Saturday 4 April 2015

साइकिल पर जनता परिवार

राजनीति में कुछ भी गलत और कुछ भी सही नहीं होता। सब कुछ  इस बात पर निर्भर है कि किसका, कितना लाभ होता है। सारे फैसले, जरूरत और स्वहित के लिए होते हैं। यहां अच्छा-बुरा कुछ नहीं होता है। जो दिन में बुरा होता है वही शाम को अच्छा लगने लगता है। कम से कम भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में आजकल कुछ यही हो रहा है। नरेन्द्र मोदी को दिल्ली में बेशक आप ने आईना दिखाया हो पर अधिकांश राज्यों में कमल दल को अकेले टक्कर देने की किसी दल में ताकत नहीं दिखती। कांग्रेस मन से हार मान चुकी है तो दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, जनता दल सेक्युलर, भारतीय राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय) पर मोदी मैजिक हावी है। छह दलों का जनता परिवार इन दिनों गलबहियां कर रहा है। मोदी को राजनीतिक चक्रव्यूह में फंसाने की जनता परिवार की चाल कितना कारगर होगी यह तो समय बताएगा पर मतलब की इस एका से कांग्रेस भी सकते में है।
आम चुनाव में बुरी तरह मात खाने के बाद सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव और मोदी से खुला पंगा लेने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की समझ में ही नहीं आया था कि उनकी सियासत अनायास अर्श से फर्श पर कैसे आ गई। उस पराजय के बाद से ही छोटे-छोटे राजनीतिक दलों में मोदी के खिलाफ साझा मोर्चा बनाने की विवशता दिखाई देने लगी थी। 16 मई, 2014 से पूर्व नीतिश को लालू नहीं भा रहे थे तो मुलायम भी खासी अकड़ में थे। भला हो उनके पारिवारिक कुनबे का जोकि बमुश्किल संसद की सीढ़ी चढ़ पाये। लोकसभा चुनाव से पहले आज के इस जनता परिवार का हर दल चाहे वह सत्ता में रहा हो या सत्ता से बाहर अपने आपको बाहुबली मान रहा था, लेकिन जब परिणाम निकले तो मोदी की सुनामी में सबके मंसूबे बह गये। हिन्दीभाषी दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में मुलायम सिंह और नीतिश कुमार की जो फजीहत हुई उसकी तो किसी राजनीतिक विश्लेषक ने भी उम्मीद नहीं की थी। इन दो राज्यों से 140 सदस्य संसद की सीढ़ी चढ़ते हैं। उस पराजय के बाद ही छोटे-छोटे दलों को यह एहसास हुआ कि यदि अब एक नहीं हुए तो देश भर में कमल खिल जाएगा।
नीतिश कुमार के सबसे कटु आलोचक लालू यादव जो स्वयं भी उनके हाथों हारने से पहले 10 साल तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे हैं, उन्होंने भी मुख्यमंत्री नीतिश कुमार से हाथ मिलाने में अपनी गनीमत समझी। नतीजा यह रहा कि इन दोनों ने साथ मिलकर बिहार उप चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया और वहां पर भाजपा केन्द्र में खुद की सरकार होने के बावजूद अपनी पुरानी कहानी नहीं दोहरा पायी। जो भी हो पिछले साल नवम्बर में हुए जनता परिवार एकीकरण के प्रयास एक बार फिर नए सिरे से कुलबुलाने लगे हैं। एका की इस बेचैनी की वजह इसी साल बिहार और 2017 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधान सभा चुनाव हैं। इन राज्यों से पहले पश्चिम बंगाल में भी चुनाव होने हैं लेकिन ममता बनर्जी उत्तर भारत की इस एका पर कोई दिलचस्पी नहीं लेना चाहतीं।
आगामी विधान सभा चुनावों में भाजपा को जीत से दूर रखने के लिए पांच अप्रैल को सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के घर न केवल जनता परिवार पर अंतिम मुहर लगने की सम्भावना है बल्कि ये राजनीतिक अलम्बरदार एक झण्डे और एक निशान के नीचे भी आ सकते हैं। यदि ऐसा सम्भव हुआ तो इन दलों के सबसे प्रभावी नेता मुलायम सिंह न केवल जनता परिवार के मुखिया होंगे बल्कि इनका चुनाव चिह्न भी साइकिल हो सकता है। जनता परिवार के एकीकरण से इतर मोदी और भारतीय जनता पार्टी के तेवर और ताकत को देखें तो मोदी सरकार जो कहकर सत्ता में आई थी, वैसा 10 माह के शासनकाल में कुछ भी नहीं हुआ। देश के जो हालात हैं उसे देखते हुए साल के अंत तक इसमें और क्षरण हो जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भूमि अधिग्रहण अधिनियम को भाजपा ने जिस तरह नाक का सवाल बनाया है उसे देखते हुए मोदी सरकार पर किसान विरोधी होने का ठप्पा लग गया है। राजनीति में असम्भव नाम का कोई शब्द नहीं होता, ऐसे में छह दलों के जनता परिवार में सौदेबाजी से भी इंकार नहीं किया जा सकता। स्थानीय पार्टियों को मिलाकर जनता परिवार तो बन जाएगा पर यह कितने दिन का होगा इसकी गारण्टी भी बहुत कम है। देश के राजनीतिक इतिहास में इससे पूर्व भी कई गठबंधन अस्तित्व में आए लेकिन वे लम्बी रेस का घोड़ा कभी साबित नहीं हुए। देश में इमरजेंसी के बाद हुए चुनावों में जनता पार्टी के रूप में एक गठबंधन सरकार बनी थी लेकिन यह सरकार अपने ओछे कारनामों से तीस महीने में ही बिखर गई थी। इस बिखराव की वजह इसके तीन शीर्ष नेताओं मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं रहीं। इस टूटन के बाद 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनता की तालियों के बीच प्रधानमंत्री पद सम्हाला था लेकिन मंडल-कमंडल के प्रयोग से वह भी 11 माह में ही लोगों की आंख की किरकिरी बन गये। खैर, इन दिनों भारतीय राजनीति में जनता परिवार के विलय को लेकर खासी दिलचस्पी देखी जा रही है। छह दलों के इस कुनबे को समाजवादी जनता दल या समाजवादी जनता पार्टी के नाम से जाना जाएगा। इस नये गठबंधन की मुखालफत करने वालों का कहना है कि चूंकि मोदी सरकार भारत की मूल भावना के खिलाफ  काम कर रही है, यही वजह है कि समाजवादी विचारधारा के पुराने लोग देश बचाने के लिए एकजुट हो रहे हैं। इस राजनीतिक एकजुटता का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो समय बताएगा पर आने वाले कुछ दिनों में भारतीय राजनीति का परिदृश्य जरूर बदला-बदला सा नजर आएगा।
(लेखक पुष्प सवेरा के समाचार संपादक हैं।)

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