छह साल, अरबों खर्च फिर भी मुल्क की आवाम को दिया जाने वाला विशिष्ट पहचान पत्र सवालों में है। आज आधार कार्ड को लेकर हमारी हुकूमतें गरीबों को डरा रही हैं। सरकारी दफ्तरों में बिना आधार कार्ड के कोई काम नहीं हो रहा। लोगों की इस परेशानी को उच्चतम न्यायालय ने संज्ञान में लिया है और सरकार को ताकीद किया है कि वह अपने तंत्र की तंज कसे ताकि कोई परेशान न हो। न्याय के मंदिर से दूसरी बार सरकार को फटकार लगी है। मुल्क में विशिष्ट पहचान पत्र ही नहीं कई ऐसी योजनाएं हैं जिनके कारगर क्रियान्वयन की परवाह किसी को नहीं है। सरकारें आनन-फानन में योजनाएं तो बनाती हैं लेकिन वे मकसद पूरा करने से पहले ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। जिस आधार कार्ड को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारें जमीन-आसमान एक कर रही हैं, उसमें गरीबों से कहीं बड़ा हित हुकूमतों का छिपा है। आम आदमी के लिए आधार कार्ड पाना आसान बात नहीं है।
आधार कार्ड की महत्ता पर हमारा शासकीय तंत्र लाख बातें करे पर इसके अंदरखाने का सच बड़ा डरावना है। देश में जनवरी 2009 में पहली बार विशेष पहचान प्राधिकरण की स्थापना हुई और जुलाई 2009 में नंदन निलेकणी को इसका प्रमुख बना दिया गया। इस योजना का मकसद लोगों को एक स्थाई पहचान पत्र देने के साथ ही शासकीय सुविधाओं में पारदर्शिता लाना था। पहचान प्राधिकरण ने बेशक इसकी अनिवार्यता पर ढुल-मुल रवैया अपनाया हो पर दूसरे विभागों ने अपनी योजनाओं का लाभ देने की शर्त थोपकर बड़े भ्रष्टाचार की जमीन जरूर तैयार कर ली। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से अपनी आवाम को बैंकिंग सुविधा देने की मंशा क्या जाहिर की मुल्क में विशिष्ट पहचान पत्र को पुन: पंख लग गये। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, जनधन योजना और राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के खातों के लिए आधार कार्ड तो जरूरी हुआ ही पेट्रोलियम मंत्रालय ने भी उन्हीं उपभोक्ताओं को सब्सिडी देने की बात कही जिनके खाते आधार क्रमांक से जुड़े हों।
आज जिस निराधार आधार कार्ड को लेकर तमाशा हो रहा है उसकी बुनियाद कांग्रेस के शासन में डली थी। वर्ष 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नेशनल आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी आॅफ इंडिया विधेयक राज्यसभा में पेश किया था। इस विधेयक को वित्त विभाग की संसदीय स्थाई समिति ने तो खारिज कर दिया पर प्राधिकरण को कोई फर्क नहीं पड़ा। वर्ष 2009-10 में इसके लिए 120 करोड़ रुपए के बजट का प्रावधान था, जो 2010-11 में बढ़कर 1900 करोड़ हो गया। दिसम्बर 2012 तक ही प्राधिकरण ने 2300.56 करोड़ रुपए पानी की तरह बहा दिए। बिना विभाग और बिना किसी कानूनी प्रावधान के चल रहे इस प्राधिकरण को जो विशिष्ट पहचान का काम सौंपा गया है उस पर देश का लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपए तक खर्च होने का अनुमान है। विशिष्ट पहचान पत्र के लिए आंखों की पुतली और सभी उंगलियों के निशान लिए जाते हैं और तर्क दिया जाता है कि इससे पारदर्शिता आएगी, कोई बेईमानी नहीं कर सकेगा। अब सवाल यह उठता है कि इस नियम से देश के डेढ़ करोड़ कुपोषण जनित मोतियाबिन्द पीड़ितों और लगभग 17 करोड़ मजदूरों के निशान कैसे लिए जाएंगे, लिए भी गये तो उसकी गारण्टी क्या होगी?
