भारत उम्मीदों में जीता देश है। यही वजह है कि यहां उम्मीद कभीनहीं मरती। एशियाई खेल सिर पर हैं लिहाजा उम्मीदों का चिराग एक बार फिर टिमटिमाने लगा है। 19 सितम्बर से चार अक्टूबर तक दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में सत्रहवें एशियाई खेल होने जा रहे हैं। इन खेलों में हमारे कितने खिलाड़ी किस खेल में पौरुष दिखाएंगे इसको लेकर अभी तक फैसला नहीं हो सका है। एशियाई खेलों से ठीक पहले भारतीय खेल प्राधिकरण और भारतीय खेल मंत्रालय के बीच नूरा-कुश्ती जारी है। भारतीय खेल प्राधिकरण हमेशा की तरह बड़े दल और बेजा खेलनहारों को साथ ले जाने की मुखालफत कर रहा है तो खेल मंत्रालय फिजूलखर्ची के खिलाफ है। भारतीय खेल प्राधिकरण ने मंत्रालय को 935 खिलाड़ियों और खेलनहारों की सूची सौंपी है जबकि खेल मंत्रालय सिर्फ 604 खिलाड़ियों को ही भेजना चाहता है। यह संख्या 2010 में ग्वांगझू में हुए एशियाई खेलों से भी अधिक है। तब भारत का 843 खिलाड़ियों का दल पौरुष दिखाने गया था और 65 जांबाज खिलाड़ियों ने ही पदकों से अपने गले सजाए थे। इस बार खिलाड़ियों की कमजोर तैयारी और नामचीन खिलाड़ियों की खराब फार्म उम्मीदों पर तुषारापात कर सकती है।
भारतीय खेलों का इतिहास जांबाज खिलाड़ियों के हैरतअंगेज कारनामों से भरा पड़ा है लेकिन इतिहास के महान खिलाड़ियों की अमरगाथा और उनके जीवंतता भरे प्रदर्शन की दुहाई देने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि मैदान में इतिहास नहीं खेला करता। मुकाबला चाहे खेल मैदान का हो या फिर जंग के मैदान का, जीत के लिए जो सब कुछ दांव पर लगाता है वही सिकंदर कहलाता है। आज हमारे पास न तो मिल्खा सिंह सा जांबाज एथलीट है और न ही पीटी ऊषा जैसी उड़नपरी जिस पर हम शर्तियां दांव लगा सकें। देखा जाए तो जिस तरह भारतीय लोकतंत्र पर वंशवाद की बेल दिनोंदिन फैलती जा रही है कमोबेश उसी तरह खेलों में भी भाई-भतीजावाद व्यापक स्तर पर अपनी पैठ बना चुका है। दक्षिण कोरिया में होने जा रहे एशियाई खेलों में ऐसे खिलाड़ी भी शिरकत करने की जुगत में हैं जिनका प्रदर्शन अंतरराष्ट्रीय मानक पर खरा नहीं उतरता। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा बल्कि भारतीय खेलों में यह अर्से से चल रहा है। बेजा खिलाड़ी तो खिलाड़ी खेलों के नाम पर भारतीय ओलम्पिक संघ और खेल संघों के पदाधिकारी भी अपने बीवी-बच्चों तथा नाते-रिश्तेदारों को आरामतलबी कराने का कोई मौका जाया नहीं करते। भारत ने आजादी के 67 वर्षों में बेशक हर क्षेत्र में खूब तरक्की की हो पर खेलों का उद्धार नहीं हो सका। इसकी वजह, खेलों का अनाड़ियों के हाथों संचालित होना है। दरअसल, भारत में खेल संघों को राजनीतिज्ञों ने अपने बुरे वक्त का आरामगाह समझ रखा है। राजनीति में पटखनी खाने के बाद कई सफेदपोशों ने खेलों में अपने रसूख को भुनाया है। खेल-खिलाड़ियों के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपये का खेल बजट खिलाड़ियों की जगह खेलनहारों की आरामतलबी पर ही खर्च हो रहा है। दरअसल, यही आरामतलबी और देश-विदेश की यात्राएं राजनीतिज्ञों को खेल संघों से जुड़ने को लालायित करती हैं। भारतीय ओलम्पिक संघ तो सिर्फ एक उदाहरण है। देश के अधिकांश खेल संघों पर उन खेलनहारों का कब्जा है जिनके बाप-दादा भी कभी नहीं खेले। दक्षिण कोरिया का इंचियोन शहर एशियाई खेलों में कोई 70 देशों के 13,000 खिलाड़ियों के पौरुष का इम्तिहान लेने को तैयार है। भारतीय खिलाड़ी भी कमतर तैयारियों के बावजूद वहां जाना चाहते हैं। भारतीय खेल प्राधिकरण और खेल संघों के पदाधिकारी अपने और खिलाड़ियों के लिए खेल मंत्रालय पर हर तरह का दबाव बना रहे हैं पर खेल सचिव एएम शरण चाहते हैं कि इंचियोन वही खिलाड़ी जाएं जिनसे पदक की उम्मीद हो। श्री शरण