Monday, 6 June 2016

ओलम्पिक में रूप सिंह सा कमाल किसी का नहीं...


हाकी के दो अनमोल रत्न ध्यानचंद और रूप सिंह
ग्वालियर ने संसारपुर से अधिक खिलाड़ी भारतीय हाकी को बेशक न दिए हों लेकिन रूप सिंह सा एक सूरमा खिलाड़ी जरूर दिया जिसकी हाकी की टंकार से एडोल्फ हिटलर भी सहम गया था। रूप सिंह और दद्दा ध्यानचंद 1932 और 1936 का ओलम्पिक साथ-साथ खेले थे लेकिन इन दोनों ओलम्पिक में रूप सिंह ही सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे। रिंग मास्टर रूप सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी गोलंदाजी की बातें हमेशा जीवंत रहेंगी।
ध्यानचंद के छोटे भाई रूप सिंह हॉकी के जादूगर तो नहीं कहलाते थे लेकिन हॉकी कौशल में उनका भी कोई जवाब नहीं था। उन्होंने ध्यानचंद के साथ लॉस एंजिल्स और बर्लिन में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता था। बहुत कम लोगों को पता होगा कि अपने जमाने में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लेफ्ट इन रूप सिंह ने ओलम्पिक खेलों में ध्यानचंद से ज़्यादा गोल किए हैं। गजब का स्टिक वर्क था उनका। उनके शार्ट इतने तेज होते थे कि कई बार डर होता था कि उससे कोई घायल न हो जाए।
रूप सिंह ने ही 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के फाइनल में जर्मनी के खिलाफ पहला गोल किया था। इस मैच को भारत ने 8-1 से जीता था। रूप सिंह के भतीजे और ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार 1975 की विश्व विजेता हाकी टीम के सदस्य हैं। रूप सिंह बहुत स्टाइलिश थे। लम्बे-चौड़े खूबसूरत शरीर के मालिक। लॉस एंजिल्स ओलम्पिक टीम में चुने जाने पर उन्होंने वहाँ जाने से इंकार कर दिया क्योंकि उनके पास कपड़े नहीं थे। बाद में ध्यानचंद ने उन्हें अपने पैसों से कपड़े खरीद कर दिए। उनका एक सूट सिलवाया तब जाकर वह अमरीका जाने के लिए तैयार हुए। रूप सिंह अपने जमाने के चोटी के अचूक गोल स्कोरर थे। उनके हिट गोली की तरह गोल में जाते थे। कई मर्तबा दद्दा ध्यानचंद ने उन्हें यह कहते हुए मैच से बाहर भी किया कि तुम मैच खेलने आए हो या खिलाड़ी को घायल करने।
रूप सिंह पेनाल्टी कार्नर भी बेहतरीन ढंग से लेते थे। 1932 के ओलम्पिक में सबसे ज्यादा गोल रूप सिंह के रहे, ध्यानचंद के नहीं। इन दोनों का काम्बिनेशन और आपसी समझ इतनी खूबसूरत थी कि किस जगह गेंद लेनी है या देनी है, उन्हें पहले से पता होता था। लॉस एंजिल्स का ओलम्पिक रूप सिंह का था, जहाँ उन्होंने अपने कलात्मक कौशल से स्वर्ण पदक जीतकर अमरीका ही नहीं, पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया था।
15 अगस्त 1936 बर्लिन ओलम्पिक की जहां तक बात है फाइनल में भारत ने पहले हाफ तक जर्मनी पर एक गोल किया था, वह भी रूप सिंह की स्टिक से आया था। गोल के बाद जर्मन टीम भारत पर हमले पर हमले कर रही थी। इस बीच मध्यांतर हो गया। इस दौरान दोनों भाईयों में विचार-विमर्श हुआ। ध्यानचंद ने कहा रूप क्या करें सिर्फ एक ही गोल हुआ है। अगर हम बढ़त नहीं बनाते हैं तो जर्मन गोल बराबर कर लेंगे और हमारी टीम हार सकती है। दोनों ने तय किया कि वे अब नंगे पैर खेलेंगे। मध्यांतर के बाद दोनों भाईयों ने अपने जूते उतार दिए। इसके बाद उनके पैरों में ग्रिप आनी शुरू हो गई। यह मैच भारत ने 8-1 से जीता था। जो हिटलर अपनी टीम को विजेता होते देखने आया था वह मैच के बीच में ही उठ कर चला गया था। वह अपनी टीम को हारता हुआ नहीं देख सका।
हाकी के पूर्व ओलम्पियन और जाने-माने अम्पायर ज्ञान सिंह कहा करते थे कि उन्होंने रूप सिंह के अलावा और किसी को लेफ्ट इन पर खेलते हुए लेफ्ट आउट के पास पर गोल करते हुए नहीं देखा। 1932 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में उन्होंने अमरीका के ख़िलाफ 12 गोल किए थे। रूप सिंह के भतीजे अशोक कुमार भी बताते हैं कि मैंने हाकी के सारे गुर अपने पिता ध्यानचंद से नहीं बल्कि अपने चाचा रूप सिंह से सीखे थे। अशोक कुमार कहते हैं कि खिलाड़ी वो है जो मैच में मार न खाए यानि वो घायल न हो, क्योंकि अगर आप अच्छे खिलाड़ी हैं और आपको चोट लग जाए तो इसका टीम पर असर पड़ता है। उन्होंने इसका तोड़ ये बताया कि अगर आपको लगे कि विरोधी खिलाड़ी आपको चोट पहुंचाने आ रहा है तो उसके इतने नजदीक चले जाओ कि उसे हाकी चलाने का मौका ही न मिले। मैंने इस सीख पर अमल किया। इसकी वजह से मुझे अपने करियर में कभी चोट नहीं लगी। अशोक बताते हैं कि वे मुझे यह भी हिदायत देते थे कि मैं गेंद को ज्यादा अपने पास न रखकर उसे डिस्ट्रीब्यूट करूँ। अपने साथी खिलाड़ी को इस तरह पास दो कि वह गोल कर सके। चाचा मुझसे बार-बार यही कहते थे कि आप या तो गोल करें या करवाएं।
रूप सिंह की एक खासियत और थी कि वह अम्पायर के किसी फैसले पर बहस नहीं करते थे। 1936 में उनके शानदार प्रदर्शन के बाद बर्लिन की एक सड़क का नाम उनके नाम पर रखा गया। लंदन में 2012 में हुए ओलम्पिक में भी ध्यान चंद और लेस्ली क्लाडियस के साथ-साथ रूप सिंह के नाम पर एक मेट्रो स्टेशन का नाम रखा गया। रूप सिंह बहुत ही मृदुभाषी थे। उनका परिवार ग्वालियर में उनके साथ रहता था। अशोक कुमार बताते हैं कि जब कभी वह ग्वालियर आते थे तो ध्यानचंद, रूप सिंह और हमारे ताऊ मूल सिंह एक साथ बैठते थे। जब शाम होती थी तो बाबूजी चुपके से उनका छोटा सा ड्रिंक का गिलास बनाते थे। वे कभी खुद या कभी किसी बड़े लड़के से कहते थे जाओ इसे रूप को देकर आओ। उनका भाईयों के प्रति प्यार होता जरूर था लेकिन यह नहीं कि गले लगा लिया या हँसी मजाक कर लिया। दद्दा अक्सर पूछते थे रूप को खाना मिला या नहीं। मैंने इन दोनों भाईयों के बीच जो प्यार देखा है, वह मुझे कहीं और नहीं नजर आया।

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