पिछले माह ‘आप’ की सभा में दौसा निवासी गजेन्द्र सिंह पेड़ पर चढ़े, फांसी का उपक्रम हुआ और लोकतंत्र के मुँह पर एक और करारा तमाचा लग गया। जिस पर नेताओं ने जो बयानबाजी की वह न केवल शर्मनाक थी बल्कि रैलियों की भीड़ और प्रायोजित घटनाक्रम की पोल खोलने के लिए पर्याप्त थी। शायद हमारे राजनेता यह मान बैठे हैं कि जनता केवल मदारी का खेल देखना चाहती है। यह कोरे आश्वासन, भड़काऊ नारे और बड़ी-बड़ी बातें एक वर्ग विशेष के लिए सच भी हों किन्तु देश की अधिकांश जनता इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातें करने वालों को ‘जोकर’ से ज्यादा महत्व नहीं देती। यही कारण है कि आज युवा ‘यू-टर्न’ को ‘केजरीवाल’ कहना पसन्द करते हैं।
मजेदार बात जो यह है कि हमारे देश में आरोप सिद्ध हुये बिना जन-सामान्य को तो आरोपी मान लिया जाता है लेकिन पिछले दिनों यह हास्यास्पद सर्कुलर दिल्ली प्रदेश सरकार द्वारा जारी कर दिया गया कि बिना कोर्ट का निर्णय आये उनके मंत्रियों की पोल न खोली जाये। अजीब तानाशाही है। प्रजातंत्र भी शायद अब दो तरह का होगा आम जनता के लिए कुछ एवं माननीयों के लिए कुछ। एक और बानगी देखिये, किसी भी नौकरी में यदि कोई व्यक्ति अवकाश पर जाता है तो उसे अवकाश की अवधि, कारण आदि का ब्यौरा जाने से पूर्व देना पड़ता है लेकिन कांग्रेस जैसे विशाल और देश के सबसे प्राचीन दल के उपाध्यक्ष पूरे 57 दिन के लिए अज्ञातवास पर चले जाते हैं, वह भी ऐसे समय पर जब संसद चल रही थी, भूमि अधिग्रहण बिल पर बात हो रही थी, लेकिन उनके लिए कोई ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी नहीं होता जबकि सांसदों को वेतन भत्ते, आवास और अन्यान्य सुविधायें मिलती हैं। ये सारी सुविधायें उन्हें संसद में जाने के एवज में मिलती हैं न कि मनचाहे बयान देने, अपरिपक्व सोच का परिचय देने और ‘मेरी मर्जी’ वाला व्यवहार करने के लिए। कांग्रेस उपाध्यक्ष ने ‘सूट-बूट वाली सरकार’ कहकर संसद की गरिमा भंग की। ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब इस प्रकार की अमर्यादित, अतार्किक और अभद्र भाषा का प्रयोग हुआ हो। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में तमाम ज्वलंत और गम्भीर मुद्दों के होने के बावजूद नेता इस प्रकार की बचकानी बातें कर रहे हैं। भूमि अधिग्रहण बिल पर सार्थक बहस होने, किसानों की समस्याओं को दूर करने, नवीन शिक्षा नीति का निर्धारण करने के स्थान पर ओछी बयानबाजी की जा रही है, जबकि भूमि अधिग्रहण बिल स्वयं कांग्रेस का दिया हुआ है किन्तु फिर भी कांग्रेस ही उसे किसान विरोधी बता रही है। क्या 2013 के बिल में कोई ऐसी विशेषता थी जो 2015 में गायब हो गयी? यदि गायब भी हो गयी तो पार्टियों को मिलकर उसका समाधान करना चाहिए। ‘हमारा खून खून, तुम्हारा खून पानी’ वाली मानसिकता पार्टियों को छोड़नी होगी और दलगत संकीर्णता को छोड़कर देश का स्तर उठाने के लिए सम्मिलित प्रयास करने होंगे। स्पष्ट है कि आज नेताओं का उद्देश्य देश का विकास न होकर स्वयं को मसीहा सिद्ध करना रह गया है। जनता के गाढेÞ पसीने से हजारों करोड़ की बनने वाली योजनायें ठण्डे बस्ते में मात्र इसलिए डाल दी जाती हैं क्योंकि वे विरोधी दल ने शुरू की थीं। इससे नेताओं को तो कोई हानि नहीं होती किन्तु