Thursday 16 June 2016

हाकी का ब्रैडमैन केडी सिंह बाबू


हाकी का ब्रैडमैन मेजर ध्यान चंद और रूप सिंह नहीं केडी सिंह बाबू को कहा जाता है। केडी सिंह बाबू के हॉकी करियर की शुरुआत हुई थी 1938 में, जब दिल्ली में हुए एक टूर्नामेंट में उन्होंने ओलम्पियन मोहम्मद हुसैन को डॉज करके गोल मारा था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद बाबू भारतीय हॉकी टीम के सदस्य के रूप में पहले श्रीलंका गए और फिर पूर्वी अफ़्रीका। ध्यान चंद के नेतृत्व में गई इस टीम ने कुल 200 गोल किए जिसमें सर्वाधिक 70 गोल बाबू के थे। 1948 में लंदन ओलम्पिक में भाग लेने वाली भारतीय हॉकी टीम का उन्हें उप कप्तान बनाया गया।
केडी सिंह बाबू के बेटे विश्व विजय सिंह याद करते हैं, देश के विभाजन के बाद जितने गोरे भारतीय टीम के साथ खेलते थे वो अपने अपने देश जा चुके थे। भारत के तीस से पैंतीस फ़ीसदी बेहतरीन खिलाड़ी पाकिस्तान चले गए थे। 1948 का ओलम्पिक भारतीय खिलाड़ियों के लिए बहुत इज़्ज़त की बात थी। मेरे पिता बताया करते थे कि आज़ादी के फ़ौरन बाद लंदन में ओलम्पिक होना और ब्रिटिश शासन से आज़ाद होकर वहाँ की राजधानी में ब्रिटेन को फ़ाइनल में हराना मेरे जीवन और भारत के लिए बहुत बड़ी घटना थी।
1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक में बाबू भारतीय हॉकी टीम के कप्तान बनाए गए। उनके नेतृत्व में भारत ने हालैंड को फ़ाइनल में 6-1 से हराकर लगातार पांचवीं बार ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीता था। विश्व विजय सिंह कहते हैं, 1952 की भारतीय टीम बहुत मज़बूत टीम थी। जब ये लोग वहाँ पहुंचे तो वहाँ का मौसम बहुत ठंडा था। जब ये लोग स्वर्ण पदक जीतकर लौटे तो पूरी दुनिया में इस बात की चर्चा थी कि बाबू जैसा खिलाड़ी इस दुनिया में न तो देखा गया है और न सुना गया है। अन्तरराष्ट्रीय प्रेस ने उनकी ब्रैडमैन से तुलना करते हुए उन्हें हॉकी का ब्रैडमैन कहा था।
वो बताते हैं, हेलसिंकी में उनके खेल और कप्तानी को देखते हुए लॉस एंजिल्स की हेम्सफ़र्ड फ़ाउंडेशन ने उन्हें हेम्स ट्रॉफ़ी दी थी। इसको एक तरह का खेलों का नोबेल पुरस्कार माना जाता था। हर महाद्वीप के बेहतरीन खिलाड़ी को 15 किलो की चाँदी की एक शील्ड दी जाती थी। हमारे पिता को दी गई वो शील्ड अभी भी हमारे पास है। बाबू को ध्यान चंद के बाद भारत का सर्वश्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी माना जाता है लेकिन दोनों के खेल में ज़मीन आसमान का अंतर था।
बाबू के साथ हॉकी खेल चुके ओलम्पियन रघुबीर सिंह भोला याद करते हैंए दोनों का खेल अलग था. ध्यान चंद अपने पास गेंद रखते ही नहीं थे, केडी सिंह की ख़ूबी ये थी कि वो गेंद से नक्शेबाज़ी करते थे. वो डी फ़ेट करके सामने वाले खिलाड़ी को चकमा देते थे। मैंने देखा है उनके साथ आठ खिलाड़ी एक के पीछे एक खड़े कर दो, वो सबको डॉज करके गेंद अपने पास रखते थे, ये उनकी महानता थी।
