अपने मुरीदों की उम्मीदों को पर लगाते हुए जयललिता ने शनिवार को एक बार फिर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद की आसंदी सम्हाल ली। अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जे. जयललिता की जहां तक बात है, उन्होंने अपने चार दशक के राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। जयललिता और तमिलनाडु की जनता के बीच वही रिश्ता है जैसा भगवान और भक्त के बीच होता है। वह पद में रहें या न रहें तमिलनाडु की जनता जनार्दन के बीच उनकी लोकप्रियता में लेशमात्र भी कमी नहीं आती। अम्मा में मुसीबतों से लड़ने की जहां हिम्मत है वहीं विरोधियों का मानमर्दन करने का हौसला उन्हें सबसे अलग साबित करता है। आय से अधिक सम्पत्ति के मामले से दोषमुक्त होने के बाद वह पांचवीं बार सूबे का मुखिया बनी हैं। तमिलनाडु की 14वीं विधानसभा में जयललिता बतौर मुख्यमंत्री 29 सदस्यीय मंत्रिमण्डल का नेतृत्व करेंगी। जयललिता के मंत्रिमण्डल में वही लोग शामिल हैं, जो पूर्ववर्ती ओ. पन्नीरसेल्वम के मंत्रिमण्डल में थे। उनके विभागों में भी बदलाव नहीं किया गया है। गृह एवं सामान्य प्रशासन विभाग जयललिता ने अपने पास ही रखे हैं, जबकि पन्नीरसेल्वम पहले की तरह वित्त एवं लोक कार्य विभाग सम्हालेंगे।
जयललिता ने अपने उतार-चढ़ाव भरे राजनीतिक जीवन में न केवल अनेकों लड़ाइयां लड़ीं बल्कि जब-जब राजनीतिक दुष्प्रचारकों ने उनका अवसान माना वह पुन: उठ खड़ी हुर्इं। दृढ़-निश्चय की धनी जयललिता को जहां पराजय पसंद नहीं है वहीं प्रतिद्वन्द्वियों को माफ करना उन्हें कभी रास नहीं आया। बीते साल की 27 सितम्बर को जब जे. जयललिता आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में दोषी पाई गर्इं और कर्नाटक की विशेष अदालत ने उन्हें सजा सुनाई तब उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्याग-पत्र देना पड़ा था। मुश्किल हालातों में उन्होंने धैर्य खोने और रोने की बजाय अपने विश्वासपात्र पन्नीरसेल्वम को सत्ता की कमान सौंप दी। जयललिता के सत्ता से हटने के बाद उनके हितचिन्तकों के मन में इस बात की आशंका थी कि अम्मा के बिना पार्टी का क्या होगा? तमिलनाडु की सियासत में अन्नाद्रमुक जयललिता के बूते ही चलती है। वह पार्टी की सुप्रीमो ही नहीं बल्कि सर्वेसर्वा भी हैं। तमिलनाडु की राजनीति में जयललिता ‘कम बैक क्वीन’ मानी जाती हैं। उनकी वापसी के बाद अब उनकी पार्टी के कार्यकर्ता पूरे मनोयोग से अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी कर सकेंगे। जयललिता के सूबे का मुखिया बनने के बाद विपक्षियों की रणनीति में भी एक नया पेंच आ गया है। वर्ष 1991-96, 2001-2006 और मई 2011 से सितम्बर 2014 तक मुख्यमंत्री रह चुकीं जयललिता को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में 11 मई को बरी किया था। जयललिता के बरी होने के साथ ही उनके फोर्ट सेंट जॉर्ज स्थित सत्ता की पीठ में वापसी की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई थी। जयललिता का विवादों से चोली दामन जैसा साथ है। उन्हें इससे पहले भी वर्ष 2001 में टीएएनएसआई भूमि घोटाला मामले में झटका लगा था। सीवी श्रीधर के निर्देशन में वर्ष 1956 में बनी फिल्म ‘वेननीरा अदाई’ से सिनेमा जगत में पदार्पण करने वाली जयललिता ने एक ‘संकोची’ किशोर अभिनेत्री से एक लोकप्रिय और चर्चित अभिनेत्री बनने तक का सफर तय किया। इस सफर के दौरान उन्होंने उस समय के सबसे बड़े फिल्मी सितारे एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) समेत कितने ही कलाकारों के साथ काम किया। एक के बाद एक 30 फिल्में करने के बाद पर्दे पर बना उनका तालमेल राजनीति के क्षेत्र में भी पहुंच गया। अन्नाद्रमुक की स्थापना के बाद पार्टी की प्रचार सचिव के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाली जया ने