अब अरुणा शानबाग इस दुनिया में नहीं है। हां, वही अरुणा जो अपने सहकर्मी की यौन प्रताड़ना का शिकार होने से बचने के लिए उसके गुस्से का इस कदर शिकार हुई कि पूरे 42 साल हर रोज मरती रही, फिर भी जिंदा रही। महिला प्रताड़ना की शिकार शायद अरुणा ही वह अकेली जिंदा लाश थी जो 23 नवंबर, 1973 यानी लगातार 42 वर्षो से एक बिस्तर पर सिमटी रही। सचमुच किसी कहानी के जैसे हैं अरुणा की हकीकत, लेकिन सच्चाई यही है कि यह कहानी नहीं, हकीकत है। इस देश में न जाने कितनी अरुणा और कितनी निर्भया यूं ही क्रूर वहशियों के हवस का शिकार होती रहेंगी या बचने के लिए तिल-तिल कर मरती रहेंगी, इसका जवाब नित नई इंसानी सभ्यता से विकसित होने वाली दुनिया में किसी के पास नहीं है। अब जरूरत है ऐसे मामलों में कठोर कानून और त्वरित फैसले की।
कर्नाटक के शिमोगा जिले की हल्दीपुर की रहने वाली 18 साल की अरुणा एक सेवा भाव के साथ मुंबई के जाने माने केईएम अस्पताल में बतौर जूनियर नर्स का काम करने 1966 में आई थी। जब वह 24 वर्ष की हुई तो उसकी शादी एक डॉक्टर से तय हो गई।
समय की पाबंद, काम में ईमानदार, वफादार अरुणा को केईएम अस्पताल की डॉग रिसर्च लेबोरेटरी में काम करते हुए पता चला कि वार्ड ब्यॉय सोहनलाल बाल्मीक कुत्तों के लिए लाए जाने वाले मटन की चोरी करता है। इसे लेकर उसकी सोहन से काफी कहा सुनी हुई और अरुणा ने इसकी शिकायत अस्पताल प्रबंधन से कर दी। तभी से सोहन उससे रंजिश रखने लगा और बदला लेने यौन हिंसा की फिराक में था।
मौका लगते ही सोहन ने 27 नवंबर 1973 को उस पर हमला किया और कुत्तों को बांधे जाने वाली चेन से गलाघोंटकर मारने की कोशिश भी की। इससे अरुणा के मस्तिष्क तक ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाई और पूरा शरीर सुन्न पड़ गया। अरुणा को बेहोश देख वहशी सोहन ने बलात्कार की कोशिश भी की। यह बात 28 नवंबर 1973 को सामने आई, जब एक सफाईकर्मी ने उसे खून से लथपथ बेहोश पाया। इस घटना के बाद अरुणा जो नीम बेहोशी में गई, वह 18 मई को उसकी चिरनिद्रा बन गई।
केईएम अस्पताल प्रबंधन ने इंसानियत की जो मिसाल कायम की, वह जरूर काबिले तारीफ है। रिश्तेदारों ने भी उससे नाता तोड़ लिया और इन 42 वर्षो में न कोई मिलने आया न किसी ने कोई खोज, खबर ही ली। बस अस्पताल में नर्स और स्टाफ ही उसकी सेवा, परिवार के सदस्य की तरह करते थे। किसी के लिए वो ताई थी तो किसी के लिए मां तो किसी की बड़ी बहन।
अरुणा के लिए उसकी सहेली पत्रकार पिंकी वीरानी ने तकलीफों का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट में 18 दिसंबर 2009 को एक अपील दाखिल की और प्रार्थना की कि उसे नीम बेहोशी की हालत में 36 साल हो गए हैं, अत: इच्छा मृत्यु दे दी जाए।
कोर्ट ने एक स्वास्थ दल गठित किया, उसकी रिपोर्ट आई और 7 मार्च 2011 को अपील तो खारिज कर दी लेकिन 'पैसिव यूथेनेशिया' के पक्ष में फैसला जरूर दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक्टिव यूथेनेसिया गैरकानूनी है। असामान्य परिस्थितियों में पैसिव मर्सी यूथेनेसिया की इजाजत दी जा सकती है।