वो गेंद पर क़ब्ज़े पर यकीन रखते थे। उस ज़माने में बलबीर सिंह सेंटर फ़ॉरवर्ड होते थे। इनकी आपस में बहुत मजेदार लड़ाइयाँ होती थीं। वे कहते थे, अबे बलबीर तू अपने आपको फ़न्ने ख़ाँ समझता है। मैं तुम्हें पास देता हूँ तभी तुम गोल कर पाते हो। अगर मैं तुम्हें पास न दूँ तो देखता हूँ तुम कैसे गोल कर पाते हो। भोला बताते हैं कि एक बार बाबू भारत के बुज़ुर्ग खिलाड़ियों की तरफ़ से भारतीय महिला टीम के ख़िलाफ़ एक नुमाएशी मैच खेल रहे थे। मुझे याद है एक बार बाबू के पास गेंद आई तो उन्होंने एक के बाद एक लड़की को डॉज करना शुरू किया। मैच देखने आए लोग तालियाँ बजाने लगे कि बाबू में हॉकी का अभी भी स्किल है। वाक़ई हुनर तो था उसमें। लेकिन उस मैच की कप्तानी कर रहे ध्यान चंद ने उनसे कहा कि नक्शेबाज़ी बंद करो।
भोला आगे कहते हैं- कहने का मतलब ये कि चाहे ओलम्पिक मैच हो या नुमाएशी मैच हो, हॉकी अपने पास रखो। इसी मैच में मैंने ध्यानचंद को फ़्लिक से पास दिया जो एक मीटर आगे चला गया। मुझसे दादा कहते हैं भोला तुम्हें ओलम्पिक खिलाड़ी किसने बनाया जबकि मैं दो ओलम्पिक खेल चुका था। मैं ये सिर्फ़ इसलिए बता रहा हूँ कि ध्यान चंद, बाबू और केशव दत्त जैसे खिलाड़ी कितनी परफ़ेक्शन मांगते थे। हालाँकि भारत के पूर्व कप्तान हरबिंदर सिंह ने बाबू के साथ कभी हॉकी नहीं खेली लेकिन उन्होंने उन्हें खेलते हुए ज़रूर देखा है। हरबिंदर बताते हैं, वो राइट इन खेलते थे जो टीम का स्कीमर कहा जाता था। पुराने खिलाड़ी बताते हैं कि जब बलबीर सिंह सेंटर फ़ॉरवर्ड खेलते थे तो वो उन्हें डी में गेंद बनाकर देते थे और कहते थे लो गोल कर लो। ये बताता है कि उनके पास कितनी कलात्मक हॉकी थी।
1972 में म्यूनिख ओलम्पिक के दौरान जब वो हमारे कोच थे, तो उन्हें हॉकी छोड़े हुए कई साल हो गए थे। वो हमें लांग कॉर्नर लेना सिखा रहे थे। मुझे याद है कि जब उन्होंने लांग कॉर्नर रिसीव किया तो टैकेल करने वाला खिलाड़ी उनकी तरफ़ बढ़ा। उन्होंने अपनी स्टिक से गेंद ऊपर उठाई और एक रिस्ट शॉट लगाकर गोल कर दिया। रिटायरमेंट के बाद बाबू पहले इंडियन एयरलाइंस के कोच बने और फिर उन्हें 1972 में म्यूनिख ओलम्पिक जाने वाली भारतीय हॉकी टीम का कोच बनाया गया। उनके बेटे विश्व विजय सिंह बताते हैं, 1972 की ओलम्पिक टीम यहाँ लखनऊ में तीन चार महीने हमारे पिता के पास रही। वो शायद पहले कोच थे तो मैदान में हॉकी सिखाने के साथ-साथ क्लास रूम में भी हॉकी सिखाते थे। वे तरह-तरह के मूव सिखाते थे। उन्होंने बहुत ही बेहतरीन टीम दी थी भारत को लेकिन वो जिन खिलाड़ियों को म्यूनिख ओलम्पिक टीम में रखना चाहते थे, राजनीतिक कारणों से उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली।
