एक तरफ मुल्क का किसान दैवीय आपदा से परेशान है तो दूसरी तरफ दिल्ली में भूमि अधिग्रहण का बेसुरा राग अलापा जा रहा है। मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण मामले को नाक का सवाल मान बैठी है। बेहतर तो यह होता कि विपदा के समय सरकार किसानों के जख्मों पर मरहम लगाकर समस्या का स्थायी समाधान निकालती लेकिन वह उस जमीन के लिए जोर-आजमाइश कर रही है जोकि सबका जीवन है। किसानों को मुआवजा देने की कौन कहे अभी तो नुकसान के आकलन की प्रक्रिया भी सिरे नहीं चढ़ी। खेती-किसानी की जहां तक बात है, इस साल खरीफ की फसल कम बारिश से जहां प्रभावित हुई वहीं अब रबी की फसल पर खतरा मंडरा रहा है। यह मुल्क की आवाम के भरण-पोषण से जुड़ा गम्भीर मसला है, इस पर अभी से ध्यान नहीं दिया गया तो परिणाम भयावह हो सकते हैं।
दिल्ली में 24 फरवरी कोे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की जगह लाए गये संशोधन विधेयक पर सत्तापक्ष और विपक्ष में किसानों की रहनुमाई का जो स्वांग चल रहा है उस पर सरकार ने लोकसभा में बेशक फतह हासिल कर ली हो पर राज्यसभा में उसे मुंह की खानी पड़ सकती है। नरेन्द्र मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का जो सब्जबाग दिखाया था, सत्ता में आते ही उनकी चाल-ढाल बदली-बदली सी नजर आती है। यह सच है कि आजादी के 66 साल बाद किसानों-आदिवासियों के राजनीतिक-सामाजिक संगठनों और जागरूक नागरिक समाज के सतत प्रयासों से अंग्रेजों के जमाने का भूमि अधिग्रहण अधिनियम (1894) पिछली सरकार के समय संशोधित किया गया। ब्रिटिश कम्पनियों के हितों को सिर-आंखों पर रखने वाला 1894 का वह कानून जमीन के असली मालिक किसान और आदिवासियों का पूर्णत: विरोधी था। मोदी सरकार ने जिस तरह हड़बड़ी में रातोंरात एक अध्यादेश लाकर 2013 के संशोधित भूमि अधिग्रहण अधिनियम को निष्प्रभावी किया है उससे उसकी कथनी और करनी का फर्क साफ पता चलता है।
कांग्रेस के कार्यकाल में सितम्बर 2013 में संसद में जो संशोधित भूमि अधिग्रहण अधिनियम पारित किया गया वह भी नितांत दोषमुक्तनहीं कहा जा सकता। उसमें भूमि के स्वामी किसानों, आदिवासियों के लिए समुचित मुआवजे का प्रावधान न होने के साथ ही ऐसे चोर दरवाजे थे जिनसे होकर सरकार अपनी चहेती निजी कम्पनियों को फायदा पहुंचा सकती थी। भूमि अधिग्रहण की जहां तक बात है, भारत में इस कानून की नींव फोर्ट विलियम हंटर ने 1824 में बंगाल प्रान्त में डाली थी, जिसकी सहायता से अचल सम्पत्तियों का अधिग्रहण सड़क, नहर और अन्य सुविधाओं के लिए किया गया था। मुल्क में जब रेल लाइनों के बिछाने की बात आई तो 1894 में इसमें व्यापक परिवर्तन किये गये। आजादी के साढ़े छह दशक तक केन्द्रीय एजेंसियां तथा राज्य सरकारों द्वारा अधिकृत कम्पनियां किसान आन्दोलनों को कुचलते हुए उनकी जमीनों पर अतिक्रमण करती रही हैं। 1978 में इसे तब और मजबूती मिली जब 44वें संविधान संशोधन के जरिये सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार की श्रेणी से निकाल दिया गया। इस संशोधन के बाद तो सरकार कभी भी, कहीं भी किसी की भी जमीन, भवन का अधिग्रहण करने की हकदार हो गई थी। गोरों के राज में सारी जमीन सरकार की थी। किसान बंधुआ था तो जमींदार बिचौलिया। आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन हुआ और जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों में बांटी गई। किसानों को पहली बार लगा कि हम भी भूमिधर हैं।