एक्टिव यूथेनेसिया में गंभीर बीमार मरीज को मौत का इंजेक्शन दिया जाता जबकि पैसिव यूथेनेसिया में लाइफ सपोर्ट सिस्टम धीरे-धीरे हटा लिए जाते हैं। साक्ष्य, हालात और चिकित्सा के मद्देनजर माना गया कि अरुणा को इच्छा मृत्यु की जरूरत नहीं है। यह भी कहा कि इच्छा मृत्यु से जुड़ा कोई कानून नहीं है अत: असामान्य परिस्थियों में ही पैसिव यूथेनेसिया दिया जा सकता है।
अरुणा मस्तिष्कीय रूप से मरकर भी जिंदा रही। बाद में पिंकी वीरानी ने अरुणा पर एक किताब भी लिखी 'अरुणाज स्टोरी' इसमें उसकी पूरी कहानी को बयां किया। दत्त कुमार देसाई ने भी उस पर मराठी में एक नाटक 'कथा अरुणाची' लिखा, जिसका जाने माने रंगकर्मी विनय आप्टे के निर्देशन में सन् 2002 में मंचन भी किया गया। अरुणा की करुणा समाज में चर्चा का विषय बनी, लेकिन बस चर्चाओं तक ही।
घटना के बाद अरुणा के आरोपी सोहन पर हत्या का प्रयास, बलात्कार और कान की बाली छीनने का मुकदमा चला, बलात्कार साबित नहीं हो पाया सो उसे सात साल की सजा हुई, जिसे मजे से काटकर वो बाहर निकल आया। सबको पता था सोहन का अपराध क्या था, परिस्थितियां भी चीख-चीखकर कह रही थीं, जब सोहन पर फैसला सुनाया जा रहा था तब भी अरुणा बेसुध अस्पताल में पड़ी थी।
यकीनन, फैसला कानून के हद में आना था और आया भी। सोहन का गुनाह इतना ही साबित हो पाया कि मुजरिम जरूर है लेकिन हत्या के प्रयास का, उसे चोट पहुंचाने का और बालियां छीनने का। 1974 में इन्हीं जुर्मों में 7 साल की सजा दी गई।
विडंबना देखिए, फैसला सुनाते वक्त भी अरुणा बेहोश थी। सजा पूरी करके सोहन बाहर आया तब भी अरुणा बेहोश थी और अब जब 42 साल बाद अरुणा की मृत्यु हो गई है तो कानून फिर जागेगा, धाराएं बदल जाएंगी यानी अब सोहन हत्या का मुजरिम होगा। नए सिरे से हत्या का मुकदमा चलेगा।
पता नहीं, सोहन कहां है, जिंदा है भी या नहीं? अपराध घटित करते वक्त करीब-करीब अरुणा का हमउम्र रहे सोहन की उम्र भी अब 65-70 साल की हो गई होगी। ऐसी ही एक दूसरी विडंबना भी, निर्भया मामले में नाबालिग आरोपी को समान अपराध का दोषी होने के बावजूद विहित कानून के अनुसार नरमी बरतते हुए सजा दी गई।
जनमानस का विश्वास तो न्याय की तुला पर है, लेकिन सवाल फिर भी न्याय प्रणाली और विहित कानूनों पर है। 42 साल पहले यौन हिंसा और शारीरिक उत्पीड़न की शिकार अरुणा मौत के वक्त यानी 18 मई 2015 को करीब 67 साल की थी। अरुणा की कहानी में दामिनी (निर्भया) से कम मार्मिक करुणा नहीं है।
सवाल एक ही, क्या दोनों को न्याय मिला? उत्तर है- हां मिला। कानून की ²ष्टि से जरूर मिला। घटना के बाद की स्थितियां, अरुणा की नीम बेहोशी, हमेशा के लिए सुध बुध खो बिस्तर पर जिंदा लाश की माफिक सिमट जाना, न बोल पाना, न सुन पाना, न कुछ समझ पाना, चलना फिरना तो दूर की बात रही। कानून के तकाजे में इसका दंड भले ही कुछ भी हो, लेकिन इंसानियत के तकाजे में इसे न्याय कहेंगे या अन्याय पता नहीं!