वे आगे बताते हैं, जिस शख़्स को वह टीम का कैप्टन बनाना चाहते थे, उन्हें टीम में ही नहीं शामिल किया गया। वो थे रेलवे के बलबीर सिंह जूनियर। उस वजह से हम 1972 ओलम्पिक का सेमीफ़ाइनल हारे। न जाने कहाँ-कहाँ से ग़रीब बच्चों को खोज कर लाते थे और उन्हें स्पोर्ट्स हॉस्टल में रखकर हॉकी सिखाते थे। सैयद अली को जो भारत के लिए खेले, उनको वो नैनीताल से लाए थे जहाँ उनकी दर्ज़ी की दुकान थी। उनको उन्होंने वहाँ किसी लोकल टूर्नामेंट में खेलते हुए देखा था। उनको लखनऊ लाना, ट्रेंड करना और 1976 की मॉन्ट्रियल ओलम्पिक टीम में चुनवाना बड़ी बात थी।
ध्यान चंद के बेटे और दो ओलम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके अशोक कुमार बाबू को दुनिया का बेहतरीन हॉकी कोच मानते हैं। वे कहते हैं, उनका हॉकी सिखाने का तरीक़ा बहुत ज़बरदस्त था। वो लाउडस्पीकर लेकर हॉकी मैदान में खड़े होते थे। सबसे बड़ी बात जो मुझे याद है कोचिंग के दौरान उनकी माँ का देहांत हो गया। दोपहर के वक्त वे उनका अंतिम संस्कार करने गए और शाम को भारतीय टीम को कोच करने के लिए मैदान पर मौजूद थे। म्यूनिख़ ओलम्पिक के दौरान ही मैक्सिको के ख़िलाफ़ मैच में वे अशोक कुमार से नाराज़ हो गए।
अशोक कुमार याद करते हैं, मैक्सिको के ख़िलाफ़ मैच में हम तीन चार गोल से आगे थे लेकिन टीम अच्छा नहीं खेल रही थी। इंटरवल के दौरान जब टीम इकट्ठा हुई तो उन्होंने मेरी तरफ़ इशारा करके कहा तो मेरे मुंह से निकल गया बाबू साहब मैं टीम में अकेला नहीं खेल रहा हूँ। दूसरे लोग भी खेल रहे हैं और उनकी वजह से भी खेल ख़राब हो रहा है। उन्होंने कहा कि तुम्हारे पिताजी ने मुझसे हॉकी के बारे में बहस नहीं की। तुम मुझसे बहस कर रहे हो। मैं देखूँगा तुम भारत के लिए फिर कभी कैसे खेलते हो।
अशोक कुमार आगे बताते हैंए उनकी बातें मुझे चुभीं। मेरे आँसू निकलने लगे। इंटरवल ख़त्म हो गया। मैं सोचता रहा कि ये बातें उन्होंने क्यों कहीं, इस बीच मैंने मैक्सिको की टीम पर एक गोल किया जिसे बाद में टूर्नामेट का सबसे अच्छा गोल माना गया। जब खेल ख़त्म हुआ तो उन्होंने अपनी जेब से 20 मार्क निकाले और बोले जाओ इससे अपने बाप के लिए एक टाई ख़रीद लो। अपने गुस्से के बाद मुझे मनाने का ये उनका अपना अंदाज़ था जिसे सिर्फ़ बाबू ही कर सकते थे।
सिर्फ़ हॉकी ही नहीं, अन्य खेलों में भी कुंवर दिग्विजय सिंह बाबू का उतना ही दख़ल था। शिकार और मछली पकड़ने के तो वे शौकीन थे ही, क्रिकेट और टेबल टेनिस में भी उन्हें उतनी ही महारत हासिल थी। विश्व विजय सिंह याद करते हैं, लखनऊ में एक क्रिकेट टूर्नामेंट होता था शीशमहल, जिसमें उन्होंने तीन शतक लगाए थे। अक्सर मैं उनको देखता था कि वे शाम को प्रैक्टिस करने वाली स्टेट लेवल की क्रिकेट टीम के साथ हॉकी स्टिक लेकर खड़े होते थे और मुझे आज भी याद है कि स्टेट लेवल के टॉप बॉलर उन्हें बीट नहीं कर पाते थे हॉकी स्टिक से। ऐसा खिलाड़ी इस दुनिया में मिलना बहुत मुश्किल है जो किसी भी खेल टेबल टेनिस, बैडमिंटन या गोल्फ़ में उतना ही पारंगत था।

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