Friday, 16 February 2018

अनाथों की नाथ बनीं अमृता करवंदे


नजीर- महाराष्ट्र बना अनाथों को आरक्षण देने वाला देश का पहला राज्य
मुफलिसी में जीने वाले बहुत कम ही लोग अपने अतीत को अपनी मंजिल बनाते हैं। अमृता करवंदे ने जिस मुफलिसी को जिया उसे ही उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया। अनाथ शब्द सुनते ही हर किसी के चेहरे पर दया के भाव उभरते हैं। यदि अनाथों को अपनाने या हक दिलाने की बात सामने आये तो आमतौर पर लोगों के चेहरे पर हिकारत के भाव देखे जाते हैं। देखा जाए तो एक अनाथ के हिस्से में सारे जमाने के दुःख-दर्द आते हैं। उसके न मां का पता होता है न बाप का। न जाति का पता, न धर्म का। हो सकता है किसी की मजबूरी इन्हें अनाथ आश्रम में धकेलने को बाध्य करती हो लेकिन वे भी इनके जीवन में संत्रास लाने के अभिशाप से बच नहीं सकते। ऐसे ही दुःख-दर्द, हिकारत, तिरस्कार और संत्रास झेलते अमृता करवंदे बड़ी हुईं। इस जांबाज बेटी ने मुफलिसी का रोना रोने के बजाय अनाथों के हक के लिए बीड़ा उठा लिया। अमृता की पहल पर महाराष्ट्र में जो सम्भव हुआ, वह अनाथों की जिन्दगी में नई आशा की किरण बनकर सामने आया है। अमृता करवंदे की यह पहल मुल्क के सामने एक नजीर बन सकती है।
दो साल की उम्र में अमृता को गोवा के एक अनाथालय में जीवन की दुश्वारियों का अहसास हुआ। उसे पिता का चेहरा भी ठीक से याद नहीं जो उसे अनाथालय छोड़ गए थे। इसे नाम भी मिला जो पिता अनाथालय के रजिस्टर में दर्ज करा गए थे। इसके अलावा अमृता को कुछ याद नहीं। एक अनाथ जीवन की टीस लिये अमृता पढ़ाई करती रही। उसे अहसास था कि बालिग होने पर 18 साल में उसे अनाथालय छोड़कर जाना होगा। दरअसल, नियम के तहत हर अनाथ को 18 साल की उम्र पार करते ही उसे अनाथालय छोड़ना पड़ता है। यह माना जाता है कि बालिग होने पर हर अनाथ अपना भरा-बुरा समझ सकता है। वैसे 18 साल तक लड़कियों की शादी कर दी जाती है। अमृता की शादी करने की भी कोशिश हुई लेकिन अमृता जीवन में पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहती हैं अतः उन्होंने शादी करने से मना कर दिया। आसमान से आने वाली बूंद की तरह तमाम नियति के चक्रों के साथ 18 साल की अमृता अनाथालय से निकल गईं। यह जानते हुए भी कि बाहर की दुनिया में उसका न कोई रिश्तेदार है और न ही रहने को घर। पुणे में पहली रात स्टेशन में काटना अमृता के लिए किसी दुःस्वप्न जैसा था।
हिम्मत की धनी इस बेटी ने हताश-निराश होने की बजाय घरों-दुकानों में काम करके फीस के लिए पैसे जुटाये और पढ़ाई जारी रखी। बीते वर्ष अमृता ने महाराष्ट्र पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा दी। यहां वह सामान्य वर्ग के परीक्षार्थी के रूप में परीक्षा में बैठीं लेकिन आरक्षण न होने की वजह से वह चयनित नहीं हुईं। इन्हें महिला वर्ग का आरक्षण भी कागजात न होने के कारण नहीं मिल सका। अमृता ने तभी ठान लिया था कि अब वह अनाथों के हक के लिए लड़ेंगी। अमृता ने महसूस किया कि अनाथ तो समाज का सबसे दुःखी तबका है। उसे परिवार का जहां साया नहीं मिलता वहीं समाज और सरकार की नजर में भी वह अनाथ ही रहता है। अमृता ने यहीं से अनाथों को न्याय दिलाने का संकल्प लिया। महाराष्ट्र पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में आरक्षित वर्ग के प्रत्याशियों से अधिक अंक लाने के बावजूद चयन न होने पर न्याय के लिए अमृता करवंदे ने तमाम अधिकारियों के दरवाजे खटखटाए। आखिरकार उसने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से न्याय की गुहार लगाने की सोची।