देश में भूमि अधिग्रहण की लड़ाई बहुत पुरानी है। अतीत में जमीन को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान भी सरकार से दो-दो हाथ कर चुके हैं। वर्ष 2004 में रिलायंस के दादरी प्रोजेक्ट के लिए जब किसानों को 2500 एकड़ जमीन पर कम मुआवजा दिया गया, तब पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व में आन्दोलन चला और इलाहाबाद हाईकोर्ट से किसानों को न्याय मिला। ममता बनर्जी भी कोलकाता के सिंगूर में टाटा के नैनो प्रोजेक्ट के खिलाफ सफल आन्दोलन चला चुकी हैं। बुन्देलखण्ड के बांदा जिले के धरती पुत्र भी जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे के बैनर तले महीनों आन्दोलन कर चुके हैं। अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखली के खिलाफ किसान अब आंदोलन न करें इसके लिए जरूरी है कि मोदी सरकार राजनीतिज्ञों से विचार-विमर्श की बजाय उन किसानों से बात करे जिनको सरकार से शिकायत है। सरकार को चाहिए कि वह भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व विकास परियोजना के कारण होने वाली सम्भावित क्षतियों का भी आकलन करे। मौजूदा भूमि अधिग्रहण विधेयक में मोदी सरकार ने बेशक नौ संशोधनों को स्वीकार कर लिया हो पर यह अध्यादेश मूल अधिनियम के उस प्रावधान की खुली अवहेलना है, जो उन लोगों को भी मुआवजे का हकदार बताता है, जो भूमि के वास्तविक मालिक तो नहीं होते लेकिन जिनकी आजीविका जमीन पर ही निर्भर है। इन समुदायों में खेतिहर मजदूर, बटाईदार किसान, आदिवासी, लोक कलाकार, ग्रामीण दस्तकारी पेशे से जुड़ी जातियां, मछुआरे और चरवाहे आदि शामिल हैं।
भूमि अधिग्रहण की बात करने से पहले मोदी सरकार को खाद्य सुरक्षा अधिनियम का भी अवलोकन करना चाहिए जिसमें यह निर्धारित था कि दो या दो से अधिक फसलें देने वाली उर्वरा भूमि को किसी भी सूरत में अधिग्रहीत नहीं किया जाए। मौजूदा अध्यादेश में इस प्रावधान का भी ख्याल नहीं रखा गया है। इस अध्यादेश में अधिग्रहीत भूमि को उपयोग में लेने की छूट-अवधि की मियाद भी बढ़ा दी गई है। प्राय: यह देखा गया है कि सरकारें और निजी कम्पनियां भूमि अधिग्रहण में तो हड़बड़ी दिखाती हैं, लेकिन अधिग्रहीत भूमि को लम्बे समय के लिए यूं ही खाली छोड़ देती हैं ताकि उसके बाजार मूल्य में कई गुना बढ़ोतरी हो सके और फिर कानूनी फेरबदल करके उस भूमि को ऊंची कीमत पर बेचा जा सके। अध्यादेश के पक्ष में यह कहा जा रहा है कि इससे भूमि अधिग्रहण की जटिल, लम्बी और थकाऊ प्रक्रिया आसान होगी, जिससे विकास परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाने में गति मिलेगी। सच्चाई तो यह है कि अधिनियम के विरोध और अध्यादेश के पक्ष में जो भी बातें कही-सुनी जा रही हैं, वे सब झूठ की बुनियाद पर टिकी हैं। भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धाराओं का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों के खिलाफ प्रकरण दर्ज करने की स्वीकार्यता और किसानों की जमीन अधिग्रहीत करने पर उसके परिवार के एक सदस्य को शासकीय नौकरी देना तो स्वागतयोग्य कदम है, पर भूमि अधिग्रहण को लेकर सरकार, उद्योगपति, व्यापारिक घराने, खनन माफिया आदि का उतावलापन समझ से परे है। मोदी सरकार जब तक किसानों के मन से संशय दूर नहीं करती उसके सारे प्रयास अकारथ हैं।
