Monday, 5 February 2018

समाज का हौसला बढ़ाती कृति दिव्यांगता एक वरदान



समाहित है 55 हौसलेबाजों के पराक्रम की कहानी
निःशक्तों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने मन की बात में दिव्यांग शब्द दिया जाना कई साहित्य-मनीषियों को अच्छा नहीं लगा। इस शब्द पर न सिर्फ तर्क-वितर्क दिए गए बल्कि दिव्यांगों को भी उकसाया गया। विवादों से परे प्रधानमंत्री मोदी के दिव्यांग शब्द ने लेखिका डा. रीभा तिवारी को इतना प्रभावित किया है कि इन्होंने इसे शिरोधार्य करते हुए दिव्यांगता एक वरदान पुस्तक लिख डाली। इस पुस्तक का विमोचन 14 जनवरी रविवार की पुण्य-तिथि मकर संक्रांति को गाजियाबाद में पद्म विभूषण जगद् गुरु स्वामी रामभद्राचार्य के जन्मदिन पर तीन केन्द्रीय मंत्रियों के साथ ही हजारों धर्मप्राण जनमानस की उपस्थिति में किया गया। विमोचन के पहले ही दिन से चर्चा में आई यह पुस्तक समाज का आईना है। आईना इसलिए क्योंकि इस पुस्तक में ऐसी शख्सियतों की कामयाबी समाहित है, जिन्हें घर-परिवार और समाज ने अभिशप्त मान
लिया था।
डा. रीभा तिवारी ने अपनी पुस्तक दिव्यांगता एक वरदान में 55 ऐसे हौसलेबाजों के मन को छुआ है, जिन्होंने अपने अप्रतिम साहस और कौशल से दुनिया भर में भारत का नाम रोशन किया है। इस पुस्तक का पहला पन्ना पढ़ते ही समूची पुस्तक एक साथ पढ़ डालने को मन बेकरार हो उठता है। इस पुस्तक का हर पात्र विशेष है क्योंकि उसने अपनी मानसिक ताकत से समाज के सामने एक नजीर पेश की है। साहित्य जगत इस पुस्तक के नाम को लेकर कितने भी तर्क-वितर्क दे लेकिन इस पुस्तक का हर चरित्र यह बात दिल से कहता और मानता है कि दिव्यांगता उनके लिए वाकई वरदान है। इस पुस्तक की बेजोड़ शख्सियतें भी यह मानती हैं कि निःशक्तता मन का एक विकार है। जो इस विकार को मन पर हावी नहीं होने देता वही सफलता के नए प्रतिमान स्थापित करता है।
दुनिया भर के दिव्यांगों की समाज में मौजूदा स्थिति को देखते हुए पिछले 25 साल से हर तीन दिसम्बर को उन्हें मानसिक रूप से सबल बनाने और उनके प्रति सहयोग की भावना विकसित करने का संकल्प लिया जा रहा है लेकिन स्थिति में उतना सुधार नहीं हुआ जितनी कि जरूरत थी। आमतौर पर हमारे देश में दिव्यांगों के प्रति दो तरह की धारणाएं देखने को मिलती हैं। पहली यह कि जरूर इसने पिछले जन्म में कोई पाप किया होगा। दूसरी इनका जन्म ही कठिनाइयों को सहने के लिए हुआ है लिहाजा इन पर दया दिखानी चाहिए। डा. रीभा तिवारी ने अपनी पुस्तक के माध्यम से समाज की इन दोनों धारणाओं को पूरी तरह बेबुनियाद और तर्कहीन साबित किया है।
यह कटु सच है कि एक निःशक्त व्यक्ति की जिन्दगी काफी दुःख भरी होती है। घर-परिवार के लोग अगर मानसिक सहयोग न दें तो व्यक्ति अंदर से टूट जाता है। तिरस्कार की वजह से दिव्यांग स्व-केन्द्रित जीवनशैली व्यतीत करने को विवश हो जाते हैं। दिव्यांगों का इस तरह बिखराव उनके मन में जीवन के प्रति अरुचिकर भावना को जन्म देता है। भारत में दिव्यांगों की स्थिति संसार के अन्य देशों की तुलना में काफी दयनीय है। दयनीय इसलिए कि यहां