Sunday 21 September 2014

विधवाओं पर सियासत

मथुरा से भाजपा सांसद हेमा मालिनी ने धार्मिक नगरी में विधवाओं को लेकर जो कहा, उस पर सियासत तेज हो गई है। लोग अपना-अपना ज्ञान बांट रहे हैं, अर्थ का अनर्थ निकाल रहे हैं। हेमा के कहे पर अनर्गल प्रलाप से विधवाओं के मायूस चेहरों पर खुशी की लहर नहीं दौड़ेगी, बल्कि उनका दर्द ही बढ़ेगा। हेमा मूलत: दक्षिण भारत से हैं, महाराष्ट्र में हिन्दी फिल्म जगत से उन्हें रोजगार, पहचान और प्रसिद्धि मिली, पंजाब के व्यक्ति से विवाह किया और उत्तर प्रदेश से वे सांसद हैं। इस तरह अपने व्यक्तिगत व पेशेवर जीवन में उन्होंने अपनी सुविधानुसार देश के विभिन्न क्षेत्रों व राज्यों का इस्तेमाल किया है। इस दौरान कभी, कहीं, किसी ने भी उनके स्थानीय या बाहरी होने पर सवाल नहीं उठाया।
हेमा पर गुस्सा करने वालों को उस समाज को सुधारने की पहल करनी चाहिए जहां आज भी विधवाओं को हेयदृष्टि से देखा जाता है। हेमा ने कहा कि वृंदावन की विधवाएं अच्छी आय और बैंक बैलेंस होने के बावजूद आदतन भीख मांगती हैं। पश्चिम बंगाल और बिहार की विधवाएं मथुरा में आकर रहती हैं जिससे यहां भीड़ बढ़ती जा रही है। अगर ये महिलाएं यहां की नहीं हैं तो उन्हें यहां आने की जरूरत नहीं है। पश्चिम बंगाल और बिहार में भी कई बड़े मंदिर हैं ये महिलाएं वहां भी रह सकती हैं। मथुरा में पहले से ही 40 हजार विधवा महिलाएं हैं जिनके रहने की व्यवस्था नहीं हो पा रही है ऐसे में दूसरे राज्यों से आई महिलाएं कहां रहेंगी। हेमा ने कहा कि इस बारे में वे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बात करेंगी और केन्द्र सरकार से भी चर्चा करेंगी, जिससे इन महिलाओं के रहने की व्यवस्था उनके राज्यों में ही हो सके।
दरअसल, वृंदावन की महिलाओं का जीवन और उनकी दशा हमारे समाज का ऐसा चेहरा है, जिस पर हमें शर्मिंदगी महसूस होना चाहिए। देश में घंटों सार्थक-निरर्थक चर्चाएं स्त्रियों की दशा-दिशा, उनके अधिकारों पर होती हैं। कुछ चर्चाओं का नतीजा यह निकला कि बेटियों को पिता की सम्पत्ति में हक मिलने लगा, उन्हें पढ़ने, काम करने और आगे बढ़ने के अधिक अवसर प्राप्त होने लगे, संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण नहीं मिला, लेकिन फिर भी राजनीति में भी उनकी सक्रिय उपस्थिति दर्ज होने लगी, यौन उत्पीड़न की खबरें जो पहले दबा दी जाती थीं, अब उनकी प्राथमिकी दर्ज करने की हिचकिचाहट खत्म होने लगी। सती प्रथा और गुलाम बनाकर खरीदने-बेचने की प्रथा से लेकर सशक्तीकरण की इस राह पर बढ़ने का यह सफर कठिन था। इसमें लगभग स्त्रियों के तमाम वर्गों की चिन्ताओं पर ध्यान दिया गया। वेश्याएं, देवदासियां, दहेज प्रताड़ित, यौन उत्पीड़ित, मजदूर, दलित, ग्रामीण, कामकाजी हर वर्ग की महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने पर विमर्श हुए। इस विमर्श में विधवाओं को भी शामिल किया गया है, किन्तु खेद यह है कि इतने सालों में भी हमारे समाज में विधवाओं के जीवन में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। विधवाओं के साथ समाज के एक बड़े वर्ग के साथ जो व्यवहार है, उसने इस शब्द को अपमान का ही विकल्प बना दिया है। भारत में विधवाएं अब सती नहीं होतीं, लेकिन उनका जीवन कठिन परीक्षाओं की अग्नि में जलते हुए ही बीतता है। विधवाएं सज-संवर नहीं सकतीं, शुभ कार्यों में हिस्सा नहीं ले सकतीं, दूसरे विवाह के लिए आसानी से समाज और परिजन तैयार नहीं होते, कानून होते हुए भी पति की सम्पत्ति प्राप्त करने में उन्हें कठिनाई होती है, ऐसी बहुत सी पीड़ाएं विधवाओं के जीवन में पति की मृत्यु के दु:ख के साथ ही आ जाती हैं। जिनसे उबरने के लिए ही वे शायद धर्म और ईश्वर भक्ति का सहारा लेती हैं। वृंदावन में बड़ी संख्या में विधवाओं के आने का धार्मिक और समाजशास्त्रीय कारण शायद यही है। वृंदावन कृष्ण और राधा की नगरी है। हो सकता है इनकी भक्ति और सेवा में विधवाओं को मानसिक सुख की अनुभूति होती हो। कृष्ण की अन्यतम भक्त मीराबाई भी एक विधवा थीं और उनका पूरा जीवन कृष्ण भक्ति को ही समर्पित था। मुमकिन है विधवाओं के वृंदावन आने के पीछे यह भी कोई पहलू हो। वैसे इसका सही विश्लेषण समाजशास्त्रीय ही कर सकते हैं। शेष राज्यों की अपेक्षा बंगाल से विधवाएं वृंदावन अधिक आती हैं। यहां उनकी जीविका भिक्षा, मंदिरों में भजन गाने और स्वयंसेवी संगठनों व गैर सरकारी संगठनों के दान व आश्रय से ही चलती है। आंकड़े बताते हैं कि लगभग छह हजार विधवाएं वृंदावन में रहती हैं। सफेद साड़ी में लिपटी ये जीती-जागती महिलाएं काली, एकदम स्याह जीवन बिताती हैं। जिसमें कभी उन्हें दुत्कार मिलती है, कभी शोषण और कभी-कभी किसी की दया भी। हेमा राजनीतिज्ञ नहीं हैं, वरना वे अपने इसी कटु सत्य को दीगर बोल दे पातीं। खैर, वे सांसद हैं और इतनी सक्षम भी कि इन विधवाओं के पुनर्वास के लिए कोई ठोस योजना सामने लातीं। बजाए अपने राज्य में रहने और मंदिरों में ही आश्रय लेने की जगह वे उन्हें यह संदेश देने की कोशिश करतीं कि उनके पति की मौत का अर्थ उनके जीवन का निरर्थक होना नहीं है, वे अपने जीवन को बेहतर बना सकती हैं और इसमें वे उनकी मदद करेंगी। एक सांसद के लिए छह हजार लोगों की मदद करना कोई कठिन बात नहीं है। खेद है कि हेमा मालिनी के बयान में न स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई दी, न जनप्रतिनिधि होने का दायित्वबोध न भारतीय होने की गरिमा। हेमा ने जो कहा सो कहा पर हर पल कष्टों को अभिशप्त विधवा माता-बहनों को लेकर हमें सियासत नहीं करनी चाहिए। 

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