क्या लगता नहीं है कि ऐसे कानूनों को बदलना, समय के साथ अपरिहार्य हो गया है? अपराध की जघन्यता, अपराधी की मंशा, प्रताड़ित की प्रताड़ना का हिसाब-किताब हो, न कि धाराओं में सिमटा कानून 42 साल तक अरुणा को कोमा में पहुंचा चुके अपराधी को महज 7 साल की सजा दे और नाबालिग की बिना पर दामिनी का एक दोषी सजा में नरमीं का हकदार हो जाए।
समय की पाबंद, काम में ईमानदार, वफादार अरुणा को केईएम अस्पताल की डॉग रिसर्च लेबोरेटरी में काम करते हुए पता चला कि वार्ड ब्यॉय सोहनलाल बाल्मीक कुत्तों के लिए लाए जाने वाले मटन की चोरी करता है। इसे लेकर उसकी सोहन से काफी कहा सुनी हुई और अरुणा ने इसकी शिकायत अस्पताल प्रबंधन से कर दी। तभी से सोहन उससे रंजिश रखने लगा और बदला लेने यौन हिंसा की फिराक में था।
मौका लगते ही सोहन ने 27 नवंबर 1973 को उस पर हमला किया और कुत्तों को बांधे जाने वाली चेन से गलाघोंटकर मारने की कोशिश भी की। इससे अरुणा के मस्तिष्क तक ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाई और पूरा शरीर सुन्न पड़ गया। अरुणा को बेहोश देख वहशी सोहन ने बलात्कार की कोशिश भी की। यह बात 28 नवंबर 1973 को सामने आई, जब एक सफाईकर्मी ने उसे खून से लथपथ बेहोश पाया। इस घटना के बाद अरुणा जो नीम बेहोशी में गई, वह 18 मई को उसकी चिरनिद्रा बन गई।
केईएम अस्पताल प्रबंधन ने इंसानियत की जो मिसाल कायम की, वह जरूर काबिले तारीफ है। रिश्तेदारों ने भी उससे नाता तोड़ लिया और इन 42 वर्षो में न कोई मिलने आया न किसी ने कोई खोज, खबर ही ली। बस अस्पताल में नर्स और स्टाफ ही उसकी सेवा, परिवार के सदस्य की तरह करते थे। किसी के लिए वो ताई थी तो किसी के लिए मां तो किसी की बड़ी बहन।
अरुणा के लिए उसकी सहेली पत्रकार पिंकी वीरानी ने तकलीफों का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट में 18 दिसंबर 2009 को एक अपील दाखिल की और प्रार्थना की कि उसे नीम बेहोशी की हालत में 36 साल हो गए हैं, अत: इच्छा मृत्यु दे दी जाए।
कोर्ट ने एक स्वास्थ दल गठित किया, उसकी रिपोर्ट आई और 7 मार्च 2011 को अपील तो खारिज कर दी लेकिन 'पैसिव यूथेनेशिया' के पक्ष में फैसला जरूर दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक्टिव यूथेनेसिया गैरकानूनी है। असामान्य परिस्थितियों में पैसिव मर्सी यूथेनेसिया की इजाजत दी जा सकती है।
एक्टिव यूथेनेसिया में गंभीर बीमार मरीज को मौत का इंजेक्शन दिया जाता जबकि पैसिव यूथेनेसिया में लाइफ सपोर्ट सिस्टम धीरे-धीरे हटा लिए जाते हैं। साक्ष्य, हालात और चिकित्सा के मद्देनजर माना गया कि अरुणा को इच्छा मृत्यु की जरूरत नहीं है। यह भी कहा कि इच्छा मृत्यु से जुड़ा कोई कानून नहीं है अत: असामान्य परिस्थियों में ही पैसिव यूथेनेसिया दिया जा सकता है।