दिव्यांगों को प्रेरित कम हतोत्साहित अधिक किया जाता है। दिव्यांगों के हित में बने ढेरों अधिनियम संविधान की शोभा बढ़ा रहे हैं लेकिन व्यवहार के धरातल पर देखा जाये तो आजादी के सात दशक बाद भी समाज में दिव्यांगों की स्थिति मन को कचोटती है। हमारे देश में दिव्यांगों के उत्थान के प्रति सरकारी तंत्र में अजीब-सी शिथिलता नजर आती है। दिव्यांगों के प्रति दयाभाव तो प्रकट किया जाता है लेकिन इनकी इच्छाएं अकारण दबा दी जाती हैं। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अगले सात वर्षों में 38 लाख दिव्यांगों को लक्ष्य बनाकर राष्ट्रीय कौशल नीति पेश की है ताकि 15 से 35 वर्ष आयु समूह के ऐसे व्यक्ति आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे आ सकें। यह केन्द्र सरकार की दिव्यांगों को लेकर एक सराहनीय पहल है।
दिव्यांगता एक वरदान पुस्तक में डा. रीभा तिवारी ने यह बताने का प्रयास किया है कि दिव्यांगजनों को आर्थिक नहीं बल्कि समाज और घर-परिवार के मानसिक सहयोग की सबसे अधिक जरूरत होती है। पुस्तक को पढ़ने और पात्रों का कथ्य जानने के बाद परिवार, समाज के लोगों से अपेक्षा की जाती है कि दिव्यांगों को अभिशाप मानने की बजाय उन्हें आगे बढ़ने को प्रेरित करते हुए उन्हें उनकी वास्तविक शक्ति का अहसास दिलाया जाए। लेखिका डा. रीभा तिवारी ने वैज्ञानिक व खगोलविद स्टीफन हॉकिंग, भारतीय पैरालम्पियन और दो बार के पैरालम्पिक स्वर्ण पदक विजेता देवेंद्र झाझरिया, मशहूर लेखिका हेलेन केलर, पैरालम्पिक में देश को पहला पदक दिलाने वाली नारी शक्ति दीपा मलिक आदि के माध्यम से समाज को यह संदेश देने का प्रयास किया है कि दिव्यांगों को बेचारा कहने की बजाय उन्हें मुक्तकंठ से शाबासी मिले। यह पुस्तक दिव्यांगों ही नहीं उन लोगों के लिए भी नजीर है, जोकि थोड़ी सी परेशानी आने पर हौसला हार जाते हैं।
हमारा समाज यदि दिव्यांगों को अपनत्व भरा वातावरण मुहैया कराए तो वह भी इतिहास रचने की क्षमता रखते हैं। हर दिव्यांग प्यार और सम्मान का भूखा है। उनमें भी समाज में आम लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता है। उनके अंदर भी अपने माता-पिता, समाज व देश का नाम रोशन करने का सपना है। डा. रीभा तिवारी की 525 रुपये की यह कृति न सिर्फ पठनीय है बल्कि प्रेरणास्पद भी है। लेखिका डा. रीभा तिवारी ने वाकई अपनी कलम से समाज के ऐसे पहलू को छुआ है जिस पर सरकार ही नहीं हर उस व्यक्ति को ध्यान देने की जरूरत है, जोकि निःशक्तता को अभिशाप मानते हैं। अच्छी विषय-वस्तु चयन के साथ ही डा. रीभा तिवारी ने अपनी कलम से देश की साहित्य-संस्कृति, कला, खेल आदि से जुड़ी 55 शख्सियतों को जो सम्मान दिया है, उसकी जितनी तारीफ की जाए वह कम है। मैं लेखिका को साधुवाद देते हुए सुधी-पाठकों से यह आग्रह करता हूं कि दिव्यांगता एक वरदान पुस्तक को जरूर पढ़ें क्योंकि ऐसी पुस्तकें हर रोज नहीं लिखी जातीं।  
                                                              समीक्षक- श्रीप्रकाश शुक्ला



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