Thursday 16 October 2014

आदर्श गांवों का सपना

प्रयोगधर्मी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश भर में स्वच्छता अभियान की अलख जगाने के बाद जहां सांसद आदर्श ग्राम योजना का शुभारम्भ कर अच्छे दिनों के संकेत दिए हैं वहीं हमारी अदूरदर्शी नीतियां संशय को जन्म दे रही हैं। मोदी के तीन हजार से पांच हजार की आबादी वाले 596 आदर्श गांव पक्की सड़कों, नालियों, बाजार, संचार  सुविधा, पुस्तकालय, एटीएम, इण्टरनेट सुविधा, नल-जल योजना, सस्ते पक्के मकान, स्वच्छ  शौचालय, स्ट्रीट लाइट तथा खेल मैदान जैसी सुविधाओं से मुकम्मल होंगे। सुविधाओं से लैश मोदी के आदर्श गांवों का सपना कितना फलीभूत होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। आजाद भारत में गांवों के योजनाबद्ध विकास की बात पहली बार नहीं हो रही, इससे पहले भी गांवों की तकदीर और तस्वीर बदलने के समय-समय पर प्रयास हो चुके हैं लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही निकला है। प्रधानमंत्री मोदी की इस योजना में भेदभावरहित गांवों का चयन और इन आदर्श गांवों की कसौटी सबसे बड़ा सवाल है।
भारत गांवों का देश है। हमारी 75 फीसदी से अधिक आबादी गांवों में ही निवास करती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोेदी आज गांवों के विकास का जो सपना देख रहे हैं वह महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना की ही तरह है। आजादी के 67 साल बाद गांव कितने विकसित हुए, यह सर्वविदित है। किसी आदर्श ग्राम के लिए अधोसंरचनाएं तैयार कर देना ही काफी नहीं है, उनका रखरखाव और विस्तार भी बेहद जरूरी होता है। जब तक पंचायतों को सक्षम नहीं बनाया जाएगा, आदर्श गांव का सपना कभी साकार नहीं होगा। इस योजना को वाकई फलीभूत करना है तो इसके लिए जरूरी है कि हम ऐसे गांवों का चयन करें जहां की पंचायतों में योजना के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने की सक्षमता दिखाई देती हो।
नरेन्द्र मोदी की ही तरह राजीव गांधी और मनमोहन सिंह भी गांवों की तस्वीर बदलना चाहते थे। प्रधानमंत्री रहते हुए श्री गांधी ने छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले का दौरा करने के बाद आनंदपुर-कटगोड़ी गांव गये थे। बाद में इन गांवों को आदर्श ग्राम के रूप में विकसित किया गया। इन गांवों की मौजूदा स्थिति देखकर मोदी सरकार को आदर्श ग्रामों के विकास की रूपरेखा तैयार करने में काफी मदद मिल सकती है। दरअसल, इन गांवों में विकसित अधोसंरचनाएं रखरखाव और उचित प्रबन्धन के अभाव में तहस-नहस हो चुकी हैं। देश में ग्राम विकास के स्याह पहलुओं की कई मिसालें आज भी मौजूद हैं। सरकार गांवों में लोगों को घरों तक पानी पहुंचाने के लिए नल-जल जैसी महत्वाकांक्षी योजना शुरू कर चुकी है। यह योजना आज कितनी लाभप्रद है, उसकी समीक्षा आदर्श ग्राम योजना को मूर्तरूप रूप देने में सहायक हो सकती है। देखा जाए तो बहुत सी ग्रामीण योजनाएं उचित रखरखाव और बेहतर प्रबंधन के अभाव में जमींदोज हो चुकी हैं। इन योजनाओं की असफलता की मुख्य वजह पंचायतों की विफलता और सरकारी एजेन्सियों का गैरजिम्मेदाराना रवैया है।