देश विकास के पथ पर काफी पीछे चला जाता है। भूमि अधिग्रहण बिल के लोकसभा में पास होने के बाद अब उसे सड़कों पर रोकने की तैयारी हो रही है। यह उद्घोषणा यह बताने के लिए पर्याप्त है कि आज राजनीति मुद्दों पर न होकर ठलुओं की बेगार हो गयी है या कहें कि नटों की पंचायत हो गई है जो रोज सिर्फ यही सोचते हैं कि क्या करके भीड़ जुटायी जाये? हास्यास्पद तर्क है कि जब लोकसभा में बिल पास हो ही गया है तो फिर सड़कों पर विरोध करके कौन सा तीर मार लेंगे? लगभग यही हाल ‘अमेठी फूड पार्क’ पर हुआ। जब तक स्वयं सत्ता में रहे फूड पार्क की सुध न आयी। अब बजाय सीधे फूड पार्क बनवाने की कहने के आंदोलन की चेतावनी दी जा रही है, भड़काऊ बयानबाजी की जा रही है। कारण साफ है समस्या सुलझाने से ज्यादा आज उलझाने का प्रयास किया जा रहा है। समस्या जितनी उलझेंगी, राजनीति उतनी चमकेगी। गत् दिवस टेलीविजन पर शंघाई का विकास दिखाया जा रहा था। स्वाभाविक है कि वहां भी कभी झोपड़-पट्टी रही होंगी लेकिन अब वह शहर जाम के झाम से कोसों दूर ऊंची इमारतों और फ्लाई ओवरों के लिए जाना जाता है। हमारे देश में आलम यह है कि अगर कोई परिवर्तन लाना चाहे तो उससे पहले तमाम पार्टियां खड़ी हो जाती हैं और फाइव स्टार एक्टिविस्ट की पूरी फौज खड़ी हो जाती है। आज देखा जाये तो नेताओं से ज्यादा बड़ी समस्या ये फाइव स्टार एक्टिविस्ट बन चुके हैं जो होते तो राजनीतिक दलों द्वारा प्रायोजित हैं किन्तु हर परिवर्तन के विरोध में झण्डाबरदारी करके वे अपने चेहरे तो चमका लेते हैं लेकिन इस देश में आने वाले सकारात्मक परिवर्तन को कोसों दूर धकेल देते हैं। वस्तुत: दिल्ली में जब मैट्रो सेवा शुरू की गयी तो काफी समय तक दिल्लीवासियों ने तमाम तरह की मुश्किलें झेलीं लेकिन परिणाम चौकाने वाले रहे। दिल्ली मैट्रो के परिणाम से उत्साहित हो अब तमाम शहरों में मैट्रो सेवा शुरू करने की योजना बन रही है, किन्तु यह तो तय है कि जिस भी शहर में मैट्रो सेवा के लिए योजना बनेगी वहां पर्यावरण और झुग्गी-झोपड़ियों की चिन्ता करने वालों की फौज को कई महीनों के लिए काम मिल जायेगा।
काफी समय पहले एक बयान आया था कि भारत की समस्यायें यहां के नेता हैं। यदि इसे यूँ कहें कि यहाँ की समस्या नेता नहीं मानसिकता है तो गलत न होगा वरना जनता के धन से ऊंचा वेतन, शानदार बंगला, वी़आई़ पी़ सुरक्षा, अन्यान्य मुफ्त सुविधायें और सबसे ऊपर अति विशिष्ट होने का अहसास पाने वाले ये नेता राजनीति के नाम पर देश को संसद में शर्मसार न करते, ‘पुलिस को भीतर कर दो, इतने घण्टों में अन्य धर्मों के लोगों से देश खाली करा देंगे’ जैसे बेहूदे बयान न देते और महिलाओं की देहयष्टि और रंगरूप पर सत्तामद में अशोभनीय टिप्पणियां न करते। मुद्दों से पूरी तरह भटक कर वर्तमान राजनीति मात्र धक्का-मुक्की के दलदल में उतर तो गयी है किन्तु तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत देने वाली जनता को मूर्ख बनाने के प्रयत्न यदि बंद नहीं हुये तो इन नेताओं को अगली त्रिशंकु सरकार के लिए तैयार रहना चाहिए। उस स्थिति में शायद कुछ दलों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है।
डॉ. दीपिका उपाध्याय मोबाइल-9897248216, 9456694900
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