Sunday, 31 May 2015

हिन्दी समाचार पत्र का संघर्ष

आज के ही दिन यानी 30 मई, 1826 को कानपुर से आकर कलकत्ता, अब कोलकाता, में सक्रिय वकील पंडित जुगल किशोर शुक्ला ने भारतीयों के हित में साप्ताहिक उदंत मार्तण्ड का प्रकाशन शुरू किया था. इसलिए हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। हालांकि, तब कलकत्ता में शासकों की भाषा अंगरेजी के बाद बंगला व उर्दू का प्रभुत्व था, जबकि हिंदी उपेक्षित थी। उदंत मार्तण्ड के पहले अंक की पांच सौ प्रतियां छापी गयी थीं और तमाम दुश्वारियों से दो-चार होते हुए यह अपनी सिर्फ एक वर्षगांठ मना पाया था। चार दिसंबर, 1827 को प्रकाशित अंतिम अंक में इसके बंद होने की बड़ी ही मार्मिक घोषणा की गयी थी। पहले साप्ताहिक उदंत मार्तण्ड के बाद हिंदी को अपने पहले दैनिक के लिए लम्बी प्रतीक्षा से गुजरना पड़ा। 1854 में श्यामसुंदर सेन द्वारा प्रकाशित व संपादित समाचार सुधावर्षण ने इस प्रतीक्षा का अंत तो किया, लेकिन यह कसक फिर भी रह गयी कि यह अकेला हिंदी का दैनिक न होकर द्विभाषी था, जिसमें कुछ रिपोर्टें बंगला के साथ हिंदी में भी होती थीं. जब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ, तो सेन ने अंगरेजों के खिलाफ एक जबरदस्त मोर्चा समाचार सुधावर्षण में भी खोल दिया. उन्होंने मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के उस संदेश को प्रकाशित किया, जिसमें जफर ने हिंदुओं-मुसलमानों से भावुक अपील की थी कि वे मनुष्य होने के नाते प्राप्त अपनी सबसे बड़ी नेमत आजादी के अपहर्ता अंगरेजों को बलपूर्वक देश से बाहर निकालने का पवित्र कर्तव्य निभाने के लिए कतई कुछ भी उठा न रखें. गोरी सरकार ने इसे लेकर 17 जून, 1857 को सेन और समाचार सुधावर्षण के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगा कर उन्हें अदालत में खींच लिया. सेन के सामने बरी होने का विकल्प था कि वे माफी मांग लें. लेकिन जीवट सेन को अपने देशाभिमान के चलते ऐसा करना गंवारा नहीं हुआ और उन्होंने अदालती लड़ाई लड़ने का फैसला किया. पांच दिनों की लंबी बहस के बाद अदालत ने यह स्वीकार कर लिया कि देश की सत्ता अभी भी वैधानिक रूप से बहादुरशाह जफर में ही निहित है. इसलिए उनके संदेश का प्रकाशन देशद्रोह नहीं हो सकता. देशद्रोही तो अंगरेज हैं, जो गैरकानूनी रूप से मुल्क पर काबिज हैं और उनके खिलाफ अपने सम्राट का संदेश छाप कर समाचार सुधावर्षण ने देशद्रोह नहीं किया, बल्कि देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है. सेन की जीत तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता के हिस्से आयी एक बहुत बड़ी जीत थी और इसने उसका मस्तक स्वाभिमान से ऊंचा कर दिया था. इसलिए भी कि जब दूसरी कई भारतीय भाषाओं के पत्रों ने निर्मम सरकारी दमन के सामने घुटने टेक दिये थे, हिंदी का यह पहला दैनिक निर्दभ अपना सिर ऊंचा किये खड़ा रहा था. लेकिन, अफसोस की बात यह है कि संचार क्रांति के दिये हथियारों से लैस होकर जगर-मगर में खोई हमारी आज की हिंदी पत्रकारिता को कभी-कभी ही याद आता है कि वह प्रतिरोध की कितनी शानदार परंपरा की वारिस है! इस विरासत पर भला किसे गर्व नहीं होगा?

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