Friday 9 February 2018

एथलेटिक्स में महिलाओं का कमाल

पी.टी. ऊषा, अंजू बॉबी जॉर्ज और ललिता बाबर सिरमौर
भारतीय महिलाएं हर क्षेत्र में विजय पताका फहरा रही हैं। खेल के क्षेत्र में भी भारतीय बेटियों ने अपने प्रदर्शन से नए प्रतिमान गढ़े हैं। एथलेटिक्स में भारतीय महिलाओं की बात करें तो उड़न परी पी.टी. ऊषा, अंजू बॉबी जॉर्ज और ललिता बाबर ने जो करिश्मा किया है, उसके करीब भी कोई अन्य भारतीय महिला नहीं पहुंची है। ओलम्पिक और विश्व स्तर पर इन तीनों महिलाओं ने ऐसी इबारत लिखी है जिस तक पहुंचने के लिए अन्य महिला एथलीट को मैडल जीतना होगा। गौरतलब है कि ओलम्पिक के 100 साल से अधिक समय में भी कोई भारतीय एथलीट मैडल नहीं जीत सका तो विश्व एथलेटिक्स में अंजू बॉबी जॉर्ज ही एकमात्र कांस्य पदक जीत पाई हैं। इस नाकामयाबी के लिए खिलाड़ियों से कहीं अधिक भारतीय खेल सिस्टम को कसूरवार माना जा सकता है।
अंजू बॉबी जॉर्ज भारत की सबसे सम्मानित एथलीटों में से एक हैं। उन्होंने भारत को एक ऐसी उपलब्धि दिलाई जो अब तक देश की कोई अन्य एथलीट नहीं कर सकी है। अंजू ने भारत को एथलेटिक्स में पहला अंतर्राष्ट्रीय मैडल दिलाया। लांग जम्पर अंजू ने 2003 में पेरिस में हुई वर्ल्ड एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीता था। तब उन्होंने 6.70 मीटर की कूद लगाई थी। अंजू वर्ल्ड एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में पदक जीतने वाली पहली भारतीय एथलीट हैं।
अंजू बचपन से ही खेलों में काफी एक्टिव थीं। उन्हें इसके लिए अपने पिता का भी अच्छा सपोर्ट मिला। केरल के चांगसेरी में जन्मी अंजू ने स्कूल में एथलेटिक्स के बेसिक्स सीखे। महज पांच साल की उम्र में ही उन्होंने एथलेटिक्स स्पर्धाओं में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। फिर अंजू सीकेएम कोरूथोड़े स्कूल गईं, जहां उनके कोच ने उनकी प्रतिभा को चमकाया। अंजू को हमेशा से भारत की एक स्टार एथलीट जैसा बनना था। अंजू की आदर्श एथलीट कोई और नहीं बल्कि पी.टी. ऊषा हैं। पी.टी. ऊषा भारत की पहली महिला एथलीट हैं जिन्होंने ओलम्पिक के फाइनल तक पहुंची थीं। ऊषा के बाद ललिता बाबर ही ऐसा करिश्मा कर सकीं। अंजू ने कड़ी मेहनत को अपनी सफलता का मंत्र बनाया और एक के बाद एक कामयाबी हासिल कीं। अंजू ने स्कूली स्तर पर एथलेटिक्स के लगभग सभी खेलों में भाग लिया।
अंजू ने अपना एथलेटिक्स करियर हैप्टाथलॉन खेल से शुरू किया। इसके अलावा उन्होंने नेशनल स्कूल गेम्स में हिस्सा लिया। जहां वह 100 मीटर रेस और 400 मीटर रिले रेस में तीसरे नम्बर पर रहीं। हैप्टाथलॉन में सात अलग-अलग इवेंट्स होते हैं। खेलते-खेलते अंजू ने लम्बीकूद पर अपना ध्यान  केन्द्रित कर दिया। अंजू को रेलवे में नौकरी मिली, इसके बाद 1998 में वह चेन्नई कस्टम से जुड़ गईं। नौकरी मिलने के बाद अंजू के रिकॉर्ड बनाने का दौर आया। उन्होंने 20 साल की उम्र में ट्रिपल जम्प में नेशनल रिकॉर्ड बनाया। 1999 में नेपाल में हुए साउथ एशियन फेडरेशन कप में उन्होंने सिल्वर मैडल जीता। अंजू इसे अपने करियर का बेस्ट परफॉरमेंस मानती हैं। मगर तब अंजू चोटिल होकर दो साल के लिए ट्रैक से दूर हो गईं। एंकल में गहरी चोट के कारण वह 2000 के सिडनी ओलम्पिक में हिस्सा नहीं ले सकीं। अंजू हार मानने वालों में से नहीं हैं और उन्होंने इसे बखूबी साबित भी किया। 2001 में चोट से उबरकर अंजू ने लम्बी कूद में 6.74 मीटर का रिकॉर्ड कायम किया। इसके बाद अंजू ने भारत के ट्रिपल जम्प के राष्ट्रीय चैम्पियन राबर्ट बॉबी जॉर्ज से अपना खेल और बेहतर करने करने के लिए मदद ली। आगे चल कर अंजू ने उन्हीं के साथ शादी भी कर ली।