प्राधिकरण यह तर्क देता है कि देश में करोड़ों लोगों के पास स्थाई पते और फोटो लगे पहचान पत्र नहीं हैं, आधार इस कमी को पूरा कर देगा। सवाल यह है कि पहचान के लिए ऐसे चिह्न लिए जाने की क्या जरूरत है जो मूलत: अपराधियों की निगरानी के लिए लिए जाते हैं। आधार प्राधिकरण का यह तर्क कि ये दोनों निशान कभी नहीं बदलते जबकि वैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि तीन से पांच साल में आंखों की पुतलियां तथा पांच साल बाद उंगलियों के निशान बदल जाते हैं। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि इस पूरी कवायद का आखिर मकसद क्या है? सच यह है कि भारत सरकार का मकसद लोगों को पहचान पत्र देना नहीं बल्कि उनकी निगरानी के लिए एक डाटा बेस तैयार करना है। दरअसल, आधार कार्ड के नाम पर देश के गरीबों को इसलिए भयाक्रांत किया जा रहा है ताकि वे आधार की अदालत में अपराधी की तरह खड़े हों और हमेशा के लिए अपनी निजी नागरिक स्वतंत्रता राज्य के निगरानी तंत्र के सुपुर्द कर दें।
आधार के विस्तार के लिए यह प्रचारित किया जा रहा है कि इससे गरीबों और झुग्गीवासियों के बैंक खाते खुलेंगे और उन्हें आवास-फोटो सहित पहचान पत्र मिल सकेगा, जबकि वास्तविकता यह है कि आवेदकों को आधार पंजीयन के लिए अपना निवास और फोटो पहचान पत्र देना होता है। देश में अब तक हुए आधार पंजीयन में ऐसा कोई नहीं है जिसका पंजीयन बिना प्रमाण पत्रों के हुआ हो। प्राधिकरण यह मानकर चल रहा है कि जैविक पहचान चिह्न किसी एक व्यक्ति की खास और विशेष पहचान को सुनिश्चित करते हैं यानी एक चिह्न का दुनिया में एक ही व्यक्ति होगा। अमेरिकी सुरक्षा एजेंसी (सीआईए) और अमेरिकी नेशनल रिसर्च कौंसिल का अध्ययन बताता है कि बायोमेट्रिक चिह्न प्राकृतिक रूप से बदलते रहते हैं। इस चिह्न पर आधारित तकनीक छोटे स्तर पर तो काम कर सकती है पर इनका बड़े स्तर पर उपयोग बड़ी समस्या को जन्म दे सकता है। यह पूरी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक रूप में उपलब्ध रहेगी, जिसकी सुरक्षा करना जहां कठिन होगा वहीं हमारी निजी जानकारियां भी गोपनीय नहीं रह पाएंगी।
आधार योजना की सोच को राहुल गांधी ने सूचना क्रान्ति के बाद की दूसरी क्रान्ति का नाम दिया था और कांग्रेस ने आपका पैसा आपके हाथ के नारे के साथ 15 दिसम्बर, 2012 को दिल्ली में चार लाख लोगों को हर माह पेट भरने के लिए गेहूं, चावल, दाल, तेल, ईंधन खरीदने के लिए 600 रुपए देने की शुरूआत की थी और इसे एक जनवरी, 2013 से आधार आधारित नकद हस्तांतरण योजना में तब्दील कर दिया गया। यह चार लाख वे लोग हैं, जो गरीब तो हैं पर उन्हें गरीबी रेखा में शामिल नहीं किया गया। यूपीए सरकार के समय ही वित्तीय समावेशन के नाम पर यह अभियान शुरू हो गया था। आधार को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं हर