दिल्ली में 24 फरवरी कोे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की जगह लाए गये संशोधन विधेयक पर सत्तापक्ष और विपक्ष में किसानों की रहनुमाई का जो स्वांग चल रहा है उस पर सरकार ने लोकसभा में बेशक फतह हासिल कर ली हो पर राज्यसभा में उसे मुंह की खानी पड़ सकती है। नरेन्द्र मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का जो सब्जबाग दिखाया था, सत्ता में आते ही उनकी चाल-ढाल बदली-बदली सी नजर आती है। यह सच है कि आजादी के 66 साल बाद किसानों-आदिवासियों के राजनीतिक-सामाजिक संगठनों और जागरूक नागरिक समाज के सतत प्रयासों से अंग्रेजों के जमाने का भूमि अधिग्रहण अधिनियम (1894) पिछली सरकार के समय संशोधित किया गया। ब्रिटिश कम्पनियों के हितों को सिर-आंखों पर रखने वाला 1894 का वह कानून जमीन के असली मालिक किसान और आदिवासियों का पूर्णत: विरोधी था। मोदी सरकार ने जिस तरह हड़बड़ी में रातोंरात एक अध्यादेश लाकर 2013 के संशोधित भूमि अधिग्रहण अधिनियम को निष्प्रभावी किया है उससे उसकी कथनी और करनी का फर्क साफ पता चलता है।
कांग्रेस के कार्यकाल में सितम्बर 2013 में संसद में जो संशोधित भूमि अधिग्रहण अधिनियम पारित किया गया वह भी नितांत दोषमुक्तनहीं कहा जा सकता। उसमें भूमि के स्वामी किसानों, आदिवासियों के लिए समुचित मुआवजे का प्रावधान न होने के साथ ही ऐसे चोर दरवाजे थे जिनसे होकर सरकार अपनी चहेती निजी कम्पनियों को फायदा पहुंचा सकती थी। भूमि अधिग्रहण की जहां तक बात है, भारत में इस कानून की नींव फोर्ट विलियम हंटर ने 1824 में बंगाल प्रान्त में डाली थी, जिसकी सहायता से अचल सम्पत्तियों का अधिग्रहण सड़क, नहर और अन्य सुविधाओं के लिए किया गया था। मुल्क में जब रेल लाइनों के बिछाने की बात आई तो 1894 में इसमें व्यापक परिवर्तन किये गये। आजादी के साढ़े छह दशक तक केन्द्रीय एजेंसियां तथा राज्य सरकारों द्वारा अधिकृत कम्पनियां किसान आन्दोलनों को कुचलते हुए उनकी जमीनों पर अतिक्रमण करती रही हैं। 1978 में इसे तब और मजबूती मिली जब 44वें संविधान संशोधन के जरिये सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार की श्रेणी से निकाल दिया गया। इस संशोधन के बाद तो सरकार कभी भी, कहीं भी किसी की भी जमीन, भवन का अधिग्रहण करने की हकदार हो गई थी। गोरों के राज में सारी जमीन सरकार की थी। किसान बंधुआ था तो जमींदार बिचौलिया। आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन हुआ और जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों में बांटी गई। किसानों को पहली बार लगा कि हम भी भूमिधर हैं।
