बच्चे किसी राष्ट्र का भविष्य होते हैं। उनकी उचित परवरिश और शिक्षा-दीक्षा की जवाबदेही सरकार की होती है। आजादी के बाद से ही भारत सरकार देश के भविष्य यानि बच्चों के स्वास्थ्य और साक्षरता पर अकूत पैसा खर्च कर रही है बावजूद इसके स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। विकासशील भारत के सामने कुपोषण और शिक्षा के आंकड़ों से कहीं अधिक चौंकाने वाली स्थिति लगातार खोते बचपन को लेकर है। पिछले तीन साल में सवा तीन लाख बच्चों का लापता होना हैरत नहीं बल्कि सरकार के लिए शर्मिंदगी की बात है। अफसोस, हर रिपोर्ट के बाद हमारी हुकूमतें भविष्य में ऐसा न होने की दुहाई तो देती हैं लेकिन समय बीतने के साथ ही सब कुछ भुला दिया जाता है। सरकारी तंत्र की इस भूल-भुलैया के चलते ही मुल्क में प्रतिदिन सैकड़ों बच्चे लापता हो रहे हैं।
बच्चों के सुखद भविष्य को लेकर इन दिनों मुल्क में अनेकानेक योजनाएं चल रही हैं, लेकिन उचित मानीटरिंग के अभाव में उनका सुफल नहीं मिल रहा। देश में कानून-व्यवस्था और सुरक्षा के मद में बेइंतहा धनराशि खर्च हो रही है। जनमानस को भरोसा दिया जाता है कि कानून से किसी को भी खिलवाड़ नहीं करने दिया जाएगा, पर बच्चों की सुरक्षा का स्याह सच यह है कि प्रतिवर्ष एक लाख से ज्यादा बच्चे न जाने कहां गुम हो रहे हैं। पिछले साल संसद में पेश आंकड़ों पर गौर करें तो सिर्फ 2011 से 2014 के बीच ही सवा तीन लाख बच्चे न जाने कहां खो गये? यह वे आंकड़े हैं जोकि पुलिस रोजनामचे में दर्ज हैं। देखा जाए तो आजादी के 68 साल बाद भी आम जनमानस के लिए पुलिस की कार्यप्रणाली अबूझ पहेली बनी हुई है। गरीब तो लाख कष्ट सहने के बाद भी पुलिस के सामने अपना दुखड़ा नहीं सुना पाता। देश में गुम होते बच्चों पर कई बार सर्वोच्च न्यायालय भी सरकार को ताकीद कर चुका है लेकिन स्थिति सुधरने की बजाय लगातार बिगड़ती जा रही है। एक तरफ देश का भविष्य गुम हो रहा है तो दूसरी तरफ सरकारी तंत्र नित नये परवाने लिखने में ही व्यस्त है। अफसोस की बात है कि बच्चों के गुम होने के सही आंकड़े हमारी हुकूमत के पास भी नहीं हैं। अदालत ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से 31 मार्च, 2015 तक गुमशुदा बच्चों की सम्पूर्ण जानकारी मांगी थी, लेकिन मंत्रालय जवाब देने में नाकाम रहा। जब अदालत को लेकर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय इतना संवेदनहीन हो तो भला आम आदमी की क्या बिसात कि वह गुमशुदा बच्चों की सही जानकारी जुटा सके। बच्चों के लापता होने के मामलों पर गौर करें तो मुल्क में सबसे खराब स्थिति उस महाराष्ट्र की है, जोकि अपने आपको सुसंस्कारित होने का दम्भ भरता है। महाराष्ट्र में प्रतिवर्ष 50 हजार से अधिक बच्चे न जाने कहां खो जाते हैं। बच्चों के लापता होने के मामले में मध्यप्रदेश दूसरे स्थान पर है। अन्य राज्यों की स्थिति भी अच्छी नहीं कही जा सकती। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय गुमशुदा बच्चों के आंकड़ों की जानकारी दे भी दे तब भी उसे सच नहीं माना जा सकता। वजह, हमारा राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो सिर्फ और सिर्फ अपहरण किए गए बच्चों के आंकडेÞ ही बताता है। देखा जाये तो ज्यादातर मामलों में निष्ठुर पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से ही इनकार कर देती है। हमारी हुकूमतें बच्चों के देश का भविष्य होने का लाख राग अलापें पर वे इनकी सुरक्षा व्यवस्था को लेकर कितनी गम्भीर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किशोर न्याय अधिनियम के तहत पिछले 15 साल में आज तक एक सलाहकार समिति तक गठित नहीं की जा सकी है। कर्तव्य में हीलाहवाली को लेकर सर्वोच्च अदालत कई बार सरकार को फटकार भी लगा चुकी है बावजूद स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।