सूबे का सूबेदार भी फिक्रमंद है। जनधन योजना पर अपनी पीठ थपथपाने वाली केन्द्र की मोदी सरकार शायद इस बात से अनजान है कि अधिकांश जनधन खातों में फूटी कौड़ी भी नहीं है। वित्तीय समावेशन की बातें करने वाले हुक्मरान बताएं कि क्या लोगों के खाते खुल जाने से बेरोजगारी दूर हो जाएगी या तमाम बीपीएल परिवार गरीबी रेखा से ऊपर आ जाएंगे? कोई भी योजना हो जब तक उसमें खामी होगी, वह कभी फलीभूत नहीं हो सकती।
आधार कार्ड की महत्ता पर हमारा शासकीय तंत्र लाख बातें करे पर इसके अंदरखाने का सच बड़ा डरावना है। देश में जनवरी 2009 में पहली बार विशेष पहचान प्राधिकरण की स्थापना हुई और जुलाई 2009 में नंदन निलेकणी को इसका प्रमुख बना दिया गया। इस योजना का मकसद लोगों को एक स्थाई पहचान पत्र देने के साथ ही शासकीय सुविधाओं में पारदर्शिता लाना था। पहचान प्राधिकरण ने बेशक इसकी अनिवार्यता पर ढुल-मुल रवैया अपनाया हो पर दूसरे विभागों ने अपनी योजनाओं का लाभ देने की शर्त थोपकर बड़े भ्रष्टाचार की जमीन जरूर तैयार कर ली। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से अपनी आवाम को बैंकिंग सुविधा देने की मंशा क्या जाहिर की मुल्क में विशिष्ट पहचान पत्र को पुन: पंख लग गये। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, जनधन योजना और राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के खातों के लिए आधार कार्ड तो जरूरी हुआ ही पेट्रोलियम मंत्रालय ने भी उन्हीं उपभोक्ताओं को सब्सिडी देने की बात कही जिनके खाते आधार क्रमांक से जुड़े हों।
आज जिस निराधार आधार कार्ड को लेकर तमाशा हो रहा है उसकी बुनियाद कांग्रेस के शासन में डली थी। वर्ष 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नेशनल आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी आॅफ इंडिया विधेयक राज्यसभा में पेश किया था। इस विधेयक को वित्त विभाग की संसदीय स्थाई समिति ने तो खारिज कर दिया पर प्राधिकरण को कोई फर्क नहीं पड़ा। वर्ष 2009-10 में इसके लिए 120 करोड़ रुपए के बजट का प्रावधान था, जो 2010-11 में बढ़कर 1900 करोड़ हो गया। दिसम्बर 2012 तक ही प्राधिकरण ने 2300.56 करोड़ रुपए पानी की तरह बहा दिए। बिना विभाग और बिना किसी कानूनी प्रावधान के चल रहे इस प्राधिकरण को जो विशिष्ट पहचान का काम सौंपा गया है उस पर देश का लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपए तक खर्च होने का अनुमान है। विशिष्ट पहचान पत्र के लिए आंखों की पुतली और सभी उंगलियों के निशान लिए जाते हैं और तर्क दिया जाता है कि इससे पारदर्शिता आएगी, कोई बेईमानी नहीं कर सकेगा। अब सवाल यह उठता है कि इस नियम से देश के डेढ़ करोड़ कुपोषण जनित मोतियाबिन्द पीड़ितों और लगभग 17 करोड़ मजदूरों के निशान कैसे लिए जाएंगे, लिए भी गये तो उसकी गारण्टी क्या होगी?