अमृता दिन भर मेहनत-मजदूरी करने और सायंकालीन कक्षाओं में पढ़ाई करते हुए अनाथों के अधिकारों के लिए संघर्षरत रहीं। आखिरकार वह मुख्यमंत्री के एक मित्र के माध्यम से मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मिलने में कामयाब हुईं। मुख्यमंत्री ने अमृता की बातों को ध्यान से सुना और अनाथों का दुःख महसूस किया। अमृता करवंदे की मुलाकात मुख्यमंत्री से अक्टूबर 2017 में हुई और जनवरी, 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने सरकारी नौकरियों में अनाथों के लिए एक फीसदी आरक्षण के प्रावधान की घोषणा कर दी। दरअसल, इस फैसले में जातिगत आरक्षण का कोटा बढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि पहले ही 52 फीसदी की सीमा में पहुंचे आरक्षण को बढ़ाने में संवैधानिक सीमा आड़े आती। यह आरक्षण सामान्य वर्ग के तहत देने की घोषणा हुई। इस तरह महाराष्ट्र अनाथों को आरक्षण देने वाला पहला राज्य बन गया।
महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले से अमृता को जीवन की सबसे बड़ी खुशी हासिल हुई। अमृता कहती हैं कि अनाथ का कोई अपना नहीं होता यही वजह है कि लाखों अनाथ सहायता की प्रतीक्षा में सड़कों पर जीवन व्यतीत कर देते हैं। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी जीत व खुशी है। निश्चय ही अमृता के प्रयासों से महाराष्ट्र सरकार द्वारा उठाया गया कदम अनाथों का भविष्य तय करने में मील का पत्थर साबित होगा। अमृता की इच्छा है कि केन्द्र व अन्य राज्य सरकारें भी अनाथों को उनका हक दिलाने को  
आगे आएं।
आज से तकरीबन दो दशक पहले एक पिता अपनी नन्हीं सी बच्ची को गोवा के एक अनाथालय में छोड़ आया था। किन हालातों में उन्होंने ये फैसला लिया, उनकी क्या मजबूरियां थीं, कोई नहीं जानता। आज हजारों-लाखों लोग अनाथालय में पली-बढ़ी अमृता का शुक्रिया अदा कर रहे हैं, इसलिए क्योंकि 23 साल की अमृता करवंदे ने अनाथों के हक की एक बड़ी लड़ाई जीत ली है। अमृता की सालों की मेहनत और संघर्ष का ही नतीजा है कि महाराष्ट्र में सरकारी नौकरियों में अनाथों के लिए एक फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है। एक गैर सरकारी संस्था के आंकड़ों के मुताबिक भारत में तकरीबन दो करो़ड़ अनाथ बच्चे हैं। अमृता की कहानी पहली बार सुनने में किसी फिल्म सी लगती है लेकिन सच्चाई तो ये है कि उन्होंने फिल्मी लगने वाली इस जिन्दगी में असली दुःख और तकलीफें सहन की हैं। अपने प्रेम-सम्बन्धों के लिए मां-बाप ने मुझे छोड़ दिया। अमू यानि अमृता बताती हैं कि मैं 18 साल की उम्र तक गोवा के अनाथालय में ही रही। अमृता बताती हैं कि अनाथालय में मेरे जैसी बहुत सी लड़कियां थीं वहां हम लोग एक-दूसरे के सुख-दुःख के साथी थे। हम लोगों को वहां कभी-कभी माता-पिता की कमी जरूर महसूस होती थी लेकिन हालातों ने मुझे उम्र से ज्यादा समझदार बना दिया। अमृता बताती हैं कि 18 साल की होते ही मुझे अनाथालय छोड़ना पड़ा। मैं अकेले ही पुणे चली गई। पुणे पहुंचकर मैंने पहली रात रेलवे स्टेशन पर बिताई। मैं बहुत डरी हुई थी। समझ में ही नहीं आ रहा था कि कहां जाऊं, क्या करूं। हिम्मत टूट सी रही थी। एक बार तो मन में आया कि ट्रेन के सामने कूद जाऊं लेकिन फिर किसी तरह खुद को संभाला और आगे की पढ़ाई व अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गई।