देश के खोते बचपन पर शासन-प्रशासन की उदासीनता यही चरितार्थ करती है कि जाके पैर न फटें बेवार्इं, वो का जाने पीर पराई। हर अध्ययन रिपोर्ट के बाद हुकूमतें फौलादी कानून-व्यवस्था का भरोसा तो देती हैं लेकिन इन दावों के बरक्स देश भर में प्रतिदिन सैकड़ों बच्चे लापता हो रहे हैं और उनमें से महज 10-15 फीसदी बच्चे ही अभिभावकों के पास पुन: आ पाते हैं। चौंकाने वाली बात तो यह है कि हमारी सरकारें लाख बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का राग अलाप रही हों, पर कटु सत्य तो यह है कि लापता होने वाले कुल बच्चों में लगभग 60 फीसदी बेटियां ही होती हैं। लापता होते किशोर जहां बालश्रम करने को मजबूर होते हैं वहीं किशोरियां देह-व्यापार की अंधेरी दुनिया में धकेल दी जाती हैं, जहां से उनका वापस निकल पाना कभी सम्भव नहीं होता। लापता बच्चों में अधिकतर निम्न आयवर्ग से ताल्लुक रखते हैं, जिन्हें मानव-तस्कर गिरोह बंधुआ मजदूरी, भिक्षावृत्ति, मानव अंगों के कारोबारियों के हाथों बेच देते हैं। हाल ही केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने किशोर न्याय अधिनियम में उस संशोधन को मंजूरी दे दी, जिसमें जघन्य अपराधों में शरीक 16 से 18 आयु वर्ग के किशोरों पर वयस्क अपराधियों की तरह मुकदमा चलाया जा सके। किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन के इन प्रयासों की चहुंओर सराहना हो रही है। होना भी चाहिए आखिर अपराध तो अपराध ही होता है, करने वाला भले ही कोई हो। किशोरों के हत्या-बलात्कार सरीखे जघन्य अपराधों में संलिप्त पाये जाने पर उनके विरुद्ध वयस्कों की तरह ही भारतीय दण्ड संहिता के तहत मुकदमा चलाये जाने के प्रति गंभीरता ओढ़ने से पहले सरकार को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि मुल्क का भविष्य अकारण ही कड़े कानूनी दण्ड का शिकार न हो जाये। किशोरों के विरुद्ध वयस्क की तरह भारतीय दण्ड संहिता के तहत मुकदमा चलाये जाने का फैसला किशोर न्याय बोर्ड के लिए आसान नहीं होगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय दण्ड विधान के मूल में सुधार प्रक्रिया प्रमुख है। विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि जेल जाने के बाद किशोरों के पेशेवर अपराधी बनने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। कोई भी सही सोच वाला शांतिप्रिय नागरिक इस संशोधन का स्वागत करेगा, लेकिन भारतीय सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर हमें किशोर संरक्षण एवं सुधार के लिए भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। देश में किशोरों की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है। क्या यह आंकड़ा हमारी प्रतिबद्धता और व्यवस्था को कठघरे में खड़ा नहीं करता कि देश में कुल 815 किशोर सुधार गृह ही हैं, जिनमें 35 हजार किशोरों को ही रखने की व्यवस्था है, जबकि देश में किशोर अपराधियों की संख्या 17 लाख के आसपास है। किशोरों को दण्ड दिलाने की बजाय सरकार को उन पर जुर्म न हों इसके प्रयास सबसे पहले करने चाहिए।
(लेखक पुष्प सवेरा के समाचार संपादक हैं)
बच्चों के सुखद भविष्य को लेकर इन दिनों मुल्क में अनेकानेक योजनाएं चल रही हैं, लेकिन उचित मानीटरिंग के अभाव में उनका सुफल नहीं मिल रहा। देश में कानून-व्यवस्था और सुरक्षा के मद में बेइंतहा धनराशि खर्च हो रही है। जनमानस को भरोसा दिया जाता है कि कानून से किसी को भी खिलवाड़ नहीं करने दिया जाएगा, पर बच्चों की सुरक्षा का स्याह सच यह है कि प्रतिवर्ष एक लाख से ज्यादा बच्चे न जाने कहां गुम हो रहे हैं। पिछले साल संसद में पेश आंकड़ों पर गौर करें तो सिर्फ 2011 से 2014 के बीच ही सवा तीन लाख बच्चे न जाने कहां खो गये? यह वे आंकड़े हैं जोकि पुलिस रोजनामचे में दर्ज हैं। देखा जाए तो आजादी के 68 साल बाद भी आम जनमानस के लिए पुलिस की कार्यप्रणाली अबूझ पहेली बनी हुई है। गरीब तो लाख कष्ट सहने के बाद भी पुलिस के सामने अपना दुखड़ा नहीं सुना पाता। देश में गुम होते बच्चों पर कई बार सर्वोच्च न्यायालय भी सरकार को ताकीद कर चुका है लेकिन स्थिति सुधरने की बजाय लगातार बिगड़ती जा रही है। एक तरफ देश का भविष्य गुम हो रहा है तो दूसरी तरफ सरकारी तंत्र नित नये परवाने लिखने में ही व्यस्त है। अफसोस की बात है कि बच्चों के गुम होने के सही आंकड़े हमारी हुकूमत के पास भी नहीं हैं। अदालत ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से 31 मार्च, 2015 तक गुमशुदा बच्चों की सम्पूर्ण जानकारी मांगी थी, लेकिन मंत्रालय जवाब देने में नाकाम रहा। जब अदालत को लेकर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय इतना संवेदनहीन हो तो भला आम आदमी की क्या बिसात कि वह गुमशुदा बच्चों की सही जानकारी जुटा सके। बच्चों के लापता होने के मामलों पर गौर करें तो मुल्क में सबसे खराब स्थिति उस महाराष्ट्र की है, जोकि अपने आपको सुसंस्कारित होने का दम्भ भरता है। महाराष्ट्र में प्रतिवर्ष 50 हजार से अधिक बच्चे न जाने कहां खो जाते हैं। बच्चों के लापता होने के मामले में मध्यप्रदेश दूसरे स्थान पर है। अन्य राज्यों की स्थिति भी अच्छी नहीं कही जा सकती। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय गुमशुदा बच्चों के आंकड़ों की जानकारी दे भी दे तब भी उसे सच नहीं माना जा सकता। वजह, हमारा राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो सिर्फ और सिर्फ अपहरण किए गए बच्चों के आंकडेÞ ही बताता है। देखा जाये तो ज्यादातर मामलों में निष्ठुर पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से ही इनकार कर देती है। हमारी हुकूमतें बच्चों के देश का भविष्य होने का लाख राग अलापें पर वे इनकी सुरक्षा व्यवस्था को लेकर कितनी गम्भीर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किशोर न्याय अधिनियम के तहत पिछले 15 साल में आज तक एक सलाहकार समिति तक गठित नहीं की जा सकी है। कर्तव्य में हीलाहवाली को लेकर सर्वोच्च अदालत कई बार सरकार को फटकार भी लगा चुकी है बावजूद स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।
देश के खोते बचपन पर शासन-प्रशासन की उदासीनता यही चरितार्थ करती है कि जाके पैर न फटें बेवार्इं, वो का जाने पीर पराई। हर अध्ययन रिपोर्ट के बाद हुकूमतें फौलादी कानून-व्यवस्था का भरोसा तो देती हैं लेकिन इन दावों के बरक्स देश भर में प्रतिदिन सैकड़ों बच्चे लापता हो रहे हैं और उनमें से महज 10-15 फीसदी बच्चे ही अभिभावकों के पास पुन: आ पाते हैं। चौंकाने वाली बात तो यह है कि हमारी सरकारें लाख बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का राग अलाप रही हों, पर कटु सत्य तो यह है कि लापता होने वाले कुल बच्चों में लगभग 60 फीसदी बेटियां ही होती हैं। लापता होते किशोर जहां बालश्रम करने को मजबूर होते हैं वहीं किशोरियां देह-व्यापार की अंधेरी दुनिया में धकेल दी जाती हैं, जहां से उनका वापस निकल पाना कभी सम्भव नहीं होता। लापता बच्चों में अधिकतर निम्न आयवर्ग से ताल्लुक रखते हैं, जिन्हें मानव-तस्कर गिरोह बंधुआ मजदूरी, भिक्षावृत्ति, मानव अंगों के कारोबारियों के हाथों बेच देते हैं। हाल ही केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने किशोर न्याय अधिनियम में उस संशोधन को मंजूरी दे दी, जिसमें जघन्य अपराधों में शरीक 16 से 18 आयु वर्ग के किशोरों पर वयस्क अपराधियों की तरह मुकदमा चलाया जा सके। किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन के इन प्रयासों की चहुंओर सराहना हो रही है। होना भी चाहिए आखिर अपराध तो अपराध ही होता है, करने वाला भले ही कोई हो। किशोरों के हत्या-बलात्कार सरीखे जघन्य अपराधों में संलिप्त पाये जाने पर उनके विरुद्ध वयस्कों की तरह ही भारतीय दण्ड संहिता के तहत मुकदमा चलाये जाने के प्रति गंभीरता ओढ़ने से पहले सरकार को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि मुल्क का भविष्य अकारण ही कड़े कानूनी दण्ड का शिकार न हो जाये। किशोरों के विरुद्ध वयस्क की तरह भारतीय दण्ड संहिता के तहत मुकदमा चलाये जाने का फैसला किशोर न्याय बोर्ड के लिए आसान नहीं होगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय दण्ड विधान के मूल में सुधार प्रक्रिया प्रमुख है। विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि जेल जाने के बाद किशोरों के पेशेवर अपराधी बनने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। कोई भी सही सोच वाला शांतिप्रिय नागरिक इस संशोधन का स्वागत करेगा, लेकिन भारतीय सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर हमें किशोर संरक्षण एवं सुधार के लिए भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। देश में किशोरों की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है। क्या यह आंकड़ा हमारी प्रतिबद्धता और व्यवस्था को कठघरे में खड़ा नहीं करता कि देश में कुल 815 किशोर सुधार गृह ही हैं, जिनमें 35 हजार किशोरों को ही रखने की व्यवस्था है, जबकि देश में किशोर अपराधियों की संख्या 17 लाख के आसपास है। किशोरों को दण्ड दिलाने की बजाय सरकार को उन पर जुर्म न हों इसके प्रयास सबसे पहले करने चाहिए।
(लेखक पुष्प सवेरा के समाचार संपादक हैं)
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