Friday 19 September 2014

डराती जीवनदायिनी नदियां

भारत विकास पथ पर सरपट दौड़ रहा है। हर क्षेत्र में उसे आशातीत सफलता भी मिल रही है। लोग गांवों से शहरों की तरफ बेइंतहा दौड़ रहे हैं। गांव लगातार सिकुड़ रहे हैं तो शहर की गगनचुम्बी इमारतें हमें डरा रही हैं। भारत का यह डर अस्तित्व खोते नदी-नालों से और भी बढ़ जाता है। विकास के इस नंगनाच से विनाश की आहट साफ सुनाई दे रही है पर हम अपनी आदतों से लाचार हैं। हम सरकारों को भला-बुरा कह सकते हैं पर खुद नहीं सुधरना चाहते। गंगा-यमुना की पवित्रता को लेकर मुल्क सजग तो सरकार चेती है, पर परिवर्तन के प्रति संदेह अब भी बरकरार है। हर भारतवासी नदियों के महत्व को न केवल समझता है बल्कि उसमें विशेष श्रद्धाभाव भी रखता है, बावजूद इसके जीवनदायिनी नदियां आज हमें डरा रही हैं।
पिछले कुछ वर्षों में देश में आई प्रकृति प्रलय ने गम्भीर जलवायु परिवर्तन के संकेत दिए हैं। पिछले चार साल में भारत के मुकुट हिमालय क्षेत्र में तीन विनाशकारी आपदाओं ने जमकर तबाही मचाई है। इस तबाही में जन-धन की हानि के साथ मुल्क की आर्थिक स्थिति पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। छह अगस्त, 2010 को लेह, 15 जून, 2013 को उत्तराखण्ड और सात सितम्बर, 2014 को जम्मू-कश्मीर में भारी जल प्रलय के कारण हजारों लोगों की जानें गर्इं तो लाखों बेघर हुए तथा अरबों के आर्थिक नुकसान के साथ-साथ बुनियादी संसाधनों पर भी संकट छा गया। इन आपदाओं पर भारतीय मौसम विभाग मानसून का पश्चिमी विक्षोभ तो सेण्टर फॉर साइंस एण्ड एनवायरमेंट भारतीय उपमहाद्वीप में जलवायु परिवर्तन बता रहा है। रिपोर्टें कुछ भी कहें पर स्याह सच यह है कि अंधाधुंध वन विनाश के चलते आज पहाड़ नंगे हो रहे हैं। जो जंगल पहले मानसून के सामने ढाल बनकर दीवार की तरह खड़े हो जाते थे, वे दीवारें हमने स्वयं ध्वस्त कर दी हैं। पवित्र गंगा-यमुना आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। इसकी वजह प्राकृतिक नहीं बल्कि मानवजनित है, जिसके लिए सरकार और प्रशासन के साथ-साथ आमजन का हठधर्मीपूर्ण रवैया भी कम जिम्मेदार नहीं है। राष्ट्रीय हरित पंचाट की ओर से दिल्ली और उत्तर प्रदेश के सभी सम्बन्धित महकमों को गंगा-यमुना के तटों पर किसी भी तरह का कचरा या मलबा गिराए जाने पर तत्काल रोक लगाने और इस नियम का उल्लंघन करने वालों से भारी जुर्माना वसूलने का स्पष्ट आदेश है, बावजूद इसके स्थिति में कोई अंतर नहीं दिखता।
बरसाती पानी के नदियों तक पहुंचने के मामले में हमारे देश में कोई जमीनी आंकड़ा नहीं है। इस तरह का सर्वेक्षण और उस पर अमल आसान बात भी नहीं है। इसकी वजह, नदियों के तटों से सटे इलाकों में रिहाइशी और औद्योगिक परियोजनाओं का लगातार फलना-फूलना है। निर्माण-कार्यों से निकलने वाले मलबे और घरेलू औद्योगिक कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है, लेकिन इस पर रोक की पहल बेहद कमजोर है। कड़े नियम और चुस्त निगरानी तंत्र की शिथिलता के कारण हर कोई बेरोकटोक अपशिष्ट नदियों में प्रवाहित कर रहा है, नतीजतन, गंगा-यमुना का रकबा या तटक्षेत्र