अमृता का कहना है कि जीवन बसर के लिए मैंने कुछ दिनों तक घरों, किराने की दुकानों और अस्पतालों में काम किया। मैं पढ़ना चाहती थी लिहाजा किसी तरह एक दोस्त की मदद से पुणे के पास अहमदनगर के एक कॉलेज में दाखिला लिया। मैं दिन में काम करती और शाम को इवनिंग क्लास में पढ़ती। इस दौरान मुझे रहने के लिए एक सरकारी हॉस्टल तो मिल गया लेकिन मुश्किलें कम नहीं हुईं। कभी एक बार का खाना खाकर तो कभी दोस्तों के टिफिन से खाना खाकर स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की। ग्रेज्युएशन की डिग्री हासिल करने के बाद अमृता ने महाराष्ट्र लोक सेवा आयोग की परीक्षा दी लेकिन नतीजा आने पर एक बार फिर कामयाबी में उनका अनाथ होना आड़े आ गया। परीक्षा में सफल होने के लिए क्रीमीलेयर ग्रुप का 46 फीसदी और नॉन क्रीमीलेयर का 35 फ़ीसदी कट ऑफ था। अमृता को 39 फीसदी अंक मिले थे लेकिन इनके पास नॉनक्रीमीलेयर परिवार से होने का कोई सर्टिफिकेट या प्रमाण नहीं था इसलिए कामयाबी नहीं मिल पाई।
अमृता बताती हैं कि मैंने और मेरे दोस्तों ने कई जगह से छानबीन के बाद जाना कि देश के किसी राज्य में अनाथों के लिए किसी भी तरह का आरक्षण नहीं है। यह मेरे लिए बेहद निराशाजनक था। मेरे जैसों की मदद के लिए कोई कानून नहीं है, यह जानकर मुझे धक्का लगा। बस फिर क्या था मैंने ठान लिया कि अब अनाथों के हक की लड़ाई लड़ूंगी। काफी सोचने के बाद मैं अकेले ही मुंबई निकल पड़ी और लगातार कई दिनों तक मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मिलने की जुगत लगाती रही। आखिरकार फडणवीस के सहयोगी श्रीकांत भारतीय से उनकी बात हुई और उन्होंने मुख्यमंत्री से उनकी मुलाकात करवाई। बकौल अमृता मुख्यमंत्री ने मेरी बात ध्यान से सुनी और इस बारे में कोई ठोस कदम उठाने का भरोसा दिया। यह खुशी की बात है कि जनवरी, 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने अनाथों के लिए सरकारी नौकरी में एक फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया। इसी के साथ महाराष्ट्र अनाथों को आरक्षण देने वाला देश का पहला राज्य बन गया। अमृता कहती हैं कि मैंने अपनी पूरी जिन्दगी में इतनी खुशी कभी महसूस नहीं की थी जितनी उस दिन की। ऐसा लगा जैसे मैंने एक बहुत बड़ी जंग जीत ली है। अमृता और उसके दोस्तों की जंग यहीं खत्म नहीं होती। अमृता कहती हैं कि मैं चाहती हूं कि यह नियम देश के सभी राज्यों में लागू हो क्योंकि अनाथ सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं हैं। फिलहाल अमृता पुणे के मॉडर्न कॉलेज में अर्थशास्त्र में एम.ए. की पढ़ाई कर रही हैं और साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी। उम्मीद है कि अमृता के प्रयासों और महाराष्ट्र सरकार के निर्णय से देश के अन्य राज्य भी नसीहत लेंगे।


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