एक महिला खिलाड़ी का संघर्ष
जीन विविधिता की वजह से प्रतिभाशाली खिलाड़ी दुती चंद न केवल परेशान है बल्कि उसके सामने खुद को औरत साबित करने की बेहद कठिन चुनौती है। दुती को लेकर न केवल भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संगठन भी दोराहे पर है। एक गरीब प्रतिभाशाली खिलाड़ी लगभग एक साल से अपने औरत होने की चीख लगा रही है लेकिन उसे न्याय मिलता नहीं दिख रहा।
देश की उदीयमान खिलाड़ी दुती के मामले की फिलवक्त स्विट्जरलैंड के शहर लुसाने में सुनवाई चल रही है। इस पर जुलाई 2014 में ग्लासगो कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ दिन पहले ही ट्रैक से अयोग्य करार दिया गया था। तब उसके शरीर में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा सामान्य से ज्यादा पाई गई थी। टेस्टोस्टेरोन वो हार्मोन है जो पुरुषोचित गुणों को नियंत्रित करता है। एथलेटिक संगठनों का अंतरराष्ट्रीय संघ (आईएएफ) और अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) की नीतियों के मुताबिक, किसी एथलीट के शरीर में टेस्टोस्टेरोन की क्या सीमा हो, यह तय किया गया है। आईएएफ का मानना है कि हाइपरएंड्रोजेनिज्म की वजह से खिलाड़ियों को अनुचित फायदा मिलता है और यह सभी खिलाड़ियों को बराबर का मौका दिए जाने के सिद्धांत का उल्लंघन है। हाइपरएंड्रोजेनिज्म उस स्थिति को कहते हैं जब किसी महिला के शरीर में जीन की विविधिताओं की वजह से सामान्य से अधिक मात्रा में टेस्टोस्टेरोन बनता है।
देखा जाए तो जीन की विविधिता से पैदा होने वाली ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं, जो आईएएफ के नियंत्रण में नहीं हैं हालांकि उनसे भी खिलाड़ियों को फायदा मिलता है, पर उन्हें प्रतिस्पर्धा के लिए अनुचित नहीं माना जाता। अब सवाल यह उठता है कि हम हाइपरएंड्रोजेनिज्म को अलग कर क्यों देखते हैं? ऐसा इसलिए है कि खेलकूद में महिलाओं को लेकर हमारी सामाजिक सोच अभी भी रूढ़िवादी है। दुती भी रूढ़िवादिता का ही शिकार है।
खेलों की जहां तक बात है औरत होने के सामान्य मानकों पर खरा नहीं उतरने वाली महिला एथलीटों को कई तरह के परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। महिला एथलीटों पर इसका जबरदस्त दबाव होता है कि वे अपने को औरत साबित करें ताकि उनके लिंग को लेकर किसी तरह का सवाल न उठे। खुद को औरत साबित करने का बोझ महिला एथलीटों को ही उठाना पड़ता है। इसी तरह उन पर यह साबित करने का बोझ भी होता है कि अधिक टेस्टोस्टेरोन की वजह से उन्हें कोई फायदा तो नहीं मिल रहा है। आईएएफ ने दुती चंद और दूसरे एथलीटों को जो मेडिकल जांच कराने को कहा है, वह गैर जरूरी है। इससे इन खिलाड़ियों पर काफी ज्यादा आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक बोझ पड़ता है।
हाइपरएंड्रोजेनिज्म की जहां तक बात है ऐसी कई महिलाएं हैं, जिन पर इसका असर है। उन्हें एंड्रोजेन के प्रभाव को दबाने के लिए किसी तरह की थेरेपी या सर्जरी नहीं करानी होती है। हाइपरएंड्रोजेनिज्म तो पॉलीसिस्टिक ओवेरिक सिंड्रोम की वजह से भी होता है और तकरीबन 10 से 15 फीसदी महिलाएं इसकी चपेट में आ जाती हैं। अफसोस की ही बात है कि खेल के मैदान में वापसी करने के लिए आईएएफ जो इलाज कराने को कहता है, उसका खर्च भी उसी खिलाड़ी को ही उठाना पड़ता है। दुती के मामले में ऐसा नहीं है। भारत का खेल मंत्रालय इसके खिलाफ अपील करने के लिए दुती चंद को आर्थिक मदद दे रहा है, वरना यह गरीब की बेटी तो अपील भी नहीं कर पाती।
आईएएफ के नियमों के मुताबिक यदि दुती चंद एंड्रोजेन के स्तर को कम नहीं कर पाई तो उसे अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में फिर भाग लेने की इजाजत शायद ही मिले। दुती चंद ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया है और इसके खिलाफ अपील की है। दुती ने जून में दूरभाष पर बताया था कि वह अपने शरीर में बदलाव करने को तैयार नहीं है।
इसे हास्यास्पद ही कहेंगे कि खेल की दुनिया में पुरुषों के लिए टेस्टोस्टेरोन के स्तर की कोई सीमा तय नहीं है जबकि इसके लिए कई महिला खिलाड़ियों को असमय ही खेल से तौबा करना पड़ा है। आईएएफ अभी तक टेस्टोस्टेरोन के मामले में कोई सीमा तय नहीं कर सका है। खेलों में उत्कृष्टता, लिंग या खुद को औरत साबित करने जैसे बड़े मुद्दों पर बखेड़ा तो खड़ा किया जाता है लेकिन इसके निराकरण पर सब चुप्पी साध लेते हैं। दुती को न्याय न मिला तो भारत एक और प्रतिभाशाली खिलाड़ी को असमय खो देगा।
