प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सीमाओं की सुरक्षा को लेकर बड़े-बड़े दावे-प्रतिदावे तो करते हैं लेकिन मुल्क की आंतरिक स्थिति के प्रति उनका नजरिया साफ नहीं है। देश की सल्तनत पर काबिज होने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि भारतीय जनता पार्टी अपने पूर्व के क्रिया-कलापों में आमूलचूल परिवर्तन लाकर सिर्फ और सिर्फ विकास की राह चलेगी। आम चुनाव के समय मोदी ने सबका साथ, सबका विकास की बातें भी की थीं। वह विकास के प्रति फिक्रमंद भी दिख रहे हैं लेकिन उनका ध्यान मुल्क की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था पर कम है। हाल ही में जिस तरह नक्सलवादियों ने छत्तीसगढ़ में खून की होली खेली या देश के अन्य हिस्सों में जिस तरह धार्मिक उन्माद की स्थिति निर्मित की गई, उसे अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। मोदी सरकार को यह सोचना होगा कि देश का विकास धार्मिक उन्माद से कभी नहीं हो सकता।
हमारे राजनीतिज्ञ हमेशा छोटे-छोटे राज्यों की मुखालफत करते हैं। लोगों को भरोसा दिया जाता है कि इससे विकास को पर लगेंगे लेकिन मध्यप्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ में अब तक एक हजार से अधिक जवानों का नक्सली हमलों में हताहत होना चिन्ता की ही बात है। अकेले छत्तीसगढ़ ही नहीं समूचे देश में जिस तरह का उन्मादी माहौल बन रहा है, वह खतरे का ही संकेत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विदेशों में जाकर शांतिपाठ पढ़ाना, उनके राजनीतिक हितसाधकों के लिए खुशखबर हो सकती है, पर उनके लिए नहीं जिनके घर के चिराग असमय बुझ रहे हों। हिन्दुस्तान के दर्द की खबर रखने वाले प्रधानमंत्री को यह महसूस होना चाहिए कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके सुकमा में नक्सली हमला हो या मुल्क के दूसरे हिस्सों का उन्माद, उस पर यदि समय रहते अंकुश नहीं लगा तो सुरक्षा की सारी बातें बेमानी हो जाएंगी।
मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि अमन के दुश्मन आखिर धन और हथियार कहां से जुटा रहे हैं? नक्सलवादियों की लड़ाई सरकार से है, व्यवस्था से है या उन जवानों से है जो कुछ हजार का वेतन पाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं और शहीद हो जाते हैं। वीर जवानों की मौत के बाद हमारी हुकूमतें उनके परिजनों को थोड़ा मुआवजा और अनुकम्पा नियुक्ति तो दे देती हैं लेकिन मुल्क में अमन की बयार बहे, इसके प्रयास कभी सिरे नहीं चढ़ते। हर बड़ी वारदात के बाद राजनीतिज्ञ अफसोस तो जताते हैं लेकिन मुल्क के किसी भी हिस्से में दंगा-फसाद की स्थिति निर्मित न हो इसके कोई ठोस प्रयास कभी नहीं किए जाते। देखा जाए तो आजादी के बाद से ही हमारे राजनीतिज्ञ देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर शांतिजाप कर रहे हैं लेकिन इन खोखली संवेदनाओं से पीड़ितों का दर्द कभी कम नहीं हुआ।
हर रोज देश के किसी न किसी हिस्से में खून-खराबा हो रहा है, इससे निपटने के लिए सरकार के पास इच्छाशक्ति का ही नहीं, शब्दशक्ति का भी घोर अभाव है। यही वजह है कि उन्मादियों का तंत्र, उनका आतंक और उनके हमले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ सहित विभिन्न राज्यों में लम्बे समय से जहां नक्सली समस्या मुंह चिढ़ा रही है वहीं केन्द्र में भाजपा सरकार के काबिज होने के बाद जिस तरह हरियाणा, दिल्ली, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में चर्च निशाना बने हैं, उससे लगता है कि मोदी अपनों से ही नियंत्रण खो बैठे हैं। देश के आंतरिक उन्माद से निपटने की जहां तक बात है केन्द्र और राज्य सरकारों के पास न कोई सोच है और न ही उससे निपटने की पुख्ता रणनीति। हमारा सूचना तंत्र और सरकारी खुफिया एजेंसियां सांप निकलने के बाद लकीर पीटने की आदी हो चुकी हैं, यही वजह है कि वारदात से पहले उन्हें कुछ भी पता ही नहीं होता। हर साल सरकार देश का बहुत बड़ा खजाना खुफिया एजेंसियों के कामकाज पर खर्च करती है लेकिन उपद्रवी अपने काम को सहजता से अंजाम दे देते हैं।