लगातार सिकुड़ रहे हैं तो औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला रसायन पानी को जहर बना रहा है। मुल्क में नदियों की पवित्रता के नाम पर अब तक कई हजार करोड़ रुपए खर्च किया जा चुका है लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। तमाम घोषणाओं और अभियानों के बावजूद हालत यह है कि आज नदियां नाले की शक्ल ले चुकी हैं। हर साल देश की बड़ी आबादी जलप्रलय से सहमती है, पर यह डर उसके जेहन में कुछ दिन ही रहता है।
मालिण की भयावह त्रासदी, केदारनाथ में बढ़ती पर्यटन की गतिविधियों और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली कोशिशों ने ही प्रकृति को बदला लेने को विवश किया। प्रकृति की तरफ से ऐसा ही खतरा इस बार कश्मीर घाटी में चिनाब, झेलम, सिंधु और तवी नदियों के इर्द-गिर्द पैदा हुआ। नदियों के स्वाभाविक रास्तों को बंद करने का क्या नतीजा होता है, यह बिहार में लगभग हर साल कोसी नदी में आने वाली बाढ़ से स्पष्ट होता है। मानसून के दौरान जब भी नेपाल में भारी वर्षा के कारण कोसी में उफान आता है, उसका प्रकोप बिहार पर टूट पड़ता है। पिछले 50-55 साल से उत्तरी बिहार में रहने वाली 25-30 लाख से अधिक की आबादी कोसी नदी की बाढ़ का सामना कर रही है। छह साल पहले कोसी नदी में आई बाढ़ विशुद्ध प्राकृतिक नहीं थी, इसकी वजह नेपाल में बने बैराज में कुसहा नामक स्थान पर एक बड़ी दरार पैदा हो जाना था। तब 25-30 लाख लोग विनाशकारी बाढ़ से प्रभावित हुए थे। कुछ ऐसे ही दृश्य पिछले वर्ष उत्तराखण्ड में केदारनाथ त्रासदी के दौरान भी देखने को मिले थे। भारत में पिछले साल प्राकृतिक आपदाओं की वजह से करीब 21.40 लाख लोग विस्थापित हुए। संख्या के लिहाज से हम फिलीपीन और चीन के बाद तीसरे स्थान पर रहे। 2013 में भूकम्प या जलवायु जनित आपदाओं से दुनिया भर में 2.2 करोड़ लोग विस्थापित हुए जोकि पिछले साल संघर्षों की वजह से विस्थापित हुए लोगों की संख्या का करीब तीन गुना है। भारत में 2008 से 2013 के बीच कुल 2.61 करोड़ लोग विस्थापित हुए जोकि चीन के बाद सर्वाधिक है। चीन में इस दौरान 5.42 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे। अकेले पिछले साल भारत में प्राकृतिक आपदाओं की वजह से हुई तबाही में 21.4 लाख लोग विस्थापित हुए जबकि संघर्ष और हिंसा की वजह से विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या महज 64 हजार ही थी। भारत मूलत: गांवों का देश है। शहरी क्षेत्रों की तुलना में भारत के मानचित्र पर गांवों की उपस्थिति अधिक है। भारत की लगभग 72.2 फीसदी आबादी देश के लगभग 6 लाख, 38 हजार गांवों में निवास करती है जबकि शेष 27.8 फीसदी आबादी का जीवन बसर 5000 कस्बों एवं लगभग तीन सौ बड़े शहरों में होता है। आजादी के बाद से ही जहां शहरों की संख्या बढ़ी वहीं गांव कम हुए हैं। लगातार विरोध के बावजूद मुल्क में जंगलों और पहाड़ों का कटना बंद नहीं हो रहा। अभी कुछ नहीं बिगड़ा, हम अब भी नहीं चेते तो सच मानिए प्रकृति का विनाशकारी तांडव मानव का अस्तित्व तबाह कर देगा।

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