वैसे अंजू ने मैनचेस्टर के राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक जीतकर अपनी पहचान बनाई। ये मैडल जीतने वाली वह भारत की पहली महिला एथलीट थीं। यहां उन्होंने 6.49 मीटर लम्बी छलांग लगाई थी। इसके वाद बुसान एशियाई खेलों में उन्होंने गोल्ड मैडल जीता। यहां उन्होंने 6.53 मीटर की छलांग लगाई थी। इसके बाद अंजू ने दुनिया के जाने-माने एथलीट माइक पावेल से ट्रेनिंग ली। उन्होंने अंजू को अमेरिका में कड़ी ट्रेनिंग दी।
2003 में अंजू ने अपनी आदर्श पीटी ऊषा को पीछे छोड़ भारतीय एथलेटिक्स का रिकॉर्ड बना दिया। उन्होंने वर्ल्ड चैम्पियनशिप में भारत को एथलेटिक्स में पहला पदक दिलाया। 1960 में मिल्खा सिंह ने रोम ओलम्पिक की रेस में वर्ल्ड रिकार्ड बनाया फिर भी मैडल से चूक गए। साथ ही 1984 के लासएंजिल्स ओलम्पिक में पी.टी. ऊषा 0.6 सेकेंड्स से मैडल चूक गई थीं। मगर अंजू ने कमाल कर दिया और देशवासियों को गौरव के पल दिए। अंजू को 13 अगस्त, 2004 को एथेंस ओलम्पिक में भारतीय झंडा लेकर चलने का सम्मान मिला। इसमें कर्णम मल्लेश्वरी, लिएंडर पेस, धनराज पिल्लै और अंजलि भागवत का नाम भी सामने आया था। मगर नेतृत्व करने का सम्मान अंजू को ही मिला। अंजू ने लांग जंप के फाइनल तक पहुंचकर देशवासियों की उम्मीद बांधें रखीं लेकिन वह पदक जीतने में कामयाब नहीं हो सकीं। भारतीय खेलों में उम्दा योगदान के लिए 21 सितम्बर, 2004 को उन्हें देश के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड से नवाजा गया। इतना ही नहीं उनके कोच पति रॉबर्ट बॉबी जॉर्ज को द्रोणाचार्य अवॉर्ड भी मिला।
उड़नपरी जैसा कोई नहीं
भारत ने आजादी के बाद से अब तक खेलों में बहुत तरक्की की है लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी यह प्रयास विश्व स्तर पर खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए नाकाफी है। बावजूद इसके भारतीय खेल जगत में कुछ ऐसे सितारे भी उभरे जिनकी उपलब्धियां कभी धूमिल नहीं होंगी। उनकी वजह से ही आने वाली पीढ़ियों ने खेलों में अपना भविष्य बनाने की प्रेरणा हासिल की। देखा जाए तो ऐसी ही एक खिलाड़ी हैं पी.टी. ऊषा। देश में उड़नपरी के नाम से विख्यात पी.टी. ऊषा का नाम आज भी लोगों की जुबान पर है। लोगों के जेहन में उनकी यादें आज भी ताजा हैं। उड़न सिख मिल्खा सिंह की तरह यह भी ओलम्पिक पदक जीतने से सेकेंड के सौवें हिस्से से चूक गई थीं। 1984 के लॉस एन्जिल्स ओलम्पिक की 400 मीटर बाधा दौड़ के सेमीफाइनल में उन्होंने पहला स्थान हासिल किया था लेकिन फाइनल में हुए कड़े मुकाबले में ऊषा फोटो फिनिश के आधार पर चौथे स्थान पर रहीं और कांस्य पदक उनके हाथ से छिटक गया। लेकिन इस मुकाबले ने उन्हें देश-दुनिया में पहचान दिला दी। तब पी.टी. ऊषा किसी भी ओलम्पिक प्रतियोगिता के फाइनल में पहुंचने वाली पहली महिला और पांचवीं भारतीय एथलीट थीं।
पी.टी. ऊषा हार मानने वाली खिलाड़ी नहीं थीं। उनके मन में खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की ललक थी। ओलम्पिक में मिली निराशा को अपनी ताकत बनाकर पी.टी. ऊषा ने 1985 में इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में आयोजित एशियाई चैम्पियनशिप में पांच स्वर्ण और एक कांस्य सहित कुल छह पदक हासिल किए थे। उनकी इस उपलब्धि की बराबरी आज तक कोई भारतीय नहीं कर सका। तब ऊषा ने 100, 200, 400 मीटर दौड़ और 400 मीटर बाधा दौड़ के साथ ही चार गुणा 400 मीटर रिले रेस में स्वर्ण पदक हासिल किया था। यह उस समय एशियन चैम्पियनशिप में किसी महिला खिलाड़ी द्वारा एक स्पर्धा में जीते गए सबसे ज्यादा स्वर्ण पदक थे। 100, 200 और 400 मीटर दौड़ का स्वर्ण पदक उन्होंने नए एशियाई रिकॉर्ड के साथ जीता था। ऊषा ने दो स्वर्ण पदक महज 35 मिनट के अंतराल में जीते थे। चार गुणा 100 मीटर रिले में वह स्वर्ण पदक से चूक गईं। उनकी टीम को कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा था। इस शानदार प्रदर्शन के बाद पी.टी. को हर भारतीय उड़नपरी के नाम से जानने लगा।