ने 604 सदस्यीय दल को भेजने की सिफारिश की है। इनमें फुटबाल, हैण्डबाल, वालीबाल और तैराकी की महिला टीमों सहित 14 खेलों के खिलाड़ियों को पाबंद किया गया है। खेल मंत्रालय चाहता था कि तीन खिलाड़ियों पर एक पदक के आधार पर ही खिलाड़ी भेजे जाएं पर इस नियम से खिलाड़ियों की संख्या बहुत कम होने के चलते छह खिलाड़ियों पर एक पदक की बमुश्किल सहमति बन पाई। किसी बड़े खेल आयोजन से पूर्व खिलाड़ियों को भेजने या नहीं भेजने का विवाद देश में पहली दफा हो रहा है। खेल मंत्रालय अपनी जगह सही है, लेकिन खेलों का बंटाढार करने वाले मोदी सरकार पर खेल विरोधी होने की तोहमत लगाने से बाज नहीं आ रहे। एशियाई खेलों से पूर्व चर्चा तो प्रदर्शन की होनी चाहिए पर कोई भी खेलनहार यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि उसके खिलाड़ी चीन, जापान और कोरिया जैसे ताकतवर देशों के खिलाड़ियों को मुंहतोड़ जवाब देंगे। सच्चाई तो यह है कि इन खेलों में भारतीय खिलाड़ी यदि सर्वश्रेष्ठता की सूची में पांचवें पायदान पर भी रहे तो बड़ी बात होगी। 1951 में दिल्ली में हुए पहले एशियाई खेलों से लेकर अब तक भारत ने हर मर्तबा इन खेलों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और 128 स्वर्ण, 168 रजत, 249 कांस्य पदकों सहित कुल 545 तमगे हासिल किए। खेलों की महाशक्ति चीन अब तक 10 बार ही इन खेलों में उतरा लेकिन उसके जांबाज खिलाड़ियों ने 1191 स्वर्ण, 792 रजत और 570 कांस्य पदकों सहित कुल 2553 पदक अपनी झोली में डाले हैं। एशियाई खेलों में चीन को चुनौती देने का जहां तक सवाल है कुछ हद तक जापान और दक्षिण कोरिया ही सफल हुए हैं। जापान ने 910 स्वर्ण, 904 रजत और 836 कांस्य तो दक्षिण कोरिया ने 617 स्वर्ण, 535 रजत और 677 कांस्य पदक जीते हैं। खेलों में जहां छोटे-छोटे मुल्क तरक्की कर रहे हैं वहीं दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला भारत दिनोंदिन पिछड़ता जा रहा है। ट्रैक एण्ड फील्ड स्पर्धाओं में बेशक भारत ने ओलम्पिक में अब तक कोई तमगा हासिल नहीं किया पर एशियाई खेलों में हमारे एथलीट ही भाग्य विधाता साबित हुए हैं। एथलीटों ने एशियाई खेलों में 70 स्वर्ण, 73 रजत और 76 कांस्य सहित 219 पदक भारत की झोली में डाले हैं। एथलीटों के अलावा भारतीय पहलवानों, बॉक्सरों और निशानेबाजों ने भी यदा-कदा ही सही पर अपनी चमक जरूर बिखेरी है। इंचियोन में भी भारत की इन्हीं स्पर्धाओं में तूती बोल सकती है।
भारतीय खेलों का इतिहास जांबाज खिलाड़ियों के हैरतअंगेज कारनामों से भरा पड़ा है लेकिन इतिहास के महान खिलाड़ियों की अमरगाथा और उनके जीवंतता भरे प्रदर्शन की दुहाई देने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि मैदान में इतिहास नहीं खेला करता। मुकाबला चाहे खेल मैदान का हो या फिर जंग के मैदान का, जीत के लिए जो सब कुछ दांव पर लगाता है वही सिकंदर कहलाता है। आज हमारे पास न तो मिल्खा सिंह सा जांबाज एथलीट है और न ही पीटी ऊषा जैसी उड़नपरी जिस पर हम शर्तियां दांव लगा सकें। देखा जाए तो जिस तरह भारतीय लोकतंत्र पर वंशवाद की बेल दिनोंदिन फैलती जा रही है कमोबेश उसी तरह खेलों में भी भाई-भतीजावाद व्यापक स्तर पर अपनी पैठ बना चुका है। दक्षिण कोरिया में होने जा रहे एशियाई खेलों में ऐसे खिलाड़ी भी शिरकत करने की जुगत में हैं जिनका प्रदर्शन अंतरराष्ट्रीय मानक पर खरा नहीं उतरता। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा बल्कि भारतीय खेलों में यह अर्से से चल रहा है। बेजा खिलाड़ी तो खिलाड़ी खेलों के नाम पर भारतीय ओलम्पिक संघ और खेल संघों के पदाधिकारी भी अपने बीवी-बच्चों तथा नाते-रिश्तेदारों को आरामतलबी कराने का कोई मौका जाया नहीं करते। भारत ने आजादी के 67 वर्षों में बेशक हर क्षेत्र में खूब तरक्की की हो पर खेलों का उद्धार नहीं हो सका। इसकी वजह, खेलों का अनाड़ियों के हाथों संचालित होना है। दरअसल, भारत में खेल संघों को राजनीतिज्ञों ने अपने बुरे वक्त का आरामगाह समझ रखा है। राजनीति में पटखनी खाने के बाद कई सफेदपोशों ने खेलों में अपने रसूख को भुनाया है। खेल-खिलाड़ियों के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपये का खेल बजट खिलाड़ियों की जगह खेलनहारों की आरामतलबी पर ही खर्च हो रहा है। दरअसल, यही आरामतलबी और देश-विदेश की यात्राएं राजनीतिज्ञों को खेल संघों से जुड़ने को लालायित करती हैं। भारतीय ओलम्पिक संघ तो सिर्फ एक उदाहरण है। देश के अधिकांश खेल संघों पर उन खेलनहारों का कब्जा है जिनके बाप-दादा भी कभी नहीं खेले। दक्षिण कोरिया का इंचियोन शहर एशियाई खेलों में कोई 70 देशों के 13,000 खिलाड़ियों के पौरुष का इम्तिहान लेने को तैयार है। भारतीय खिलाड़ी भी कमतर तैयारियों के बावजूद वहां जाना चाहते हैं। भारतीय खेल प्राधिकरण और खेल संघों के पदाधिकारी अपने और खिलाड़ियों के लिए खेल मंत्रालय पर हर तरह का दबाव बना रहे हैं पर खेल सचिव एएम शरण चाहते हैं कि इंचियोन वही खिलाड़ी जाएं जिनसे पदक की उम्मीद हो। श्री शरण ने 604 सदस्यीय दल को भेजने की सिफारिश की है। इनमें फुटबाल, हैण्डबाल, वालीबाल और तैराकी की महिला टीमों सहित 14 खेलों के खिलाड़ियों को पाबंद किया गया है। खेल मंत्रालय चाहता था कि तीन खिलाड़ियों पर एक पदक के आधार पर ही खिलाड़ी भेजे जाएं पर इस नियम से खिलाड़ियों की संख्या बहुत कम होने के चलते छह खिलाड़ियों पर एक पदक की बमुश्किल सहमति बन पाई। किसी बड़े खेल आयोजन से पूर्व खिलाड़ियों को भेजने या नहीं भेजने का विवाद देश में पहली दफा हो रहा है। खेल मंत्रालय अपनी जगह सही है, लेकिन खेलों का बंटाढार करने वाले मोदी सरकार पर खेल विरोधी होने की तोहमत लगाने से बाज नहीं आ रहे। एशियाई खेलों से पूर्व चर्चा तो प्रदर्शन की होनी चाहिए पर कोई भी खेलनहार यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि उसके खिलाड़ी चीन, जापान और कोरिया जैसे ताकतवर देशों के खिलाड़ियों को मुंहतोड़ जवाब देंगे। सच्चाई तो यह है कि इन खेलों में भारतीय खिलाड़ी यदि सर्वश्रेष्ठता की सूची में पांचवें पायदान पर भी रहे तो बड़ी बात होगी। 1951 में दिल्ली में हुए पहले एशियाई खेलों से लेकर अब तक भारत ने हर मर्तबा इन खेलों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और 128 स्वर्ण, 168 रजत, 249 कांस्य पदकों सहित कुल 545 तमगे हासिल किए। खेलों की महाशक्ति चीन अब तक 10 बार ही इन खेलों में उतरा लेकिन उसके जांबाज खिलाड़ियों ने 1191 स्वर्ण, 792 रजत और 570 कांस्य पदकों सहित कुल 2553 पदक अपनी झोली में डाले हैं। एशियाई खेलों में चीन को चुनौती देने का जहां तक सवाल है कुछ हद तक जापान और दक्षिण कोरिया ही सफल हुए हैं। जापान ने 910 स्वर्ण, 904 रजत और 836 कांस्य तो दक्षिण कोरिया ने 617 स्वर्ण, 535 रजत और 677 कांस्य पदक जीते हैं। खेलों में जहां छोटे-छोटे मुल्क तरक्की कर रहे हैं वहीं दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला भारत दिनोंदिन पिछड़ता जा रहा है। ट्रैक एण्ड फील्ड स्पर्धाओं में बेशक भारत ने ओलम्पिक में अब तक कोई तमगा हासिल नहीं किया पर एशियाई खेलों में हमारे एथलीट ही भाग्य विधाता साबित हुए हैं। एथलीटों ने एशियाई खेलों में 70 स्वर्ण, 73 रजत और 76 कांस्य सहित 219 पदक भारत की झोली में डाले हैं। एथलीटों के अलावा भारतीय पहलवानों, बॉक्सरों और निशानेबाजों ने भी यदा-कदा ही सही पर अपनी चमक जरूर बिखेरी है। इंचियोन में भी भारत की इन्हीं स्पर्धाओं में तूती बोल सकती है।
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