प्राधिकरण यह तर्क देता है कि देश में करोड़ों लोगों के पास स्थाई पते और फोटो लगे पहचान पत्र नहीं हैं, आधार इस कमी को पूरा कर देगा। सवाल यह है कि पहचान के लिए ऐसे चिह्न लिए जाने की क्या जरूरत है जो मूलत: अपराधियों की निगरानी के लिए लिए जाते हैं। आधार प्राधिकरण का यह तर्क कि ये दोनों निशान कभी नहीं बदलते जबकि वैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि तीन से पांच साल में आंखों की पुतलियां तथा पांच साल बाद उंगलियों के निशान बदल जाते हैं। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि इस पूरी कवायद का आखिर मकसद क्या है? सच यह है कि भारत सरकार का मकसद लोगों को पहचान पत्र देना नहीं बल्कि उनकी निगरानी के लिए एक डाटा बेस तैयार करना है। दरअसल, आधार कार्ड के नाम पर देश के गरीबों को इसलिए भयाक्रांत किया जा रहा है ताकि वे आधार की अदालत में अपराधी की तरह खड़े हों और हमेशा के लिए अपनी निजी नागरिक स्वतंत्रता राज्य के निगरानी तंत्र के सुपुर्द कर दें।
आधार के विस्तार के लिए यह प्रचारित किया जा रहा है कि इससे गरीबों और झुग्गीवासियों के बैंक खाते खुलेंगे और उन्हें आवास-फोटो सहित पहचान पत्र मिल सकेगा, जबकि वास्तविकता यह है कि आवेदकों को आधार पंजीयन के लिए अपना निवास और फोटो पहचान पत्र देना होता है। देश में अब तक हुए आधार पंजीयन में ऐसा कोई नहीं है जिसका पंजीयन बिना प्रमाण पत्रों के हुआ हो। प्राधिकरण यह मानकर चल रहा है कि जैविक पहचान चिह्न किसी एक व्यक्ति की खास और विशेष पहचान को सुनिश्चित करते हैं यानी एक चिह्न का दुनिया में एक ही व्यक्ति होगा। अमेरिकी सुरक्षा एजेंसी (सीआईए) और अमेरिकी नेशनल रिसर्च कौंसिल का अध्ययन बताता है कि बायोमेट्रिक चिह्न प्राकृतिक रूप से बदलते रहते हैं। इस चिह्न पर आधारित तकनीक छोटे स्तर पर तो काम कर सकती है पर इनका बड़े स्तर पर उपयोग बड़ी समस्या को जन्म दे सकता है। यह पूरी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक रूप में उपलब्ध रहेगी, जिसकी सुरक्षा करना जहां कठिन होगा वहीं हमारी निजी जानकारियां भी गोपनीय नहीं रह पाएंगी।
आधार योजना की सोच को राहुल गांधी ने सूचना क्रान्ति के बाद की दूसरी क्रान्ति का नाम दिया था और कांग्रेस ने आपका पैसा आपके हाथ के नारे के साथ 15 दिसम्बर, 2012 को दिल्ली में चार लाख लोगों को हर माह पेट भरने के लिए गेहूं, चावल, दाल, तेल, ईंधन खरीदने के लिए 600 रुपए देने की शुरूआत की थी और इसे एक जनवरी, 2013 से आधार आधारित नकद हस्तांतरण योजना में तब्दील कर दिया गया। यह चार लाख वे लोग हैं, जो गरीब तो हैं पर उन्हें गरीबी रेखा में शामिल नहीं किया गया। यूपीए सरकार के समय ही वित्तीय समावेशन के नाम पर यह अभियान शुरू हो गया था। आधार को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं हर सूबे का सूबेदार भी फिक्रमंद है। जनधन योजना पर अपनी पीठ थपथपाने वाली केन्द्र की मोदी सरकार शायद इस बात से अनजान है कि अधिकांश जनधन खातों में फूटी कौड़ी भी नहीं है। वित्तीय समावेशन की बातें करने वाले हुक्मरान बताएं कि क्या लोगों के खाते खुल जाने से बेरोजगारी दूर हो जाएगी या तमाम बीपीएल परिवार गरीबी रेखा से ऊपर आ जाएंगे? कोई भी योजना हो जब तक उसमें खामी होगी, वह कभी फलीभूत नहीं हो सकती।
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