देश में भूमि अधिग्रहण की लड़ाई बहुत पुरानी है। अतीत में जमीन को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान भी सरकार से दो-दो हाथ कर चुके हैं। वर्ष 2004 में रिलायंस के दादरी प्रोजेक्ट के लिए जब किसानों को 2500 एकड़ जमीन पर कम मुआवजा दिया गया, तब पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व में आन्दोलन चला और इलाहाबाद हाईकोर्ट से किसानों को न्याय मिला। ममता बनर्जी भी कोलकाता के सिंगूर में टाटा के नैनो प्रोजेक्ट के खिलाफ सफल आन्दोलन चला चुकी हैं। बुन्देलखण्ड के बांदा जिले के धरती पुत्र भी जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे के बैनर तले महीनों आन्दोलन कर चुके हैं। अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखली के खिलाफ किसान अब आंदोलन न करें इसके लिए जरूरी है कि मोदी सरकार राजनीतिज्ञों से विचार-विमर्श की बजाय उन किसानों से बात करे जिनको सरकार से शिकायत है। सरकार को चाहिए कि वह भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व विकास परियोजना के कारण होने वाली सम्भावित क्षतियों का भी आकलन करे। मौजूदा भूमि अधिग्रहण विधेयक में मोदी सरकार ने बेशक नौ संशोधनों को स्वीकार कर लिया हो पर यह अध्यादेश मूल अधिनियम के उस प्रावधान की खुली अवहेलना है, जो उन लोगों को भी मुआवजे का हकदार बताता है, जो भूमि के वास्तविक मालिक तो नहीं होते लेकिन जिनकी आजीविका जमीन पर ही निर्भर है। इन समुदायों में खेतिहर मजदूर, बटाईदार किसान, आदिवासी, लोक कलाकार, ग्रामीण दस्तकारी पेशे से जुड़ी जातियां, मछुआरे और चरवाहे आदि शामिल हैं।
भूमि अधिग्रहण की बात करने से पहले मोदी सरकार को खाद्य सुरक्षा अधिनियम का भी अवलोकन करना चाहिए जिसमें यह निर्धारित था कि दो या दो से अधिक फसलें देने वाली उर्वरा भूमि को किसी भी सूरत में अधिग्रहीत नहीं किया जाए। मौजूदा अध्यादेश में इस प्रावधान का भी ख्याल नहीं रखा गया है। इस अध्यादेश में अधिग्रहीत भूमि को उपयोग में लेने की छूट-अवधि की मियाद भी बढ़ा दी गई है। प्राय: यह देखा गया है कि सरकारें और निजी कम्पनियां भूमि अधिग्रहण में तो हड़बड़ी दिखाती हैं, लेकिन अधिग्रहीत भूमि को लम्बे समय के लिए यूं ही खाली छोड़ देती हैं ताकि उसके बाजार मूल्य में कई गुना बढ़ोतरी हो सके और फिर कानूनी फेरबदल करके उस भूमि को ऊंची कीमत पर बेचा जा सके। अध्यादेश के पक्ष में यह कहा जा रहा है कि इससे भूमि अधिग्रहण की जटिल, लम्बी और थकाऊ प्रक्रिया आसान होगी, जिससे विकास परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाने में गति मिलेगी। सच्चाई तो यह है कि अधिनियम के विरोध और अध्यादेश के पक्ष में जो भी बातें कही-सुनी जा रही हैं, वे सब झूठ की बुनियाद पर टिकी हैं। भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धाराओं का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों के खिलाफ प्रकरण दर्ज करने की स्वीकार्यता और किसानों की जमीन अधिग्रहीत करने पर उसके परिवार के एक सदस्य को शासकीय नौकरी देना तो स्वागतयोग्य कदम है, पर भूमि अधिग्रहण को लेकर सरकार, उद्योगपति, व्यापारिक घराने, खनन माफिया आदि का उतावलापन समझ से परे है। मोदी सरकार जब तक किसानों के मन से संशय दूर नहीं करती उसके सारे प्रयास अकारथ हैं।
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