समय दिन और तारीख देखकर आगे नहीं बढ़ता। हिन्दी पत्रकारिता को लेकर 189 साल पहले जुगल किशोर शुक्ल की सोच क्या रही होगी, उससे कहीं महत्वपूर्ण है कि आज क्या हो रहा है। भारत में प्रतिवर्ष 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाना एक परम्परा सी बन गई है। इस दिन कुछ प्रबुद्धजनों का सम्मान करने मात्र से इसकी सार्थकता सिद्ध नहीं होती बावजूद इसके हम सालों साल से उसी लीक पर चल रहे हैं। आज देश में विभिन्न भाषाओं के लगभग एक लाख पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होने के बावजूद चौथे स्तम्भ पर बार-बार उंगलियां उठ रही हैं, आखिर क्यों?
आज पत्रकारिता के मानक बदल गये हैं। हिन्दी पत्रकारों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है, उनमें अपने कर्म के प्रति वह जोश और जज्बा नहीं रहा, जितनी समाज उनसे अपेक्षा रखता है। देश से प्रकाशित पहला हिन्दी समाचार पत्र उदंत मार्तण्ड इसलिए बंद हुआ कि उसे चलाने के लिए पण्डित जुगल किशोर शुक्ल के पास पैसा नहीं था। आज पैसा है और लोग लगा भी रहे हैं लेकिन कुप्रबंधन के चलते हर साल सैकड़ों समाचार पत्र बंद हो रहे हैं। आज मीडिया एक बड़े कारोबार की शक्ल तो ले चुका है पर उसके सरोकार बदल गये हैं। बदलते सरोकारों की वजह से ही आज चौथे स्तम्भ पर वे लोग उंगलियां उठा रहे हैं जिन्हें सलीके से क, ख, ग भी नहीं आता। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। पिछले 189 साल में समाचार पत्र जगत में भी काफी चीजें बदली हैं। हिन्दी अखबारों का कारोबार तो बढ़ा है लेकिन वे अंग्रेजी समाचार पत्रों को माकूल चुनौती नहीं दे पा रहे। इसकी वजह मीडिया जगत में कारोबारी मॉडल का प्रवेश है। आज समाचार पत्रों में कुशल पत्रकार की अपेक्षा मीडिया प्लानर अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। मीडिया प्लानर का काम न केवल समाचार पत्र की आय में इजाफा करना होता है बल्कि वह समाचार पत्र का कंटेंट बदलने को भी स्वतंत्र होता है। समाचार पत्रों के मालिकानों की नजर में मीडिया प्लानर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सारा अर्थतंत्र उसी के हाथों में होता है। यह सही है कि कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता, पर सूचना माध्यमों की अपनी कुछ जरूरतें भी होती हैं। पत्रकार की सबसे बड़ी पूंजी उसकी साख है। उसकी यही साख समाज और सुधि पाठकों पर प्रभाव डालती है। भरोसा सबसे बड़ी चीज है। जब तक कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा नहीं करेगा भला उसे खरीदने की क्यों सोचेगा?
