेकिन भारतीय खिलाड़ियों की रहनुमाई को लेकर कुश्ती के दो महायोद्धाओं के बीच अदालत में चली कांटे की नूरा-कुश्ती में पहलवान सुशील कुमार मात खा गये। भारतीय कुश्ती महासंघ ने ऐसा धोबी पाट लगाया कि अब वे रियो ओलम्पिक में ताल नहीं ठोक पाएंगे। सुशील कुमार और नरसिंह यादव के बीच जिस तरह की खींचतान चली, उससे यही साबित हुआ कि सुनियोजित तैयारी न होने के अलावा भी दूसरे कई तत्व अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत के शर्मसार होने की वजह हैं।
भारतीय कुश्ती महासंघ ने जहां लगातार नरसिंह यादव को मिले ओलम्पिक कोटे को प्रमुखता दी वहीं देश के अधिकांश खेलप्रेमियों का मानना था कि इन दोनों में जो जीते वही ब्राजील में ताल ठोके। भारत में खेल संघों की लीला किसी से छिपी नहीं है। नरसिंह पंचम यादव और सुशील कुमार में से किसी एक को चुनने का मामला यदि इतना उलझा भी तो उसकी वजह कुश्ती महासंघ ही है। देश के एकमात्र दो ओलम्पिक पदकधारी सुशील कुमार की अदालत में पेश सारी दलीलें खारिज होने के बाद यह तो तय हो गया कि अब ओलम्पिक के पुरुषों के ७४ किलोग्राम वर्ग में भारत की नुमाइंदगी नरसिंह यादव ही करेंगे लेकिन इसके बाद यह रार लम्बी चलेगी और उससे मुल्क की कुश्ती का ही नुकसान होगा।
इस मामले में दोनों खिलाड़ियों के दावों के बीच जिस तरह की मुश्किल खड़ी हुई, उससे तो यही लगा कि यहां देश के बजाय व्यक्तियों का सवाल ज्यादा अहम हो गया है। गौरतलब है कि भारत की ओर से ७४ किलोग्राम वर्ग में नरसिंह यादव पहले ही रियो ओलम्पिक के लिए चुने जा चुके थे लेकिन चूंकि सुशील कुमार ने ज्यादा योग्य उम्मीदवार को ओलम्पिक में भेजने की मांग के साथ उनके और नरसिंह यादव के बीच मुकाबले का सवाल उठा दिया, इसलिए मामला और उलझ गया। मुश्किल यह थी कि अगर भारतीय कुश्ती महासंघ सुशील और नरसिंह के बीच मुकाबला कराता तो बाकी के सात वजन वर्गों में भी अन्य पहलवानों के बीच ऐसे मुकाबले की मांग उसकी नाक में दम कर सकती थी।
दरअसल, ओलम्पिक में दावेदारी के लिए मौका कुश्ती के सीधे मुकाबलों में नहीं मिलता, बल्कि भारतीय कुश्ती महासंघ पूर्व के प्रदर्शन के आधार पर किसी पहलवान को चुनता है। चूंकि नरसिंह यादव ७४ किलोग्राम वर्ग में कुश्ती खेलते रहे हैं और पिछले साल लॉस वेगास में हुई विश्व कुश्ती प्रतियोगिता में उन्होंने इस वर्ग में कांस्य पदक जीता था, इसीलिए उन्हें ७४ किलोग्राम वर्ग के तहत रियो ओलम्पिक के लिए चुना गया। दूसरी ओर, सुशील कुमार ६६ किलोग्राम वर्ग में खेलते रहे हैं। लेकिन अब ओलम्पिक में इस भारवर्ग की कुश्ती नहीं होगी सो यह बखेड़ा खड़ा हो गया। सुशील कुमार चोट और तैयारियों से जुड़े सवालों से भी जूझ रहे थे। लेकिन उनकी यह शिकायत वाजिब है कि अगर भारतीय कुश्ती महासंघ ने कोई फैसला कर लिया था तो उन्हें पहले ही यह संकेत क्यों नहीं दिया गया। नरसिंह यादव और सुशील कुमार के बीच मुकाबले की जहां तक बात है, सुशील २१ हैं। वह नरसिंह को हरा भी चुके हैं लेकिन उन मुकाबलों के अब कोई मायने नहीं रहे। जाहिर है, अगर यह विवाद इतना तूल पकड़ चुका है तो इसके पीछे भारतीय कुश्ती महासंघ का ढुलमुल रवैया ही है।