गांवों के विकास में भवनों का निर्माण प्रमुख मुद्दा है। एक समय था जब बिजली, पानी, सड़क जैसी सुविधाओं से महरूम गांवों में मिट्टी के घर हुआ करते थे। बदलते समय में अब ईंट की दीवारें खड़ी की जा रही हैं। जगह-जगह स्थापित र्इंट के भट्ठे पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं तो ईंट बनाने के लिये किसानों की जमीन कौड़ियों के भाव खरीदी जा रही है। गांवों में आवश्यकता जैव आधारित वस्तुओं की है, जोकि विभिन्न कृषि उत्पादों द्वारा तैयार की गयी हो। घरों को सुविधा सम्पन्न ही नहीं प्राकृतिक वातावरणयुक्त बनाना भी जरूरी है। गांवों में घर कृत्रिम बिजली पर निर्भर होने की बजाय इस तरह बनाए जाएं जिसमें शुद्ध खुली हवा, सूरज की रोशनी आ सके। भवनों की आंतरिक संरचना इस प्रकार हो जोकि स्वस्थ वातावरण प्रदान करे। घरों की संरचना के साथ-साथ घरों के बीच पेड़-पौधे भी लगाये जाएं ताकि प्राकृतिक संतुलन बना रहे।
मोदी ने कुछ दिन पहले समग्र स्वच्छ भारत अभियान का बिगुल फूंका लेकिन देश में नदियों से लगायत बस्तियां तक गंदी हैं। क्या शहर, क्या गांव हर जगह गंदगी के ढेर पहाड़ की मानिंद नजर आते हैं। सार्वजनिक शौचालय कहीं के भी हों वे नर्क से कम नहीं हैं। स्वच्छता अभियान का दम ठोक रहे लोगों की नजर सार्वजनिक शौचालयों की तरफ जाएगी इसमें संदेह है। आज मुल्क की सबसे बड़ी आर्थिक समस्या बेरोजगारी है। बेरोजगारी के चलते ही ग्रामीणों का शहर की तरफ पलायन हो रहा है। देश में रोजगार के अवसर शून्य हैं। सरकारी क्षेत्र में जितनी नौकरियां पैदा हो सकती थीं, वे हो चुकी हैं। हमारे अर्थशास्त्री खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर खूब हाय-तौबा मचा चुके हैं। इनका तर्क है कि सार्वजनिक खर्च वित्तीय घाटे में और बढ़ोत्तरी करेगा। लेकिन वे इस तथ्य से आंखें मूंद लेते हैं कि 2005-06 से अब तक उद्योगपतियों को कर छूट के रूप में 30 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक दिए जा चुके हैं। भारतीय उद्योगपतियों को मिली व्यापक कर छूट का यदि देश के भीतर ही निवेश किया गया होता तो उससे लाखों-लाख रोजगार निर्मित हो सकते थे।  हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि गांवों के विकास पर ही देश का विकास निर्भर है। यहां तक कि बड़े उद्योगों का माल भी तभी बिकेगा जब किसान के पास पैसा होगा। थोड़ी सी सफाई या कुछ सुविधाएं प्रदान कर देने मात्र से गांवों का उद्धार नहीं हो सकता।
भारत को घुटने पर बैठकर प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करने की बजाय अपने ही उद्योगपतियों की अंटी खाली कराने की जरूरत है। देश में आर्थिक विकास दर और धन कुबेरों की बढ़ती संख्या के बावजूद आज गरीबी मुंह चिढ़ा रही है। भारत में तीन सौ करोड़ से अधिक सम्पत्ति वाले अमीरों की संख्या 18 सौ से भी अधिक है। इस सम्पन्नता के बावजूद गरीबी का ग्राफ बेहद चिन्ताजनक है। भारत में आय और सम्पत्ति के मामले में भारी असमानता है। यह खाई लगातार बढ़ रही है। देश में साढ़े छह सौ लोगों के पास छह सौ करोड़ से अधिक सम्पत्ति है वहीं 10 लाख डालर से ज्यादा दौलतमंदों की संख्या लगभग साढ़े तीन लाख है। मोदी को चाहिए कि वह सांसदों ही नहीं देश के धनकुबेरों को भी आदर्श गांव योजना से जुड़ने का आह्वान करें ताकि एक साथ लाखों गांवों को आदर्श गांव के रूप में देखा जा सके। मोदी सरकार को यदि अपनी योजनाओं को वाकई मूर्तरूप देना है तो उसे खैरात बांटने से परहेज करना होगा।

No comments:

Post a Comment