एक समय था जब सम्पादकीय विभाग का विज्ञापन से कोई सरोकार नहीं होता था लेकिन आज पत्रकारों ही नहीं संपादकों के चयन तक में विज्ञापन दिला सकने की सामर्थ्य देखी जाती है। समाचार और विज्ञापन संकलन में फर्क होने के बावजूद इसे हमेशा अनदेखा किया जाता है। कुशल मार्केटिंग किसी भी समाचार पत्र का अमोघ अस्त्र है। मार्केटिंग के महारथी अंग्रेजीदां होते हैं, यही वजह है कि वे अंग्रेजी अखबारों को बेहतर कारोबार देते हैं। पर्याप्त आय होने से अंग्रेजी समाचार पत्र सामग्री संकलन पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं। आज देश में हिन्दी समाचार पत्रों की अपेक्षा अंग्रेजी समाचार पत्रों का कारोबार दुगने से भी ज्यादा है। हिन्दी अखबारों की दुश्वारियां बाजारवाद से कहीं अधिक उसकी मोनोपॉली है। आज हिन्दी समाचार पत्र इजारेदारी की गिरफ्त में हैं। पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी अखबार अपनी मर्यादा रेखा भूल रहे हैं। हिन्दी समाचार पत्रों को अंग्रेजी समाचार पत्रों का अंधानुकरण करने की बजाय उन्हें अपने आपको निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे मूल्यों से बांधना चाहिए। ऐसा होने से बेशक समाचार सनसनीखेज नहीं होगा लेकिन हम तथ्यों के तोड़-मरोड़ और दूसरों के निजी जीवन में ताक-झांक से जरूर बच जाएंगे।
पत्रकारिता के भी सिद्धांत हैं। उसकी भी मर्यादा है। यदि हमने एक बार मर्यादा रेखा लांघी तो सच मानिए यह हमें बार-बार गलत करने को उकसायेगी। पत्रकारिता और मार्केटिंग के क्षेत्र में जमीन-आसमान का फर्क है। मार्केटिंग का एक ही सिद्धांत है कि बाजार पर छा जाओ और किसी चीज को इस तरह पेश करो कि व्यक्ति ललचा जाए। ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मंत्र है लेकिन पत्रकारिता का मूलमंत्र है किसी छिपी हुई बात को समाज के समाने लाना। यह मंत्र बाजारवाद के मंत्र के बिल्कुल विपरीत है। विज्ञापन का मंत्र झूठ बात को सच बनाना है जबकि पत्रकारिता का उद्देश्य सच को सामने लाना होता है। अफसोस, बदलते दौर में सच पर झूठ हावी है। मॉर्केटिंग को पत्रकारिता पर तरजीह की मुख्य वजह पैसा है। पैसे की वजह से ही प्रतिभाएं पत्रकारिता की बजाय मार्केटिंग में हाथ आजमाना बेहतर समझती हैं।
आज लोगों की शिकायत है कि समाचार पत्र जमीनी समस्याओं से बेखबर हैं। लोगों की इस शिकायत को हम सिरे से खारिज भी नहीं कर सकते। अखबार अपने मूल्यों से इतर यदि जन समस्याओं की तह पर जाएं तो उनमें संजीदगी आएगी। आज जगह-जगह पत्रकारिता की दुकानें खुली हैं। प्रशिक्षु पत्रकारों को पत्रकारिता की गूढ़ बातें समझाने की बजाय उन्हें शॉर्टकट रास्ते बताये जाते हैं। यह छात्र-छात्राएं पत्रकारिता की डिग्री तो हासिल कर लेते हैं लेकिन उन्हें पत्रकारिता के मूल्य-मर्यादाओं का अहसास तक नहीं होता। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आने वाले समय में हो सकता है अखबार न रहें, पर पत्रकारिता जरूर रहेगी। कालखण्ड कोई भी रहा हो सूचना की जरूरत हमेशा रही है। सूचना और समाचार चटपटी चाट नहीं, इस बात का भान हमारे समाज को भी होना चाहिए।
