Saturday 13 September 2014

भेदभाव मिटाएं, बेटियां बचाएं

समय परिवर्तनशील है। समय के साथ-साथ सब कुछ तेजी से बदलता जाता है। हमारी सोच, हमारा रहन-सहन, वातावरण सब कुछ। बदलाव का मूल कारण शिक्षा भी है। जो समाज जितना शिक्षित होगा, उसमें उतनी ही तेजी से बदलाव और विकास होगा। हमारे यहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा है और हम बदलाव भी महसूस कर रहे हैं। फिर भी कुछ जगहों पर कुछ लोगों की संकुचित मानसिकता की वजह से लिंगभेद आज भी हमारे समाज में व्याप्त है जोकि गंभीर बात है। बेटा-बेटी जब एक ही माता-पिता की संतान हैं तो भेदभाव क्यों? एक ही परिवार में उत्पन्न बेटा-बेटी में भेदभाव घर-घर में तो नहीं पर कुछ घरों में आज भी व्याप्त है, जोकि काफी दु:खद और निंदनीय है।
आज हमारे समाज के कुछ हिस्सों में कन्या भ्रूणहत्या बदस्तूर जारी है। पहले जहां नवदम्पति अपनी संतान के आने की खुशखबरी सुन फूला नहीं समाता था, वहीं आज संतान की खुशखबर सुनते ही पहले जांच करवाता है। जांच-परीक्षण में अगर लड़का आया तो ठीक, अगर लड़की आई तो एक नया नाटक शुरू। इसमें अगर  गर्भवती महिला विरोध करती है तो उस पर पूरे परिवार की तरफ से दबाव बनाया जाता है। इससे अन्याय और दुर्भाग्यपूर्ण बात दूसरी क्या हो सकती है? कुछ लोग मानते हैं कि लड़का ही घर का चिराग है और लड़की तो पराया धन है। लड़का ही वंश को आगे ले जाने में सक्षम है, लड़की बोझ है, उसके सयानी होने से शादी-विवाह तक अनेक जोखिम हैं। यह सोच न केवल गलत है बल्कि जोखिमपूर्ण भी है। आज हम देखें तो हर क्षेत्र में बेटियां आगे निकल रही हैं। चाहे वह क्षेत्र कला का हो, खेल का हो, व्यवसाय, तकनीक या राष्ट्रीय-अंतरराष्टÑीय स्तर पर प्रतियोगिता की ही बात हो, हर जगह बेटियां बेटों से कहीं अधिक कामयाब हैं। अंतरिक्ष में जाने की बात हो या फिर एवरेस्ट पर पहुंचने की, बेटियां हर जगह परचम लहरा रही हैं, फिर भी बहुत सारे ऐसे राज्य हैं जहां लड़कियों की संख्या बहुत कम है। इसका प्रमुख कारण कन्या भ्रूणहत्या ही है। बेटा हो या बेटी, वह स्वस्थ हो, संस्कारी हो यही काफी है। बेटियां तो वैसे भी घर की खिलखिलाहट होती हैं। उनके बिना घर-घर नहीं लगता। बेटे से ज्यादा बेटियां रिश्तों को समझती हैं। जरूरत पड़ने पर मां-बाप की सेवा करती हैं। उनमें बचपन से ही सहयोग की भावना होती है। घर के छोटे-छोटे कामों में वे अक्सर मां का हाथ बंटाती हैं। यह  भी सच है कि वे कम उम्र में ही घर की पूरी जिम्मेदारी सम्हालने में भी पीछे नहीं रहतीं।
बेटा हो या बेटी, हैं तो मां-बाप का अंश ही, बावजूद बेटियों के साथ भेदभाव हो रहा है। हम और आप जब तक अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक कुछ भी हासिल नहीं होगा। किसी भी समाज के विकास में महिला और पुरुष का बराबर योगदान होता है फिर हम बेटियों को क्यों इस दृष्टि से देख रहे हैं? बहू तो हर किसी को चाहिए पर बेटी नहीं। जब बेटी ही नहीं रहेगी तो बहू कहां से लाएंगे। हर घर में बेटा हो तो उस घर को एक बहू भी चाहिए। बिना किसी के घर से बेटी लाए क्या बहू की आवश्यकता पूरी की जा सकेगी। मुल्क में लिंगभेद का मुख्य कारण अशिक्षा है। हम जब शिक्षित होते हैं तो हमारी सोच भी विस्तृत हो जाती है। हमें सही और गलत का बोध होने लगता है। वहीं गांवों में आज भी अंधविश्वास जडेंÞ जमाए हुए है, जिससे हमें बाहर निकलना होगा। ऐसा नहीं कि शिक्षित समाज में लिंगभेद नहीं है, पर तुलनात्मक दृष्टि से कम है। आज राज्यों और केन्द्र सरकार द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही हैं जिनमें बालिकाओं को समान अवसर मिल रहे हैं। बालिका शिक्षा योजना, बालिका पोशाक योजना, साइकिल योजना और बालिका विवाह जैसी योजनाओं का मकसद बेटियों को शिक्षित कर समाज की मुख्यधारा से जोड़ना है। अब तो सरकारें उन्हें मैट्रिक और इंटर में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने पर छात्रवृत्ति भी दे रही हैं। सरकार की यह पहल वाकई सराहनीय है। इन तमाम योजनाओं का लाभ हम तभी उठा सकेंगे जब हमारे आसपास भी ऐसा ही माहौल बने। घर में जब समानता का वातावरण रहेगा, कहीं कोई भेदभाव नहीं रहेगा तभी हमारी बेटियां खुलकर सांस ले पाएंगी वरना तमाम योजनाएं धरी की धरी रह जाएंगी। बेटियों को बचाना है तो हमें अपने आसपास के लोगों को जागरूक कर उन्हें लिंगभेद के दुष्परिणाम से अवगत कराना होगा। एक स्वस्थ समाज के लिए भेदभाव का मिटना और मिटाना अति आवश्यक है। तभी हम अर्द्धनारीश्वर की कल्पना को साकार कर पाएंगे।
        

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