रामचंद्रन को खासतौर से अपने अंग्रेजी ज्ञान से प्रभावित किया था। रामचंद्रन जयललिता के इस कौशल से इतना प्रभावित हुए कि उन्हें राज्यसभा भेज दिया। राज्यसभा की चौखट पर पहुंचते ही जयललिता ने राजनीति में अपने पैर मजबूती से जमाने शुरू कर दिये। रामचंद्रन की अंत्येष्टि के अवसर पर अपमानित होने से जैसे ही जयललिता का दिल टूटा उन्होंने पार्टी ही तोड़ दी। पहले तमिलनाडु में डीएमके एक ही पार्टी हुआ करती थी। डीएमके के संस्थापक अन्नादुराय थे। बाद में डीएमके में विभाजन हुआ। एक पार्टी डीएमके के नाम जानी गई तो दूसरी अन्नाडीएमके के नाम से। डीएमके के नेता करुणानिधि बने और अन्नाडीएमके के एमजीआर। एमजीआर की मृत्यु के बाद जयललिता ने अन्नाडीएमके की बागडोर सम्हाल ली। तमिलनाडु में ब्राह्मण-विरोध लगभग एक आंदोलन है। जयललिता खुद ब्राह्मण हैं। परन्तु इनकी लोकप्रियता गैर-ब्राह्मणों में भी कम नहीं है। जयललिता और करुणानिधि के बीच मतभेद और मनभेद हैं। दोनों के बीच वैयक्तिक दुश्मनी इस कदर है कि शायद ही देश के किन्हीं दो नेताओं के बीच हो। करुणानिधि सत्ता में होते हैं तो वे जयललिता को हद के बाहर सताते हैं और यदि जयललिता मुख्यमंत्री होती हैं तो करुणानिधि को चैन से नहीं रहने देतीं। अब एक बार फिर जयललिता मुख्यमंत्री बन गई हैं ऐसे में करुणानिधि की पेशानियों में बल पड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता। अम्मा के जेल जाने से यह सवाल स्वाभाविक तौर पर उठा था कि क्या एक दशक का राजनीतिक वनवास उन्हें पूरी तरह राजनीतिक परिदृश्य से गायब कर देगा और भारतीय राजनीति में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि वे इसमें महत्वपूर्ण अध्याय की तरह दर्ज हैं। आठ महीने बाद ही कर्नाटक हाईकोर्ट ने उन्हें तमाम आरोपों से बरी कर दिया। अब जयललिता फिर से तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं। अगले साल तमिलनाडु में चुनाव होने हैं, विरोधी अपनी चालें तय करें, इसके पहले मुमकिन है सहानुभूति का फायदा उठाकर जयललिता चुनाव समय से पूर्व ही करवाने की घोषणा कर दें। द्रमुक अभी पारिवारिक झटकों और आंतरिक कलह से नहीं उबरी है। कांगे्रस का ध्यान भी तमिलनाडु की ओर खास नहीं है। हां, भाजपा जरूर अपना विस्तार करने में लगी है, ऐसे में जयललिता से कमल दल को ही सबसे ज्यादा परेशानी उठानी पड़ सकती है। राजनीति में कोई किसी का दोस्त-दुश्मन नहीं होता ऐसे में भाजपा-अन्नाद्रमुक के बीच गलबहियां होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
जयललिता ने अपने उतार-चढ़ाव भरे राजनीतिक जीवन में न केवल अनेकों लड़ाइयां लड़ीं बल्कि जब-जब राजनीतिक दुष्प्रचारकों ने उनका अवसान माना वह पुन: उठ खड़ी हुर्इं। दृढ़-निश्चय की धनी जयललिता को जहां पराजय पसंद नहीं है वहीं प्रतिद्वन्द्वियों को माफ करना उन्हें कभी रास नहीं आया। बीते साल की 27 सितम्बर को जब जे. जयललिता आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में दोषी पाई गर्इं और कर्नाटक की विशेष अदालत ने उन्हें सजा सुनाई तब उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्याग-पत्र देना पड़ा था। मुश्किल हालातों में उन्होंने धैर्य खोने और रोने की बजाय अपने विश्वासपात्र पन्नीरसेल्वम को सत्ता की कमान सौंप दी। जयललिता के सत्ता से हटने के बाद उनके हितचिन्तकों के मन में इस बात की आशंका थी कि अम्मा के बिना पार्टी का क्या होगा? तमिलनाडु की सियासत में अन्नाद्रमुक जयललिता के बूते ही चलती है। वह पार्टी की सुप्रीमो ही नहीं बल्कि सर्वेसर्वा भी हैं। तमिलनाडु की राजनीति में जयललिता ‘कम बैक क्वीन’ मानी जाती हैं। उनकी वापसी के बाद अब उनकी पार्टी के कार्यकर्ता पूरे मनोयोग से अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी कर सकेंगे। जयललिता के सूबे का मुखिया बनने के बाद विपक्षियों