डबल्स में भारतीय खिलाड़ियों का दबदबा
भारत में एक से बढ़कर एक टेनिस खिलाड़ी हैं लेकिन जब हम एकल खिलाड़ी की बात करते हैं तो सवा अरब की आबादी वाले देश को शर्मिंदगी महसूस होती है। जूनियर विम्बलडन का खिताब और ओलम्पिक में कांस्य पदक जीतने वाले ४३ साल के जांबाज लिएंडर पेस आज भी कोर्ट पर फौलादी प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन एकल में भारतीय चुनौती शून्य है। टेनिस में ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंटों का बहुत महत्व है। हर खिलाड़ी का कम से कम एक ग्रैंड स्लैम खिताब जीतने का सपना होता है। सर्बियाई खिलाड़ी नोवाक जोकोविच और अमेरिकी सेरेना विलियम्स आज निःसंदेह चैम्पियन खिलाड़ी हैं। इस खेल में भारतीय चुनौती की जहां तक बात है तो सानिया मिर्जा, लिएंडर पेस, महेश भूपति और रोहन बोपन्ना का जलवा डबल्स मुकाबलों तक ही सीमित है। पिछले कई सालों की तरह इस साल भी सिंगल्स में भारतीय पताका फहराने वाला कोई खिलाड़ी नजर नहीं आ रहा है।
पिछले साल मार्टिना हिंगिस के साथ मिलकर सानिया मिर्जा ने विम्बलडन और यूएस ओपन के रूप में दो ग्रैंड स्लैम और लिएंडर पेस ने उन्हीं के साथ तीन ग्रैंड स्लैम जीते थे। पेस सदाबहार खिलाड़ी हैं, तो सानिया-हिंगिस की जोड़ी भी फिलवक्त लय में है। जब हम पुरुष एकल पर नजर दौड़ाते हैं तो स्थिति मायूस करने वाली दिखाई पड़ती है। भारतीय खिलाड़ियों में सिर्फ युकी भांबरी ही कुछ करते दिख रहे हैं। रामकुमार रामनाथन के अलावा सोमदेव देवबर्मन और साकेत मायनेनी क्वालीफाइंग वर्ग में ही हाथ आजमाते नजर आते हैं। कहा जाता है कि किसी भी खिलाड़ी के लिए इतनी रैंकिंग पाना जरूरी है कि वह ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंटों के साथ एटीपी टूर्नामेंटों में भी सीधा प्रवेश पा सके। सवाल यह है कि भारतीय खिलाड़ियों में ऐसी क्या कमी है, जो वह इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं।
भारत ने रामनाथन कृष्णन, रमेश कृष्णन, विजय अमृतराज और लिएंडर पेस के रूप में अच्छे एकल खिलाड़ी भी दिए हैं। पर ये सभी खिलाड़ी लगभग एक-एक दशक के अंतर पर ही निकल सके हैं। मौजूदा भारतीय एकल खिलाड़ी युकी भांबरी और रामकुमार रामनाथन, दोनों ही प्रतिभावान हैं, पर दिक्कत यह है कि मौजूदा टेनिस एकदम से पॉवर गेम में बदल गई है। अब सिर्फ तकनीकी मजबूती और कौशल के बूते किसी खिलाड़ी का चमक बिखेरना सम्भव नहीं है। यही वजह है कि रोजर फेडरर जैसा खिलाड़ी भी पिछले तीन साल में एक भी ग्रैंड स्लैम खिताब नहीं जीत सका, जबकि पावर गेम खेलने वाले जोकोविच और राफेल नडाल का जलवा बरकरार है।
टेनिस हो या कोई और खेल, सभी अब व्यावसायिक रूप ले चुके हैं। सभी फेडरेशनों की कोशिश रहती है कि खेल को ज्यादा से ज्यादा बेचने लायक कैसे बनाया जाए। इंटरनेशनल टेनिस फेडरेशन और एटीपी, डब्ल्यूटीए टूर वालों को भी लगा कि अगर मैचों में ज्यादा रैलियां हों तो टेलीविजन दर्शकों को मैच देखने में ज्यादा मजा आएगा। इसलिए उन्होंने सबसे पहले कोर्ट की तेजी कम की और फिर गेंद का वजन बढ़ा दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि विनर्स पर अंकुश लगने के साथ ही रैलियों की संख्या भी बढ़ गई। सानिया मिर्जा को ही लें तो वह पहले तीन-चार शॉट खेलने के बाद विनर्स लगा देती थीं। लेकिन अब ऐसा नहीं है। इसके अलावा डबल्स के मुकाबले सिंगल्स में विनर्स लगाना और भी मुश्किल है क्योंकि कोर्ट धीमा होने की वजह से सामने का खिलाड़ी आमतौर पर हर जगह पहुंच जाता है। मौजूदा हालात में खेल में विनर्स लगाने के लिए ज्यादा ताकत की जरूरत होती है। अमेरिकी और यूरोपीय खिलाड़ी शरीर को ज्यादा ताकतवर बनाने के लिए उसे पुश कर पाते हैं। लेकिन भारतीय और एशियाई खिलाड़ियों के शरीर की अपनी सीमाएं हैं, जिन्हें वे यूरोपीय और अमेरिकी खिलाड़ियों की तरह तोड़ नहीं पाते हैं। महेश भूपति के एक उदाहरण से स्थिति को समझा जा सकता है। उन्होंने करियर के शुरुआती दिनों में एक विदेशी ट्रेनर रखा था। उसने उनके शरीर को पुश करने के लिए उन्हें बहुत दौड़ाया। नतीजा यह हुआ कि वह हैमस्ट्रिंग के शिकार हो गए। सभी जानते हैं कि भारतीय खिलाड़ियों का शरीर यूरोपीय खिलाड़ियों जितना लोड नहीं ले सकता। यही वजह है कि हम पूरी फिटनेस रखकर भी पिछड़ जाते हैं।
अतिरिक्त फिटनेस की जरूरत के चलते ही लिएंडर पेस और सानिया मिर्जा जैसे खिलाड़ियों को एकल में अच्छी सफलताएं पाने के बावजूद युगल तक सीमित हो जाना पड़ा। मौजूदा समय में युकी भांबरी और रामकुमार रामनाथन से उम्मीदें बन रही हैं। यूरोपीय ट्रेनिंग की वजह से रामकुमार की बॉडी ने पुश करने के संकेत भी दिए हैं। पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफलता पाने के लिए प्रदर्शन में एकरूपता सबसे जरूरी है। अगर युकी और रामकुमार ऐसा करने में सफल रहे तो भारत को एक नहीं दो उम्दा एकल खिलाड़ी मिल जाएंगे।
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