Friday, 12 September 2014

नजरिया बदलता कश्मीर

इन दिनों धरती का स्वर्ग मुसीबत में है।  मुसीबत के इन क्षणों ने कश्मीरियों को न केवल सामर्थ्यवान बनाया है बल्कि उनकी नजर और नजरिए को भी बदला है। कल तक सेना को अपनी आंखों की किरकिरी मानने वाली कश्मीरी आवाम आज सैनिकों के सेवाभाव की मुरीद है। संकट में साथ देना भारतीय संस्कृति का उसूल है। यही वजह है कि आज हर हिन्दुस्तानी आतंक की जमीन को अपनी मदद और स्नेह से सराबोर कर देना चाहता है। जम्मू-कश्मीर में धीरे-धीरे जलस्तर कम हो रहा है, पर त्रासदी की जो तस्वीरें अब सामने आ रही हैं, वे चीख-चीख कर बता रही हैं कि जख्म कितना गहरा है।
सेना और आपदा बचाव बलों की तमाम मुस्तैदी के बाद भी अब भी लाखों लोग गहरे संकट में फंसे हुए हैं। बचाव और राहत का काम तो हो रहा है पर अनियोजित तरीके से। पीड़ितों को मालूम ही नहीं कि वे कहां और किससे मदद मांगें। अपना दर्द बयां करें भी तो किससे? इस जल प्रलय में सैकड़ों लोग काल के गाल में समा गये तो हजारों लोग विस्थापित जीवन बसर कर रहे हैं। सैकड़ों गांव आज भी जलमग्न हैं। कुदरत के कहर से जम्मू-कश्मीर के प्राकृतिक सौंदर्य को भी ग्रहण लगा है। दुनिया भर के सैलानियों के कदम ठिठक गये हैं। कश्मीर में जल प्रलय का यह पहला मौका नहीं है। इससे पहले वर्ष 2010 में भी लेह में बाढ़ से भारी तबाही मची थी और सौ से ज्यादा लोग मौत के आगोश में समा गये थे। तब भी जनजीवन सामान्य होने में काफी वक्त लगा था। 2010 की बनिस्बत इस बार संकट कहीं ज्यादा गहरा है।
झेलम सहित दो नदियों ने जिस तरह अपना रौद्र रूप दिखाया उससे समूचे सूबे में पहले से ही लचर यातायात, दूरसंचार और बिजली व्यवस्था और चरमरा गई है। बाढ़ के कहर से दक्षिण कश्मीर के कई जिलों सहित राजधानी श्रीनगर, उच्च न्यायालय परिसर, सचिवालय और सैनिक छावनी भी जलमग्न हो गये। प्रकृति का यह गुस्सा सीमाओं के सारे बंधन तोड़ पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर तक भी जा पहुंचा। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्थिति काफी गम्भीर है।
मुसीबत के वक्त प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न केवल कश्मीरियों के आंसू पोछे बल्कि पाकिस्तान को भी मदद का भरोसा दिया है। संकट की इस घड़ी में अब यह पाकिस्तानी हुक्मरानों के विवेक पर निर्भर करता है कि वे इस प्राकृतिक मुसीबत में भारत की मदद लेना चाहेंगे या नहीं। जम्मू-कश्मीर में फिलवक्त युद्ध स्तर पर राहत व बचाव कार्य चल रहा है। केन्द्र से एक हजार करोड़ रुपए की सहायता की घोषणा के साथ-साथ समूचा भारत कश्मीर की मदद को तैयार है। स्वयं सेवी संगठन भी मदद को आगे आए हैं।