पत्रकारिता से ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। पत्रकारिता को लेकर आज जो उंगलियां उठ रही हैं, वे मिथ्या नहीं हैं। हमें पत्रकारिता को मजबूती देने के लिए समाचारों की गुणवत्ता पर ध्यान देने के साथ ही उसे सामान्य पाठक के समझने लायक बनाना भी जरूरी है। पाखण्ड से हम लम्बे समय तक पाठक को दिग्भ्रमित नहीं कर सकते। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते समय पाठक से दुनिया भर की बातें कहते हैं, पर अखबार बनाते वक्त सामाजिक सरोकारों को तरजीह नहीं दी जाती। पाठक को एक ऐसे समाचार पत्र की जरूरत होती जिसमें सार्थक समाचारों का समावेश हो। बिकने लायक सार्थक और दमदार समाचार बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की भी जरूरत होती है जोकि हम नहीं करना चाहते या यूं कहें नहीं कर पाते। उसूलों की अनदेखी हिन्दी पत्रकारिता के लिए घातक है। मीडिया में हो रहा बदलाव इस बात की इजाजत नहीं देता कि हम जो चाहें सो लिखें।
आज पत्रकारिता के मानक बदल गये हैं। हिन्दी पत्रकारों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है, उनमें अपने कर्म के प्रति वह जोश और जज्बा नहीं रहा, जितनी समाज उनसे अपेक्षा रखता है। देश से प्रकाशित पहला हिन्दी समाचार पत्र उदंत मार्तण्ड इसलिए बंद हुआ कि उसे चलाने के लिए पण्डित जुगल किशोर शुक्ल के पास पैसा नहीं था। आज पैसा है और लोग लगा भी रहे हैं लेकिन कुप्रबंधन के चलते हर साल सैकड़ों समाचार पत्र बंद हो रहे हैं। आज मीडिया एक बड़े कारोबार की शक्ल तो ले चुका है पर उसके सरोकार बदल गये हैं। बदलते सरोकारों की वजह से ही आज चौथे स्तम्भ पर वे लोग उंगलियां उठा रहे हैं जिन्हें सलीके से क, ख, ग भी नहीं आता। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। पिछले 189 साल में समाचार पत्र जगत में भी काफी चीजें बदली हैं। हिन्दी अखबारों का कारोबार तो बढ़ा है लेकिन वे अंग्रेजी समाचार पत्रों को माकूल चुनौती नहीं दे पा रहे। इसकी वजह मीडिया जगत में कारोबारी मॉडल का प्रवेश है। आज समाचार पत्रों में कुशल पत्रकार की अपेक्षा मीडिया प्लानर अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। मीडिया प्लानर का काम न केवल समाचार पत्र की आय में इजाफा करना होता है बल्कि वह समाचार पत्र का कंटेंट बदलने को भी स्वतंत्र होता है। समाचार पत्रों के मालिकानों की नजर में मीडिया प्लानर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सारा अर्थतंत्र उसी के हाथों में होता है। यह सही है कि कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता, पर सूचना माध्यमों की अपनी कुछ जरूरतें भी होती हैं। पत्रकार की सबसे बड़ी पूंजी उसकी साख है। उसकी यही साख समाज और सुधि पाठकों पर प्रभाव डालती है। भरोसा सबसे बड़ी चीज है। जब तक कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा नहीं करेगा भला उसे खरीदने की क्यों सोचेगा?
एक समय था जब सम्पादकीय विभाग का विज्ञापन से कोई सरोकार नहीं होता था लेकिन आज पत्रकारों ही नहीं संपादकों के चयन तक में विज्ञापन दिला सकने की सामर्थ्य देखी जाती है। समाचार और विज्ञापन संकलन में फर्क होने के बावजूद इसे हमेशा अनदेखा किया जाता है। कुशल मार्केटिंग किसी भी समाचार पत्र का अमोघ अस्त्र है। मार्केटिंग के महारथी अंग्रेजीदां होते हैं, यही वजह है कि वे अंग्रेजी अखबारों को बेहतर कारोबार देते हैं। पर्याप्त आय होने से अंग्रेजी समाचार पत्र सामग्री संकलन पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं। आज देश में हिन्दी समाचार पत्रों की अपेक्षा अंग्रेजी समाचार पत्रों का कारोबार दुगने से भी ज्यादा है। हिन्दी अखबारों की दुश्वारियां बाजारवाद