Friday 10 October 2014

साहित्य में संवेदना की वेदना

हर सदी कुछ संदेश देती है। इक्कीसवीं सदी ने मनुष्य को कुछ विलक्षण सौगातें दी हैं तो उससे बहुत कुछ छीना भी है। बदलता समय और उसके सरोकार सर्वथा अलग हैं। इंसान की निष्ठा, प्रतिबद्धता तथा प्राथमिकता अपने समाज और परिवार के प्रति जो परिलक्षित होनी चाहिए वर्तमान उपभोक्तावादी दौर में उसका नितांत अभाव है। वर्तमान समय लेखन के लिये चुनौतियों भरा है। मनुष्य की प्रतिबद्धता खण्डित हो चुकी है। हर किसी का रास्ता अलग है। आजकल कुछ भी लिखा जा रहा है, पर बाल साहित्य पर कलम ठहर सी गई है। अब चंदा मामा नीचे नहीं आते, अपने मन की बात नहीं बताते। आज बालमन मायूस है, उसका मन तरंगित और उमंगित नहीं होता।
साहित्य का मानवीय रिश्ता, उसकी जीवन यात्रा के साथ ही प्रारम्भ होता है। साहित्य का मूल सम्बन्ध मानव की संवेदना से है। संवेदना के बिना साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य के चिन्तन और उसकी विचारधाराओं को ही साहित्य आत्मसात करता है। प्रत्येक रचनाकार, वह चाहे जिस विधा का हो अपने युग को जीता है। कवि या लेखक अपने परिवेश में व्याप्त समस्याओं को निरख-परख कर सभी के अनुभवों के साथ अभिव्यक्त करता है। यह काम हर कोई नहीं कर सकता। आज का समय वैश्वीकरण, उदारीकरण, बाजारीकरण और उपभोक्तावादी दौर से गुजर रहा है तो इंसान की पहचान बाजार के उत्पादों से होने लगी है। बाजारीकरण  के इस दौर में अच्छा साहित्य कहीं गुम हो गया है।
साहित्य की अपनी सीमाएं हैं, उसका अपना स्वरूप है। साहित्य का प्रवाह इतिहास से कहीं अधिक प्रखर होता है। उसकी सम्भावनाओं पर कविता के स्वर फूटने लगते हैं। आज साहित्य पर धनलोलुपता हावी है, यही कारण है कि इसमें मनुष्य की उपस्थिति, उसकी अस्मिता और समूचा अस्तित्व दांव पर लगा नजर आ रहा है। मानवीय मूल्य और परम्पराएं ठहरे जल की मानिंद दिखने लगी हैं। बच्चे मन के सच्चे होते हैं पर हमारे समाज में इनको लेकर एक खास किस्म की उपेक्षा दिख रही है। बात बाल मजदूरी की हो, हमारी कानूनी खामियों की हो या फिर इनके यौन शोषण की, सब दूर उसे निराशा मिल रही है। बालमन की उपेक्षा से हमारा हिन्दी साहित्य भी अछूता नहीं है। लिखने वाले बहुत कुछ लिख रहे हैं पर बाल साहित्य के परिदृश्य पर नजर डालें तो बड़ा खालीपन दिख रहा है।
बाल-गोपालों की कई स्तरीय पत्र-पत्रिकाएं बंद हो गई हैं, जो निकल भी रही हैं उनकी रचनाओं में विविधता का अभाव है। एक जमाने में अमर चित्रकथा समेत कई कॉमिक्स बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय थे लेकिन अब सब गायब हैं। प्राण ने चाचा चौधरी और साबू जैसे मशहूर चरित्रों को न केवल गढ़ा था बल्कि नौनिहालों के बीच उसे दीवानगी की हद तक लोकप्रिय भी बनाया था। तब बच्चे नई कॉमिक्स का शिद्दत से इंतजार करते थे। आज उसका प्रकाशन बंद है। वजह घाटा बताया जा रहा है। दरअसल बाल साहित्य के प्रकाशन को नफा-नुकसान के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। यह प्रक्रिया एक पूरी पीढ़ी को पढ़ने की आदत डालने के लिए नितांत आवश्यक है। बाल साहित्य के प्रकाशन पर किया जाने वाला निवेश तात्कालिक रूप से बेशक फायदे का सौदा न हो पर भविष्य में यह कारोबारी और समाज दोनों के लिए लाभप्रद जरूर साबित हो सकता है।
आज बाल साहित्य पर चिन्तन करें तो एक अजीब किस्म की उदासीनता देखने को मिलती है। मुल्क में मराठी, बांग्ला और मलयालम में बाल साहित्य लिखा और छापा जा रहा है। इन भाषाओं में साहित्य के गम्भीर पाठक भी हैं। हिन्दी साहित्य की बात करें तो पिछले चार-पांच दशक में बाल साहित्य पर गम्भीरता से कोई काम नहीं हुआ है। यह अकारण नहीं हो सकता। बाल साहित्य के प्रति लेखकों की उदासीनता को समझा जा सकता है। अगर हम साहित्य और साहित्यकारों से इतर समाचार-पत्रों को देखें तो इक्का-दुक्का अखबारों को छोड़कर, बच्चों के लिए पढ़ने की सामग्री नहीं के बराबर होती है। टेलीविजन चैनलों की स्थिति तो और भी खराब है। आज कार्टूनों की बहुलता ने बच्चों को पढ़ाई से दूर कर दिया है। बाल साहित्य के प्रति उदासीनता से तो एक बात साफ है कि हमारा समाज चाहे किसी भी तबके का क्यों न हो, वह अपने बच्चों और उनके भविष्य को लेकर कतई गम्भीर नहीं है।
आज अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा अच्छी शिक्षा हासिल करे लेकिन उनकी बच्चों को नैतिक शिक्षा देने में कोई रुचि नहीं दिखती। पिछले दो-तीन दशक में समूचे मुल्क में अंग्रेजी स्कूलों की दुकानें गली-मुहल्लों तक में खुल गई हैं। इन अंग्रेजी स्कूलों से हिन्दी के बाल साहित्य पर काफी बुरा असर पड़ा है। यदि देश को सचमुच विकसित राष्ट्र बनाना है तो समाज में बच्चों की उपेक्षा का जो अंधकारपूर्ण माहौल है उसे अविलम्ब खत्म किया जाना चाहिए। इस नैतिक कार्य को मुकम्मल मुकाम तक पहुंचाने की अभी से पहल नहीं हुई तो हमारे नौनिहाल जोकि देश का भविष्य हैं, गलत दिशा की तरफ चल निकलेंगे। अपने भविष्य की उपेक्षा करने वाला राष्ट्र एक हद से अधिक तरक्की कभी नहीं कर सकता। इस गम्भीरता को हमारी सरकार, देश के नागरिकों और रचना कर्म से जुड़े लोगों समझना चाहिए ताकि बाल साहित्य में जो खालीपन आया है उसे समय रहते समृद्ध किया जा सके। 

No comments:

Post a Comment