नित नई जासूसी की खबरें उछालने वाली मोदी सरकार उन हसरतों का पता कब और कैसे लगाएगी, जो देश की व्यवस्था तथा उसके अमन-चैन के लिए बार-बार घातक साबित हो रही हैं? क्या कारण है कि कोई बड़ी वारदात होने के बाद ही सरकार को उसकी कमजोरियों का पता चल पाता है। कहने को सरकार के पास साधन, संसाधन और सुविधाओं की कोई कमी नहीं है बावजूद इसके कहीं भी कुछ भी हो जाता है। केन्द्र में मोदी सरकार के सत्ता सम्हालने के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी समस्या बताया था और इसके समाधान के लिए इस समस्या से जूझ रहे राज्यों में एक साथ बड़ा अभियान शुरू करने की घोषणा की थी। ऐसी सम्भावना देखी जा रही थी कि जल्द ही नक्सलियों के पांव उखड़ जाएंगे और शांति व सुरक्षा के नए वातावरण में नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास की रफ्तार तेज होगी, परन्तु स्थिति इसके ठीक विपरीत दिखाई देती है। खासकर बस्तर के मामले में तो यही कहना सही होगा।
देश में आंतरिक कलह का जो ताण्डव हो रहा है उसकी कमाण्ड कौन कर रहा? क्या हमारे सुरक्षा बल आंतरिक उन्माद रोकने में अक्षम हैं या फिर उन्हें ऐसा न करने की मनाही है। यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब मोदी सरकार को ही देना है। बात भारत में फैले नक्सलवाद की हो, माओवाद की, अलगाववाद की या फिर आंतरिक उन्माद की, आम चुनाव से पहले कांग्रेस की किरकिरी करने वाली भारतीय जनता पार्टी एक वर्ष में भी इन मसलों पर अपना रुख स्पष्ट नहीं कर पाई है। देशहित में तो यही ठीक होगा कि आधुनिक हथियार व अच्छे संसाधन वाले सुरक्षा बलों का उपयोग कर आंतरिक उन्माद पर अंकुश लगाया जाए अन्यथा निकट भविष्य में मुल्क का साम्प्रदायिक सौहार्द्र तहस-नहस हो जाएगा। देश की सीमाओं की सुरक्षा से भी अधिक जरूरी है कि मुल्क में अमन-चैन कायम हो। धार्मिक उन्माद से मुट्ठी भर लोगों को तो खुश किया जा सकता है लेकिन इससे देश का विकास और हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति की हिफाजत नहीं की जा सकती।
हमारे राजनीतिज्ञ हमेशा छोटे-छोटे राज्यों की मुखालफत करते हैं। लोगों को भरोसा दिया जाता है कि इससे विकास को पर लगेंगे लेकिन मध्यप्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ में अब तक एक हजार से अधिक जवानों का नक्सली हमलों में हताहत होना चिन्ता की ही बात है। अकेले छत्तीसगढ़ ही नहीं समूचे देश में जिस तरह का उन्मादी माहौल बन रहा है, वह खतरे का ही संकेत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विदेशों में जाकर शांतिपाठ पढ़ाना, उनके राजनीतिक हितसाधकों के लिए खुशखबर हो सकती है, पर उनके लिए नहीं जिनके घर के चिराग असमय बुझ रहे हों। हिन्दुस्तान के दर्द की खबर रखने वाले प्रधानमंत्री को यह महसूस होना चाहिए कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके सुकमा में नक्सली हमला हो या मुल्क के दूसरे हिस्सों का उन्माद, उस पर यदि समय रहते अंकुश नहीं लगा तो सुरक्षा की सारी बातें बेमानी हो जाएंगी।
मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि अमन के दुश्मन आखिर धन और हथियार कहां से जुटा रहे हैं? नक्सलवादियों की लड़ाई सरकार से है, व्यवस्था से है या उन जवानों से है जो कुछ हजार का वेतन पाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं और शहीद हो जाते हैं। वीर जवानों की मौत के बाद हमारी हुकूमतें उनके परिजनों को थोड़ा मुआवजा और अनुकम्पा नियुक्ति तो दे देती हैं लेकिन मुल्क में अमन की बयार बहे, इसके प्रयास कभी सिरे नहीं चढ़ते। हर बड़ी वारदात के बाद राजनीतिज्ञ अफसोस तो जताते हैं लेकिन मुल्क के किसी भी हिस्से में दंगा-फसाद की स्थिति निर्मित न हो इसके कोई ठोस प्रयास कभी नहीं किए जाते। देखा जाए तो आजादी के बाद से ही हमारे राजनीतिज्ञ देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर शांतिजाप कर रहे हैं लेकिन इन खोखली संवेदनाओं से पीड़ितों का दर्द कभी कम नहीं हुआ।
हर रोज देश के किसी न किसी हिस्से में खून-खराबा हो रहा है, इससे निपटने के लिए सरकार के पास इच्छाशक्ति का ही नहीं, शब्दशक्ति का भी घोर अभाव है। यही वजह है कि उन्मादियों का तंत्र, उनका आतंक और उनके हमले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ सहित विभिन्न राज्यों में लम्बे समय से जहां नक्सली समस्या मुंह चिढ़ा रही है वहीं केन्द्र में भाजपा सरकार के काबिज होने के बाद जिस तरह हरियाणा, दिल्ली, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में चर्च निशाना बने हैं, उससे लगता है कि मोदी अपनों से ही नियंत्रण खो बैठे हैं। देश के आंतरिक उन्माद से निपटने की जहां तक बात है केन्द्र और राज्य सरकारों के पास न कोई सोच है और न ही उससे निपटने की पुख्ता रणनीति। हमारा सूचना तंत्र और सरकारी खुफिया एजेंसियां सांप निकलने के बाद लकीर पीटने की आदी हो चुकी हैं, यही वजह है कि वारदात से पहले उन्हें कुछ भी पता ही नहीं होता। हर साल सरकार देश का बहुत बड़ा खजाना खुफिया एजेंसियों के कामकाज पर खर्च करती है लेकिन उपद्रवी अपने काम को सहजता से अंजाम दे देते हैं।
नित नई जासूसी की खबरें उछालने वाली मोदी सरकार उन हसरतों का पता कब और कैसे लगाएगी, जो देश की व्यवस्था तथा उसके अमन-चैन के लिए बार-बार घातक साबित हो रही हैं? क्या कारण है कि कोई बड़ी वारदात होने के बाद ही सरकार को उसकी कमजोरियों का पता चल पाता है। कहने को सरकार के पास साधन, संसाधन और सुविधाओं की कोई कमी नहीं है बावजूद इसके कहीं भी कुछ भी हो जाता है। केन्द्र में मोदी सरकार के सत्ता सम्हालने के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी समस्या बताया था और इसके समाधान के लिए इस समस्या से जूझ रहे राज्यों में एक साथ बड़ा अभियान शुरू करने की घोषणा की थी। ऐसी सम्भावना देखी जा रही थी कि जल्द ही नक्सलियों के पांव उखड़ जाएंगे और शांति व सुरक्षा के नए वातावरण में नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास की रफ्तार तेज होगी, परन्तु स्थिति इसके ठीक विपरीत दिखाई देती है। खासकर बस्तर के मामले में तो यही कहना सही होगा।
देश में आंतरिक कलह का जो ताण्डव हो रहा है उसकी कमाण्ड कौन कर रहा? क्या हमारे सुरक्षा बल आंतरिक उन्माद रोकने में अक्षम हैं या फिर उन्हें ऐसा न करने की मनाही है। यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब मोदी सरकार को ही देना है। बात भारत में फैले नक्सलवाद की हो, माओवाद की, अलगाववाद की या फिर आंतरिक उन्माद की, आम चुनाव से पहले कांग्रेस की किरकिरी करने वाली भारतीय जनता पार्टी एक वर्ष में भी इन मसलों पर अपना रुख स्पष्ट नहीं कर पाई है। देशहित में तो यही ठीक होगा कि आधुनिक हथियार व अच्छे संसाधन वाले सुरक्षा बलों का उपयोग कर आंतरिक उन्माद पर अंकुश लगाया जाए अन्यथा निकट भविष्य में मुल्क का साम्प्रदायिक सौहार्द्र तहस-नहस हो जाएगा। देश की सीमाओं की सुरक्षा से भी अधिक जरूरी है कि मुल्क में अमन-चैन कायम हो। धार्मिक उन्माद से मुट्ठी भर लोगों को तो खुश किया जा सकता है लेकिन इससे देश का विकास और हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति की हिफाजत नहीं की जा सकती।
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