इस संदर्भ में हाईकोर्ट ने बिल्कुल ठीक कहा है कि किसी व्यक्ति को नुकसान उठाना पड़ सकता है, लेकिन देश को सर्वोपरि रखना चाहिए। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भारत का रिकॉर्ड अगर संतोषजनक नहीं रहा तो इसका एक बड़ा कारण खिलाड़ियों के चयन की प्रक्रिया, उसमें आपसी खींचतान और कई बार बेहतर खिलाड़ियों को मौका न मिलना ही है। इसमें खेल संगठनों के कर्ताधर्ताओं से लेकर दूसरे सत्ता केन्द्रों के बीच टकराव और हित भी काम करते रहे हैं। इसका असर न केवल खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर पड़ता है बल्कि देश को भी नुकसान उठाना पड़ता है।
भारतीय कुश्ती महासंघ ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दलील दी कि पहलवान नरसिंह यादव रियो ओलम्पिक में ७४ किलोग्राम फ्रीस्टाइल वर्ग में सुशील कुमार से बेहतर दांव हैं। नरसिंह ने विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप २०१५ में कांस्य पदक जीतकर भारत के लिए ओलम्पिक कोटा हासिल किया था और वह सबसे सुयोग्य पहलवान और सुशील की तुलना में बेहतर प्रतिभागी हैं। भारतीय कुश्ती महासंघ ने तो यहां तक कहा कि सुशील पिछले दो वर्षों में चयन ट्रायल के दौरान लगातार नरसिंह का सामना करने से बचते रहे। सुशील ने इन दावों के जवाब में आरोप लगाया कि उन्हें ओलम्पिक में ७४ किलोग्राम भारवर्ग में भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका देने के लिए ट्रायल पर इसलिए विचार नहीं किया जा रहा क्योंकि उसने प्रो कुश्ती लीग में हिस्सा नहीं लिया था। अदालत में भारतीय कुश्ती महासंघ ने जिस तरह नरसिंह यादव का पक्ष रखा उससे साफ जाहिर है कि सुशील कुमार कहीं न कहीं कसूरवार हैं। नरसिंह का चयन पूरी तरह से निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से हुआ है, इसमें दोराय नहीं। नरसिंह ७४ किलोग्राम फ्रीस्टाइल वर्ग में बेहतर प्रतिभागी हैं क्योंकि वह २००६ से इस भार वर्ग में पूरे दबदबे के साथ खेल रहे हैं जबकि सुशील जनवरी २०१४ तक ६६ किलोग्राम भार वर्ग में खेलते रहे हैं। भारतीय कुश्ती महासंघ ने अदालत से कहा कि २६ वर्षीय नरसिंह यादव को ७४ किलोग्राम भार वर्ग में रियो ओलम्पिक में भेजने का फैसला पहलवानों के अपने भार वर्ग में उपलब्धियों, वर्तमान प्रदर्शन और अभ्यास शिविरों में मुख्य कोच और ट्रेनरों के आकलन के बाद पूरे विचार-विमर्श के बाद ही किया गया।
सुशील और नरसिंह यादव के बीच यदि ट्रायल कराई जाती तो उससे क्वालीफिकेशन प्रतियोगिता के कोई मायने नहीं रह जाते। देखा जाए तो विश्व में एक भी ऐसा वाकया नहीं है जबकि देश के लिए कोटा हासिल करने वाले खिलाड़ी को ओलम्पिक में नहीं भेजा गया हो। प्रतियोगिता के लिए पहलवान को भेजना देश का अधिकार है। नरसिंह यादव की जहां तक बात है वह रियो ओलम्पिक में ताल ठोकने जा रहे ७४ किलोग्राम भारवर्ग के १८ पहलवानों में छह को पटकनी दे चुके हैं।