की रणनीति में भी एक नया पेंच आ गया है। वर्ष 1991-96, 2001-2006 और मई 2011 से सितम्बर 2014 तक मुख्यमंत्री रह चुकीं जयललिता को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में 11 मई को बरी किया था। जयललिता के बरी होने के साथ ही उनके फोर्ट सेंट जॉर्ज स्थित सत्ता की पीठ में वापसी की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई थी। जयललिता का विवादों से चोली दामन जैसा साथ है। उन्हें इससे पहले भी वर्ष 2001 में टीएएनएसआई भूमि घोटाला मामले में झटका लगा था। सीवी श्रीधर के निर्देशन में वर्ष 1956 में बनी फिल्म ‘वेननीरा अदाई’ से सिनेमा जगत में पदार्पण करने वाली जयललिता ने एक ‘संकोची’ किशोर अभिनेत्री से एक लोकप्रिय और चर्चित अभिनेत्री बनने तक का सफर तय किया। इस सफर के दौरान उन्होंने उस समय के सबसे बड़े फिल्मी सितारे एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) समेत कितने ही कलाकारों के साथ काम किया। एक के बाद एक 30 फिल्में करने के बाद पर्दे पर बना उनका तालमेल राजनीति के क्षेत्र में भी पहुंच गया। अन्नाद्रमुक की स्थापना के बाद पार्टी की प्रचार सचिव के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाली जया ने रामचंद्रन को खासतौर से अपने अंग्रेजी ज्ञान से प्रभावित किया था। रामचंद्रन जयललिता के इस कौशल से इतना प्रभावित हुए कि उन्हें राज्यसभा भेज दिया। राज्यसभा की चौखट पर पहुंचते ही जयललिता ने राजनीति में अपने पैर मजबूती से जमाने शुरू कर दिये। रामचंद्रन की अंत्येष्टि के अवसर पर अपमानित होने से जैसे ही जयललिता का दिल टूटा उन्होंने पार्टी ही तोड़ दी। पहले तमिलनाडु में डीएमके एक ही पार्टी हुआ करती थी। डीएमके के संस्थापक अन्नादुराय थे। बाद में डीएमके में विभाजन हुआ। एक पार्टी डीएमके के नाम जानी गई तो दूसरी अन्नाडीएमके के नाम से। डीएमके के नेता करुणानिधि बने और अन्नाडीएमके के एमजीआर। एमजीआर की मृत्यु के बाद जयललिता ने अन्नाडीएमके की बागडोर सम्हाल ली। तमिलनाडु में ब्राह्मण-विरोध लगभग एक आंदोलन है। जयललिता खुद ब्राह्मण हैं। परन्तु इनकी लोकप्रियता गैर-ब्राह्मणों में भी कम नहीं है। जयललिता और करुणानिधि के बीच मतभेद और मनभेद हैं। दोनों के बीच वैयक्तिक दुश्मनी इस कदर है कि शायद ही देश के किन्हीं दो नेताओं के बीच हो। करुणानिधि सत्ता में होते हैं तो वे जयललिता को हद के बाहर सताते हैं और यदि जयललिता मुख्यमंत्री होती हैं तो करुणानिधि को चैन से नहीं रहने देतीं। अब एक बार फिर जयललिता मुख्यमंत्री बन गई हैं ऐसे में करुणानिधि की पेशानियों में बल पड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता। अम्मा के जेल जाने से यह सवाल स्वाभाविक तौर पर उठा था कि क्या एक दशक का राजनीतिक वनवास उन्हें पूरी तरह राजनीतिक परिदृश्य से गायब कर देगा और भारतीय राजनीति में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि वे इसमें महत्वपूर्ण अध्याय की तरह दर्ज हैं। आठ महीने बाद ही कर्नाटक हाईकोर्ट ने उन्हें तमाम आरोपों से बरी कर दिया। अब जयललिता फिर से तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं। अगले साल तमिलनाडु में चुनाव होने हैं, विरोधी अपनी चालें तय करें, इसके पहले मुमकिन है सहानुभूति का फायदा उठाकर जयललिता चुनाव समय से पूर्व ही करवाने की घोषणा कर दें। द्रमुक अभी पारिवारिक झटकों और आंतरिक कलह से नहीं उबरी है। कांगे्रस का ध्यान भी तमिलनाडु की ओर खास नहीं है। हां, भाजपा जरूर अपना विस्तार करने में लगी है, ऐसे में जयललिता से कमल दल को ही सबसे ज्यादा परेशानी उठानी पड़ सकती है। राजनीति में कोई किसी का दोस्त-दुश्मन नहीं होता ऐसे में भाजपा-अन्नाद्रमुक के बीच गलबहियां होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
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