धरती के स्वर्ग की वैभव बहाली को सशस्त्र बल तेजी से राहत कार्य को अंजाम दे रहे हैं तो बाढ़ में फंसे लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया जा रहा है। राहत कार्य सुचारु रूप से चलें, इसके लिए आपदा निगरानी केन्द्र खोला गया है। संकट के इन क्षणों में केन्द्र और राज्य सरकार के साझा प्रयास सराहनीय हैं तो चुनौतियां भी कम नहीं हैं। जल प्रलय के कारण जम्मू-कश्मीर केवल पानी से ही नहीं बल्कि चहुंओर अन्य मुसीबतों से भी घिरा हुआ है। बाढ़ का पानी तो उतर रहा है पर जनजीवन सामान्य होने में वक्त लगेगा। विस्थापितों का पुनर्वास, भूस्खलन में नष्ट हुए गांवों का पुन: विस्थापन, बारिश के बाद सम्भावित महामारी के खतरे से निपटने के साथ  बिजली, दूरसंचार, यातायात आदि व्यवस्थाएं बहाल करना काफी चुनौतीपूर्ण काम है। सच कहें तो यह काम राज्य सरकार अपने बूते नहीं सकती। कश्मीर को इन तमाम मुश्किलों से निजात दिलाने में मोदी सरकार को हर मुमकिन मदद करनी होगी।
जम्मू-कश्मीर में रोजगार का एक बड़ा जरिया पर्यटन उद्योग है, जो जल प्रलय से पूरी तरह चौपट हो गया है। इसे शीघ्रातिशीघ्र पटरी पर न लाया गया तो यहां रोजगार का गहरा संकट पैदा हो जाएगा। जम्मू-कश्मीर सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील राज्य है। यहां पाकिस्तान से अक्सर घुसपैठ होती है। आतंकी हमेशा सीमा पार करने की फिराक में रहते हैं। इस अवसर का लाभ वे किसी सूरत में न उठा पाएं इस पर सुरक्षा बलों को कश्मीरियों की मदद के साथ चौकसी रखनी होगी। पिछले कुछ वर्षों में जम्मू-कश्मीर की आंतरिक स्थिति भी पेंचीदा रही है। सरकार पर अविश्वास का भाव यहां दशकों से जड़ें जमाए है। बाढ़ का पानी उतरने के बाद यहां कानून-व्यवस्था की समस्या भी खड़ी होने से इंकार नहीं किया जा सकता। कश्मीर की ताजा तबाही ने आपदा प्रबंधन की हमारी खामियों की तरफ ध्यान दिलाने के साथ ही पर्यावरण से जुड़े कुछ सबक भी दिए हैं। सवा साल पहले उत्तराखण्ड में प्रलय के बाद अब एक और हिमालयी राज्य में प्रकृति का ताण्डव खतरे का ही संकेत है। आज नदियों-झीलों के किनारे अतिक्रमण, तटीय क्षेत्रों को कचरे से पाटने और जंगलों की अंधाधुंध कटाई, पारिस्थितिकी के लिहाज से नाजुक क्षेत्रों में खुदाई तथा भूस्खलन क्षेत्रों में लगातार सड़कों का निर्माण गहरी चिन्ता पैदा कर रहे हैं। नदियों और झीलों का सिकुड़ना अच्छी बात नहीं है। माना कि बाढ़ से बचाव को तटबंध बनाए जाते हैं, पर ये मामूली बाढ़ से राहत तो दे सकते हैं लेकिन अप्रत्याशित बाढ़ का मुकाबला करना कतई सम्भव नहीं है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव लम्बे समय से देखा जा रहा है। इसे हम जम्मू-कश्मीर से पहले उत्तराखण्ड, उससे पहले मुम्बई, सूरत और बीकानेर में भी देख चुके हैं। भारत विकास मोह का शिकार है, यहां हर नेक पहल राजनीतिज्ञों के नफा-नुकसान से चलती है। यही वजह है कि नदियों के तटीय नियमन अधिनियम की 1982 की अधिसूचना आज तक लागू नहीं हो सकी और केन्द्रीय जल आयोग की सिफारिशें भी धूल फांक रही हैं। संकट की इस घड़ी में देशवासियों की बेपनाह मोहब्बत से जहां कश्मीरियों का दर्द कम हुआ है वहीं आतंकवाद भी सहमा है। 

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