Tuesday, 21 April 2015

नेताजी का विवाद कालातीत

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आजादी के मसीहा ही नहीं भारतीय युवा तरुणाई के आदर्श हैं। उनकी तुलना किसी और से की ही नहीं जा सकती।  नेताजी की मौत बेशक रहस्य हो पर उनसे जुड़ी गोपनीय फाइलों के बहाने जो राजनीतिक खेल खेला जा रहा है, वह उन शख्सियतों का घोर अपमान है जिन्होंने देश की आजादी के लिए त्याग और बलिदान दिया है। गोपनीय दस्तावेजों में कुछ भी हो, पर जो लोग हमारे बीच हैं ही नहीं उन पर शोर मचाना न केवल अप्रासंगिक है बल्कि उनकी महानता का अनादर भी। देश की आजादी में नेताजी का क्या योगदान रहा, इस पर आज भी हर हिन्दुस्तानी को नाज है। नेताजी आज भी हर भारतवासी के दिलों में रचे-बसे हैं।
हिन्दुस्तान में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अलावा दूसरा और कोई ऐसा इंकलाबी हुआ ही नहीं जिस पर जीते जी और उनके निधन के बाद इतना विवाद रहा हो। नेताजी पर निगहबानी की जहां तक बात है इसकी शुरुआत अंग्रेजी राज में ही हो गई थी। 1930 के दशक में अंग्रेजों ने कोलकाता स्थित नेताजी के दोनों मकानों में सीआईडी का पहरा बिठा दिया था। वही वह दौर था जब सुभाष चन्द्र बोस और उनके बड़े भाई शरत चन्द्र बोस बंगाल में स्वतंत्रता आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे थे। नेताजी को पहली बार 1941 में नजरबंद किया गया था, पर वे पुलिस को चकमा देकर एल्गिन वाले मकान से बमुश्किल निकल कर नाजी वाले शासन जर्मनी में जाकर न केवल रुके बल्कि उन्होंने एडोल्फ हिटलर से भारत की आजादी के लिए सहयोग भी मांगा। हिटलर से सहयोग मांगने पर न केवल नेताजी से अंग्रेज नाराज हुए बल्कि कांग्रेसियों ने भी उनका साथ छोड़ दिया।
देश की आजादी के बाद से ही देश की आवाम यह जानने को बेचैन है कि नेताजी की मौत कैसे और किन परिस्थितियों में हुई। भारतीय जनता पार्टी जब तब नेताजी की मौत को लेकर कुछ न कुछ कहती रही है। पिछले साल नेताजी की सालगिरह पर यह कहा गया था कि यदि भाजपा सत्ता में आई तो नेताजी की फाइलों को सार्वजनिक किया जाएगा। पिछली दो फरवरी को प्रधानमंत्री कार्यालय ने आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल को बताया था कि पीएमओ के पास मौजूद नेताजी की फाइलों को सार्वजनिक करना दूसरे देशों के साथ रिश्तों को पूर्वाग्रस्त तरीके से प्रभावित कर सकता है। पीएमओ ने कुछ ऐसा ही जवाब मिशन नेताजी को भी दिया था। मिशन नेताजी वर्ष 2006 से लगातार इन फाइलों को सार्वजनिक किए जाने की लड़ाई लड़ रहा है। नेताजी और उनके परिजनों के पत्रों की जहां तक बात है, ये कोलकाता स्थित राज्य आईबी मुख्यालय की दराजों में बंद हैं। इस बारे में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हमेशा से ही इंकार करती रही हैं। नेताजी के प्रपौत्र अभिजीत राय की कही सच मानें तो 1947 से 1968 तक की गई नेताजी की जासूसी व अन्य दस्तावेजों की कोई 64 फाइलें पश्चिम बंगाल सरकार के पास हैं। अभिजीत राय का कहना है कि पिछले सप्ताह जिन दो फाइलों के कारण समूचे देश में सनसनी फैली वे कोलकाता में लार्ड सिन्हा रोड स्थित विशेष शाखा कार्यालय के एक लॉकर में बंद हैं। बकौल राय 62 अन्य फाइलें भी इसी कार्यालय में हैं, जिन्हें सार्वजनिक किए जाने में हीलाहवाली की जा रही है।