पहलवान सुशील कुमार भारत के सबसे सफल खिलाड़ी हैं और व्यक्तिगत स्पर्धा में दो ओलम्पिक पदक जीत चुके हैं बावजूद इसके वह नियमों से परे कैसे हो सकते हैं। भारतीय कुश्ती के पूर्व वाकये पर नजर डालें तो कालांतर में ओलम्पिक में ट्रायल को लेकर योगेश्वर दत्त एवं अर्जुन अवार्डी कृपाशंकर का मामला भी काफी चर्चित रहा है। २००४ में ओलम्पिक क्वालीफाइंग मुकाबलों के दौरान एक क्वालीफाई मुकाबले में जब योगेश्वर दत्त हार गए थे तब दूसरा मुकाबला कृपाशंकर को लड़ना था, लेकिन तब भी राजनीति हावी रही। फेडरेशन में हरियाणा की लाबी थी। महेन्द्र सिंह मलिक डीजीपी हरियाणा पुलिस भारतीय कुश्ती संघ के प्रधान थे। जहां कृपाशंकर का मौका था वहां भी योगेश्वर दत्त लड़े थे और विजयी हुए थे। तब कहा गया था कि वह वजन क्वालीफाई हुआ है। इस बात का शोर मचा तो कहा गया हम ट्रायल लेंगे। लेकिन ट्रायल हुआ नहीं और मामला कोर्ट तक पहुंच गया था। इसके बाद ओलम्पिक में रवानगी का एक अन्य मामला इंदौर के पप्पू यादव का था, जिसमें वाइल्ड कंट्री इंट्री के बाद ट्रायल हुई थी और पप्पू यादव विजयी हुआ था। नियमतः क्वालीफाई करने के बाद विजयी पहलवान को दोबारा कभी ट्रायल नहीं देनी पड़ी। भारतीय कुश्ती महासंघ और दिल्ली की अदालत ने सुशील कुमार को पटकनी देकर यह साबित कर दिया कि नियम-कायदों से बड़ा कोई नहीं हो सकता। सुशील उच्च अदालत जाएं या कहीं और अब उनके रियो ओलम्पिक में ताल ठोकने के सभी रास्ते एक तरह से बंद हो गये हैं। बेशक सुशील कुमार ने कुश्ती प्रतियोगिताओं में भारत का सिर दुनिया में कई बार ऊंचा किया है। ओलम्पिक पदक तालिका में भारत के अंक बढ़वाने में उनका अतुलनीय योगदान है। कुश्ती के उनके दांव-पेंचों से दर्शक रोमांचित होते हैं। इस क्षेत्र में आने वाले युवा खिलाड़ी उन्हें अपना आदर्श मानते हैं, लेकिन इस आदर-सम्मान, प्रेम-प्रशंसा पाने का हकदार होने का यह अर्थ कतई नहीं कि वे नियमों से ऊपर हैं या उनके अलावा कोई और सक्षम खिलाड़ी नहीं है, या वे दूसरे की वाजिब दावेदारी को इस तरह अदालत में चुनौती दें।
सुशील को यह याद रखना चाहिए कि नरसिंह यादव ने जब विश्व चैम्पियनशिप में कांस्य पदक हासिल किया था, तब उसने फिटनेस का हवाला देते हुए चैम्पियनशिप में हिस्सा नहीं लिया था। अब वे फिट हैं और नरसिंह यादव को चुनौती दे रहे हैं कि उनके बीच मुकाबला हो जाए और जो विजेता हो, उसे भेजा जाए। अगर ऐसा होता तो अन्य सात वजन वर्गों में भारत ने जो कोटा हासिल किया है, उसमें चयनित खिलाड़ियों को भी अन्य पहलवान इसी तरह की चुनौती दे सकते थे। क्या इससे खिलाड़ियों का समय, ऊर्जा और देश का धन बर्बाद नहीं होगा। हमें यह याद रखना चाहिए कि व्यक्ति पूजा की परिपाटी से देश को कितना नुकसान हो सकता है। अन्य बहुत से खेलों में चयन प्रक्रिया में कई बार यही देखने को मिलता है कि खिलाड़ी के कौशल से ज्यादा उसके नाम को तवज्जो मिलती है और आपसी लड़ाई में जीतने की सम्भावनाएं हम पहले ही हार जाते हैं। सुशील कुमार हठधर्मिता छोड़ें और नरसिंह यादव को प्रोत्साहित करें, इससे उनका कद और बढ़ेगा।
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