ऊषा यहीं नहीं रुकीं 1986  में आयोजित सियोल एशियाई खेलों में ऊषा ने चार स्वर्ण और एक रजत पदक हासिल किया। उन्होंने इस दौरान जिन स्पर्धाओं में भी भाग लिया सभी में नए एशियाई रिकॉर्ड स्थापित किए। पी.टी. ऊषा को 1984, 1985, 1986, 1987 तथा 1989 में एशिया महाद्वीप की सर्वश्रेष्ठ धाविका घोषित किया गया। इसके साथ ही साल 1985 और 1986  में उन्हें दुनिया की सर्वश्रेष्ठ महिला धाविका के पुरस्कार से भी नवाजा गया। यह पुरस्कार हासिल करने वाली ऊषा पहली भारतीय एथलीट हैं। भारत को रियो ओलम्पिक में ललिता बाबर के महिलाओं की 3000 मीटर स्टीपलचेज के फाइनल में पहुंचने से मैडल की बड़ी उम्मीद बंधी थी लेकिन वह दसवें स्थान पर रहीं। इस स्पर्धा के क्वालीफाइंग में ललिता ने लगभग सात सेकेंड के अंतर से नया राष्ट्रीय रिकार्ड बनाया था। ललिता से पहले पी.टी. ऊषा ने लॉस एंजिल्स में एथलेटिक्स के फाइनल में पहुंचने का करिश्मा किया था।

No comments:

Post a Comment