जीन विविधिता की वजह से प्रतिभाशाली खिलाड़ी दुती चंद न केवल परेशान है बल्कि उसके सामने खुद को औरत साबित करने की बेहद कठिन चुनौती है। दुती को लेकर न केवल भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संगठन भी दोराहे पर है। एक गरीब प्रतिभाशाली खिलाड़ी लगभग एक साल से अपने औरत होने की चीख लगा रही है लेकिन उसे न्याय मिलता नहीं दिख रहा।
देश की उदीयमान खिलाड़ी दुती के मामले की फिलवक्त स्विट्जरलैंड के शहर लुसाने में सुनवाई चल रही है। इस पर जुलाई 2014 में ग्लासगो कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ दिन पहले ही ट्रैक से अयोग्य करार दिया गया था। तब उसके शरीर में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा सामान्य से ज्यादा पाई गई थी। टेस्टोस्टेरोन वो हार्मोन है जो पुरुषोचित गुणों को नियंत्रित करता है। एथलेटिक संगठनों का अंतरराष्ट्रीय संघ (आईएएफ) और अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) की नीतियों के मुताबिक, किसी एथलीट के शरीर में टेस्टोस्टेरोन की क्या सीमा हो, यह तय किया गया है। आईएएफ का मानना है कि हाइपरएंड्रोजेनिज्म की वजह से खिलाड़ियों को अनुचित फायदा मिलता है और यह सभी खिलाड़ियों को बराबर का मौका दिए जाने के सिद्धांत का उल्लंघन है। हाइपरएंड्रोजेनिज्म उस स्थिति को कहते हैं जब किसी महिला के शरीर में जीन की विविधिताओं की वजह से सामान्य से अधिक मात्रा में टेस्टोस्टेरोन बनता है।
देखा जाए तो जीन की विविधिता से पैदा होने वाली ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं, जो आईएएफ के नियंत्रण में नहीं हैं हालांकि उनसे भी खिलाड़ियों को फायदा मिलता है, पर उन्हें प्रतिस्पर्धा के लिए अनुचित नहीं माना जाता। अब सवाल यह उठता है कि हम हाइपरएंड्रोजेनिज्म को अलग कर क्यों देखते हैं? ऐसा इसलिए है कि खेलकूद में महिलाओं को लेकर हमारी सामाजिक सोच अभी भी रूढ़िवादी है। दुती भी रूढ़िवादिता का ही शिकार है।
खेलों की जहां तक बात है औरत होने के सामान्य मानकों पर खरा नहीं उतरने वाली महिला एथलीटों को कई तरह के परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। महिला एथलीटों पर इसका जबरदस्त दबाव होता है कि वे अपने को औरत साबित करें ताकि उनके लिंग को लेकर किसी तरह का सवाल न उठे। खुद को औरत साबित करने का बोझ महिला एथलीटों को ही उठाना पड़ता है। इसी तरह उन पर यह साबित करने का बोझ भी होता है कि अधिक टेस्टोस्टेरोन की वजह से उन्हें कोई फायदा तो नहीं मिल रहा है। आईएएफ ने दुती चंद और दूसरे एथलीटों को जो मेडिकल जांच कराने को कहा है, वह गैर जरूरी है। इससे इन खिलाड़ियों पर काफी ज्यादा आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक बोझ पड़ता है।
हाइपरएंड्रोजेनिज्म की जहां तक बात है ऐसी कई महिलाएं हैं, जिन पर इसका असर है। उन्हें एंड्रोजेन के प्रभाव को दबाने के लिए किसी तरह की थेरेपी या सर्जरी नहीं करानी होती है। हाइपरएंड्रोजेनिज्म तो पॉलीसिस्टिक ओवेरिक सिंड्रोम की वजह से भी होता है और तकरीबन 10 से 15 फीसदी महिलाएं इसकी चपेट में आ जाती हैं। अफसोस की ही बात है कि खेल के मैदान में वापसी करने के लिए आईएएफ जो इलाज कराने को कहता है, उसका खर्च भी उसी खिलाड़ी को ही उठाना पड़ता है। दुती के मामले में ऐसा नहीं है। भारत का खेल मंत्रालय इसके खिलाफ अपील करने के लिए दुती चंद को आर्थिक मदद दे रहा है, वरना यह गरीब की बेटी तो अपील भी नहीं कर पाती।
आईएएफ के नियमों के मुताबिक यदि दुती चंद एंड्रोजेन के स्तर को कम नहीं कर पाई तो उसे अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में फिर भाग लेने की इजाजत शायद ही मिले। दुती चंद ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया है और इसके खिलाफ अपील की है। दुती ने जून में दूरभाष पर बताया था कि वह अपने शरीर में बदलाव करने को तैयार नहीं है।
इसे हास्यास्पद ही कहेंगे कि खेल की दुनिया में पुरुषों के लिए टेस्टोस्टेरोन के स्तर की कोई सीमा तय नहीं है जबकि इसके लिए कई महिला खिलाड़ियों को असमय ही खेल से तौबा करना पड़ा है। आईएएफ अभी तक टेस्टोस्टेरोन के मामले में कोई सीमा तय नहीं कर सका है। खेलों में उत्कृष्टता, लिंग या खुद को औरत साबित करने जैसे बड़े मुद्दों पर बखेड़ा तो खड़ा किया जाता है लेकिन इसके निराकरण पर सब चुप्पी साध लेते हैं। दुती को न्याय न मिला तो भारत एक और प्रतिभाशाली खिलाड़ी को असमय खो देगा।
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