से कहीं अधिक उसकी मोनोपॉली है। आज हिन्दी समाचार पत्र इजारेदारी की गिरफ्त में हैं। पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी अखबार अपनी मर्यादा रेखा भूल रहे हैं। हिन्दी समाचार पत्रों को अंग्रेजी समाचार पत्रों का अंधानुकरण करने की बजाय उन्हें अपने आपको निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे मूल्यों से बांधना चाहिए। ऐसा होने से बेशक समाचार सनसनीखेज नहीं होगा लेकिन हम तथ्यों के तोड़-मरोड़ और दूसरों के निजी जीवन में ताक-झांक से जरूर बच जाएंगे।
पत्रकारिता के भी सिद्धांत हैं। उसकी भी मर्यादा है। यदि हमने एक बार मर्यादा रेखा लांघी तो सच मानिए यह हमें बार-बार गलत करने को उकसायेगी। पत्रकारिता और मार्केटिंग के क्षेत्र में जमीन-आसमान का फर्क है। मार्केटिंग का एक ही सिद्धांत है कि बाजार पर छा जाओ और किसी चीज को इस तरह पेश करो कि व्यक्ति ललचा जाए। ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मंत्र है लेकिन पत्रकारिता का मूलमंत्र है किसी छिपी हुई बात को समाज के समाने लाना। यह मंत्र बाजारवाद के मंत्र के बिल्कुल विपरीत है। विज्ञापन का मंत्र झूठ बात को सच बनाना है जबकि पत्रकारिता का उद्देश्य सच को सामने लाना होता है। अफसोस, बदलते दौर में सच पर झूठ हावी है। मॉर्केटिंग को पत्रकारिता पर तरजीह की मुख्य वजह पैसा है। पैसे की वजह से ही प्रतिभाएं पत्रकारिता की बजाय मार्केटिंग में हाथ आजमाना बेहतर समझती हैं।
आज लोगों की शिकायत है कि समाचार पत्र जमीनी समस्याओं से बेखबर हैं। लोगों की इस शिकायत को हम सिरे से खारिज भी नहीं कर सकते। अखबार अपने मूल्यों से इतर यदि जन समस्याओं की तह पर जाएं तो उनमें संजीदगी आएगी। आज जगह-जगह पत्रकारिता की दुकानें खुली हैं। प्रशिक्षु पत्रकारों को पत्रकारिता की गूढ़ बातें समझाने की बजाय उन्हें शॉर्टकट रास्ते बताये जाते हैं। यह छात्र-छात्राएं पत्रकारिता की डिग्री तो हासिल कर लेते हैं लेकिन उन्हें पत्रकारिता के मूल्य-मर्यादाओं का अहसास तक नहीं होता। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आने वाले समय में हो सकता है अखबार न रहें, पर पत्रकारिता जरूर रहेगी। कालखण्ड कोई भी रहा हो सूचना की जरूरत हमेशा रही है। सूचना और समाचार चटपटी चाट नहीं, इस बात का भान हमारे समाज को भी होना चाहिए।
पत्रकारिता से ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। पत्रकारिता को लेकर आज जो उंगलियां उठ रही हैं, वे मिथ्या नहीं हैं। हमें पत्रकारिता को मजबूती देने के लिए समाचारों की गुणवत्ता पर ध्यान देने के साथ ही उसे सामान्य पाठक के समझने लायक बनाना भी जरूरी है। पाखण्ड से हम लम्बे समय तक पाठक को दिग्भ्रमित नहीं कर सकते। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते समय पाठक से दुनिया भर की बातें कहते हैं, पर अखबार बनाते वक्त सामाजिक सरोकारों को तरजीह नहीं दी जाती। पाठक को एक ऐसे समाचार पत्र की जरूरत होती जिसमें सार्थक समाचारों का समावेश हो। बिकने लायक सार्थक और दमदार समाचार बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की भी जरूरत होती है जोकि हम नहीं करना चाहते या यूं कहें नहीं कर पाते। उसूलों की अनदेखी हिन्दी पत्रकारिता के लिए घातक है। मीडिया में हो रहा बदलाव इस बात की इजाजत नहीं देता कि हम जो चाहें सो लिखें।
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