Sunday 14 September 2014

हिन्दी पर विधवा विलाप कब तक?

आज हिन्दी दिवस है और हम हिन्दी को लेकर विधवा विलाप कर रहें हैं, आखिर क्यों? यह दिवस पहली बार नहीं आया बल्कि 1949 से हम इसे सालाना उत्सव रूप में मना रहे हैं। हर साल की तरह आज भी हर मंच पर हिन्दी की दुर्दशा पर बहुत कुछ कहा-सुना गया। इससे किसी को वेदना हुई हो या नहीं हिन्दी उपासक होने के नाते मैं असहज हूं। गुस्सा भी आ रहा है, पर इजहार करूं भी तो किससे?
आज करोड़ों रुपये के हिन्दी कर्मकाण्ड पर ज्यादातर लोगों ने हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते इस्तेमाल और उसके भ्रष्ट होने पर जमकर छाती कूटी। मुल्क में हिन्दी को लेकर हम वर्षों से घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं लेकिन समस्या की जड़ में जाने का गंभीर प्रयास कभी नहीं हुआ। हम इतिहास पर गौर करें तो हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने 10 अक्टूबर, 1910 को एक प्रस्ताव पारित किया था कि विश्वविद्यालय शिक्षा में हिन्दी का आदर, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि का निर्धारण होगा। अफसोस सौ साल बाद भी हमारे शीर्ष विश्वविद्यालयों में हिन्दी को अब तक वह आदर नहीं मिल पाया जिसकी वह हकदार है। देश में हिन्दी के प्रति अनुराग उत्पन्न करने और उसकी श्रीवृद्धि के लिए प्रयत्न करना और हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए मानविकी, समाज शास्त्र वाणिज्य, विधि तथा विज्ञान और तकनीकी विषयों की पुस्तकों को लिखवाना और प्रकाशित करवाना गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। आजादी के करीब तीन दशक पहले लिए गए हमारे पुरखों के प्रण आज भी अधूरे हैं। हिन्दी दिवस पर हिन्दी की स्थिति पर विलाप करने से बेहतर होगा कि हम साहित्य सम्मेलन में करीब सौ साल पहले पारित प्रस्तावों पर गंभीरता से काम करने की कोशिश करें। नए रचनाधर्मियों को प्रोत्साहित करने के साथ उनसे हिन्दी में मौलिक लेखन शुरू करवाने का संजीदा प्रयास हिन्दी के उत्थान में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
हिन्दी के लिए हमें दूसरी भाषाओं पर तंज कसने की बजाय हमें अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सहोदर जैसा व्यवहार करना चाहिए। अंग्रेजी और हिन्दी की दुश्मनी से नुकसान दोनों पक्षों का होगा। महात्मा गांधी भी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे और वे इसको राष्ट्रभाषा के तौर पर देखना चाहते थे लेकिन गांधीजी ने कहा था कि हिन्दी का उद्देश्य यह नहीं है कि वह प्रांतीय भाषाओं की जगह ले ले। हमारा मुल्क फ्रांस या इंग्लैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा है। विविधताओं से भरे हमारे देश में दर्जनों भाषा और सैकड़ों बोलियां हैं, लिहाजा यहां आपसी समन्वय और सामंजस्य के सिद्धांत को लागू करना होगा। हमें यह सोचना चाहिए कि हिन्दी राजभाषा तो बनी लेकिन अंग्रेजी का दबदबा क्यों कायम रहा? जनता की भाषा और शासन की भाषा एक क्यों नहीं हो सकी? इसका बड़ा नुकसान यह हुआ कि हिन्दी को उसके हक से वंचित रहना पड़ा। अंग्रेजी के पैरोकारों ने ऐसा माहौल बनाया कि हिन्दी अगर हमारे देश की भाषा बन गई तो अन्य भारतीय भाषाएं खत्म हो जाएंगी।
हिन्दी कोे लेकर अगर हम सचमुच संजीदा हैं तो हमें भारतीय भाषाओं से संवाद को बढ़ाना होगा। अन्य भारतीय भाषाओं में यह विश्वास पैदा करना होगा कि हिन्दी के विकास से ही उनका भी विकास होगा। इस काम में भारत सरकार की बहुत अहम भूमिका है। उसको साहित्य अकादमी या अन्य भाषाई अकादमियों के माध्यम से बढ़ावा देने के उपाय खोजने होंगे। साहित्य अकादमी ने भाषाओं के समन्वय का काम छोड़ दिया है, लिहाजा एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच अनुवाद का काम भी गंभीरता से नहीं हो पा रहा। हिन्दी के समुन्त विकास के लिए भारत सरकार ने वर्धा में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का गठन किया था। लेकिन यह विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के लगभग डेढ़ दशक बाद भी अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है। इस विश्वविद्यालय के माध्यम से भी हिन्दी के विकास के लिए काम करने की अनंत सम्भावनाएं हैं जिस पर काम होना अभी शेष है। हिन्दी में शुद्धता की वकालत करने वालों को भी अपनी जिद छोड़नी होगी। नहींं तो हिन्दी के सामने भी संस्कृत जैसा खतरा उत्पन्न हो जाएगा। भारत सरकार के पत्रकारिता और मुद्रण शब्दकोश को आज के हिसाब से बनाने के प्रोजेक्ट से जुड़े होने के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि सरकारी कामकाज के लिए जिन शब्दकोशों का उपयोग होता है, वो बहुत पुराने हो चुके हैं। हिन्दी इस बीच काफी आधुनिक हो गई है। उसने अंग्रेजी के कई शब्दों को अपने में समाहित कर लिया है। इन शब्दकोशों को आधुनिक बना देने से सरकारी हिन्दी भी आधुनिक हो जाएगी। हमारे मन में यदि वाकई हिन्दी के विकास का जुनून है तो हिन्दी दिवस के नाम पर होती नौटंकी बंद कर इसे अधिक से अधिक कार्य-व्यवहार और अमल में लाएं।

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