अरुणा मस्तिष्कीय रूप से मरकर भी जिंदा रही। बाद में पिंकी वीरानी ने अरुणा पर एक किताब भी लिखी 'अरुणाज स्टोरी' इसमें उसकी पूरी कहानी को बयां किया। दत्त कुमार देसाई ने भी उस पर मराठी में एक नाटक 'कथा अरुणाची' लिखा, जिसका जाने माने रंगकर्मी विनय आप्टे के निर्देशन में सन् 2002 में मंचन भी किया गया। अरुणा की करुणा समाज में चर्चा का विषय बनी, लेकिन बस चर्चाओं तक ही।
घटना के बाद अरुणा के आरोपी सोहन पर हत्या का प्रयास, बलात्कार और कान की बाली छीनने का मुकदमा चला, बलात्कार साबित नहीं हो पाया सो उसे सात साल की सजा हुई, जिसे मजे से काटकर वो बाहर निकल आया। सबको पता था सोहन का अपराध क्या था, परिस्थितियां भी चीख-चीखकर कह रही थीं, जब सोहन पर फैसला सुनाया जा रहा था तब भी अरुणा बेसुध अस्पताल में पड़ी थी।
यकीनन, फैसला कानून के हद में आना था और आया भी। सोहन का गुनाह इतना ही साबित हो पाया कि मुजरिम जरूर है लेकिन हत्या के प्रयास का, उसे चोट पहुंचाने का और बालियां छीनने का। 1974 में इन्हीं जुर्मों में 7 साल की सजा दी गई।
विडंबना देखिए, फैसला सुनाते वक्त भी अरुणा बेहोश थी। सजा पूरी करके सोहन बाहर आया तब भी अरुणा बेहोश थी और अब जब 42 साल बाद अरुणा की मृत्यु हो गई है तो कानून फिर जागेगा, धाराएं बदल जाएंगी यानी अब सोहन हत्या का मुजरिम होगा। नए सिरे से हत्या का मुकदमा चलेगा।
पता नहीं, सोहन कहां है, जिंदा है भी या नहीं? अपराध घटित करते वक्त करीब-करीब अरुणा का हमउम्र रहे सोहन की उम्र भी अब 65-70 साल की हो गई होगी। ऐसी ही एक दूसरी विडंबना भी, निर्भया मामले में नाबालिग आरोपी को समान अपराध का दोषी होने के बावजूद विहित कानून के अनुसार नरमी बरतते हुए सजा दी गई।
जनमानस का विश्वास तो न्याय की तुला पर है, लेकिन सवाल फिर भी न्याय प्रणाली और विहित कानूनों पर है। 42 साल पहले यौन हिंसा और शारीरिक उत्पीड़न की शिकार अरुणा मौत के वक्त यानी 18 मई 2015 को करीब 67 साल की थी। अरुणा की कहानी में दामिनी (निर्भया) से कम मार्मिक करुणा नहीं है।
सवाल एक ही, क्या दोनों को न्याय मिला? उत्तर है- हां मिला। कानून की ²ष्टि से जरूर मिला। घटना के बाद की स्थितियां, अरुणा की नीम बेहोशी, हमेशा के लिए सुध बुध खो बिस्तर पर जिंदा लाश की माफिक सिमट जाना, न बोल पाना, न सुन पाना, न कुछ समझ पाना, चलना फिरना तो दूर की बात रही। कानून के तकाजे में इसका दंड भले ही कुछ भी हो, लेकिन इंसानियत के तकाजे में इसे न्याय कहेंगे या अन्याय पता नहीं!
क्या लगता नहीं है कि ऐसे कानूनों को बदलना, समय के साथ अपरिहार्य हो गया है? अपराध की जघन्यता, अपराधी की मंशा, प्रताड़ित की प्रताड़ना का हिसाब-किताब हो, न कि धाराओं में सिमटा कानून 42 साल तक अरुणा को कोमा में पहुंचा चुके अपराधी को महज 7 साल की सजा दे और नाबालिग की बिना पर दामिनी का एक दोषी सजा में नरमीं का हकदार हो जाए।
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