दरअसल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के गोपनीय दस्तावेजों से परदा उठाने का काम केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने किया है। जानकारों का मानना है कि नेताजी से जुड़ी हर फाइल अब दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में हैं। नेताजी की जासूसी का स्याह सच क्या है, इससे इतर जिस तरह कालातीत मामलों को लेकर आज तमाशा हो रहा है, वह पंडित जवाहर लाल नेहरू को खलनायक साबित करने का ही एक प्रपंच है। यह सौ फीसदी सच है कि सुभाष चन्द्र बोस की राजनीतिक हैसियत भारत के समकालीन इतिहास में सर्वोच्च है, पर जिस तरह उनके खिलाफ नेहरू का इस्तेमाल हो रहा है वह दोनों ही दिवंगत नेताओं का अपमान है। जासूसी की इस आग को आज वही दल प्रज्वलित कर रहे हैं जिनका कि आजादी की लड़ाई में कोई विशेष योगदान नहीं था। देश की आजादी में सुभाष चन्द्र बोस का जहां अमूल्य योगदान है वहीं आजाद भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक्की में जवाहरलाल नेहरू की हैसियत को कतई कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। नेहरू की विदेश नीति या राजनीति में खोट निकालने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह उनकी दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश तो पाकिस्तान बेहद ही पिछड़ा मुल्क है।
इस बात में दो राय नहीं है कि सुभाष चन्द्र बोस ने भारत की आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान देने के साथ ही कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र को विस्तारित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। महात्मा गांधी के सत्याग्रही तरीके का पुरजोर विरोध करने के चलते ही उन्हें उनका सैद्धांतिक विरोधी माना गया। आज जो लोग महात्मा गांधी की विरासत को अपनाने और पंडित नेहरू को छोटा साबित करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं उनको शायद नहीं मालूम कि कांग्रेस में 1930 के बाद जिन लोगों का प्रभाव था, वही लोग जवाहर लाल और सुभाष चन्द्र बोस जैसे लोगों को किनारे लगाने की कोशिश कर रहे थे, इन पुरातनपंथियों के खिलाफ जो लामबंदी हुई थी उसमें जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, सुभाषचन्द्र बोस और राम मनोहर लोहिया साथ-साथ थे। सैद्धांतिक मतभेद कभी किसी से भी हो सकते हैं। राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो नेताजी के हिटलर और मुसोलिनी से सम्पर्क साधने के बाद ही कांग्रेस के अधिकांश नेता उनसे दूर हुए थे। नेताजी आजादी के अप्रतिम सिपाही थे। उनकी रहस्यमय मौत और उससे जुड़ी घटनाओं को नेहरू-विरोधी नेता और कुछ बुद्धिजीवी हमेशा से ही निज स्वार्थ का हथियार बनाते आए हैं। आज जिस विवाद को तूल दिया जा रहा है, उससे देश को तो कुछ हासिल नहीं होगा अलबत्ता समाज में वैमनस्य जरूर फैल जाएगा। आज जरूरत इस बात की है कि नेताजी के आदर्शों और सिद्धांतों की नए सिरे से व्याख्या की जाए तथा उनके उदात्त चरित्र से प्रेरणा ग्रहण की जाए। नेताजी की मौत का विवाद अब कालातीत और कालबाधित हो चुका है। इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने से न सिर्फ नेताजी के देशभक्तिपूर्ण कार्यों पर प्रश्नचिह्न लगेगा बल्कि इस महान स्वतंत्रता सेनानी की आत्मा को भी ठेस पहुंचेगी।

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