Saturday 11 April 2015

सपनों के सौदागर

इसी साल के अंत में बिहार में विधान सभा चुनाव होना हैं। चुनाव में अभी आठ माह का समय होने के बावजूद राजनीतिक दल पैंतरेबाजी शुरू कर चुके हैं। बिहार में राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो समय और मतदाता तय करेगा, फिलहाल यहां का राजनीतिक परिदृश्य इस कदर बदल चुका है कि लगता ही नहीं मतदाता कोई ठोस निर्णय ले पाएगा। 2014 के आम चुनावों में मिली अपार सफलता के बाद से ही कमल दल बिहार को लेकर मदमस्त है। उसे बिहार की सल्तनत मुट्ठी में आई लग रही है, जबकि यहां के बिगड़े समीकरणों पर फतह पाना भाजपा ही नहीं किसी भी दल के लिए आसान बात नहीं होगी।
राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता, यह बात राजनीतिक दलों के बेमेल गठजोड़ों से बार-बार सच साबित हो रही है। एक-दूसरे के धुर राजनीतिक विरोधी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की हालिया एका  बेशक बिहार में कोई कमाल न दिखा पाये पर इन बदले समीकरणों ने कमल दल की पेशानियों में जरूर बल ला दिया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जहां बिहार की आवाम की ख्वाहिशें पूरी करने में अक्षम साबित हुए हैं वहीं लालू और उनकी जुगलबंदी के पास जात-पात की जोड़-तोड़ के अलावा कोई ठोस राजनीतिक मुद्दा भी नहीं है, जिससे बिहारियों को बहलाया-फुसलाया जा सके। फिलवक्त बिहार में जात-पात की कश्मकश ऐसे मोड़ पर है, जिसमें जीतन राम मांझी तुरुप का इक्का साबित होते दिख रहे हैं। मांझी बिहार की आवाम को मझधार से बाहर निकालने की ताकत तो नहीं रखते लेकिन उनके मैदान में ताल ठोकने मात्र से ही जनता परिवार की दम जरूर निकल सकती है। बिहार में भाजपा यही कुछ चाहती भी है।
भारतीय जनता पार्टी के पास लालू प्रसाद यादव या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को मात देने का एकमात्र अस्त्र सुशील मोदी हो सकते थे लेकिन इन्हें भी अपनी ही पार्टी की जड़ों पर मठा डालने की बुरी आदत है। नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को नाराज कर जहां अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली वहीं कमल दल की उम्मीदों को भी पर लगा दिए हैं। स्थितियां कैसी भी हों सुशील मोदी अपनी ही पार्टी के तेज-तर्रार नेताओं का मानमर्दन कर सूबे का सरताज बनने की हसरत जरूर पाले हैं। नीतीश कुमार की जहां तक बात है वह अपने शासनकाल में जनता से किए वायदे पूरे करने में जहां नाकामयाब साबित हुए वहीं जीतन राम मांझी को अपमानित कर लगभग 10 फीसदी महादलितों को भी नाराज कर दिया है। दलितों की इस नाराजगी के चलते लालू-नीतीश का जनता परिवार बिहार में अपना राजनीतिक अभीष्ट पूरा कर पाएगा इसमें संदेह है।
बिहार में महादलित वोट बैंक की जहां तक बात है, यह अब तक जदयू और राजद के हाथों ही खेलता रहा है। भाजपा ने इस वोट बैंक को हासिल करने के प्रयास तो किए लेकिन उसे सफलता कभी नहीं मिली। जीतन राम मांझी और नीतीश कुमार के बीच हुए पंगे के बाद कमल दल को उम्मीद बंधी है कि वह इन वोटों का ध्रुवीकरण कर अपनी हसरत पूरी कर सकता है। बिहार में नीतीश कुमार ताकतवर तो हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने भूमि सुधार, समान स्कूल शिक्षा प्रणाली और कृषि रोड मैप की जो तीन बातें प्रमुखता से कही थीं उन्हें आठ साल बाद भी वे धरातल नहीं दे पाए हैं। नीतीश कुमार 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। 2006 में भूमि सुधार आयोग का गठन हुआ और डी. बंदोपाध्याय के नेतृत्व में भूमि सुधार आयोग ने 2008 में अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंप दी थी। इसके तहत 12 लाख एकड़ जमीन को सरकारी या भूदान समिति के नियंत्रण से मुक्त कराकर भूमिहीनों में बांटने और पर्चारहित अलग बटाईदारी कानून आदि बनाने की सिफारिश के बाद भी इसे लागू नहीं किया जा सका।
नीतीश कुमार ने बिहार की आवाम से समान स्कूल शिक्षा प्रणाली का भी वादा किया था। प्रोफेसर मुचकुंद दुबे ने समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग की सिफारिश 2007 में राज्य सरकार को पेश तो की लेकिन वह भी धरातल पर उतरती नहीं दिखी। इससे संवैधानिक प्रावधान के बावजूद छह से 14 साल की उम्र के बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा मुहैया नहीं हो पाई। नीतीश ने राज्य के सभी बच्चों को उनके घर के पास ही समान स्तर की शिक्षा मुहैया कराने का भरोसा भी दिया था लेकिन इस योजना का भी बच्चों को कोई लाभ नहीं मिला। सपनों के सौदागर नीतीश ने राज्य में खेती को नया रूप देने के लिए वीएस व्यास कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर कृषि रोड मैप तो तैयार कराया लेकिन राजनीतिक खींचतान के चलते सारी सिफारिशें फाइलों में ही दफन हो गर्इं। झारखण्ड के अलग होने के बाद बिहार के पास प्राकृतिक संसाधन के नाम पर बचे जल और जमीन का भी नीतीश सरकार समुचित इस्तेमाल नहीं कर सकी।
नीतीश कुमार केन्द्र की मोदी सरकार को लेकर खूब तंज कसते हैं लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि जब तक सामंती ताकतों के गठजोड़ से हुकूमतें चलेंगी तब तक गरीब और मजदूरों के हित में क्रांतिकारी फैसले नहीं लिए जा सकते। आज जब समूची दुनिया आर्थिक राह चल रही हो ऐसे में गरीबों के पक्ष में खड़ा होने के लिए न केवल हौसला चाहिए बल्कि कुर्सी का मोह त्यागने की हिम्मत भी जरूरी है। जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से बिहार देश में पहले स्थान पर है। ऐसे में यहां भूमि की उपलब्धता सबसे बड़ी समस्या है। नीतीश ही नहीं हर राजनीतिज्ञ को पता है कि बिहार में भूमि सुधार, कृषि विकास और बच्चों की शिक्षा को लेकर अच्छी सोच और मेहनत से जो रिपोर्ट तैयार हुई वह क्यों और कैसे राजनीतिक दुर्घटना और प्रशासनिक जड़ता का शिकार हो गई। नीतीश कुमार और लालू यादव को गरीबों के सपनों की सौदागरी करने की बजाय बिहार की आवाम का दुख-दर्द दूर करने के प्रयास करने चाहिए। 

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