सबको उदाहरण की जरूरत, मेरे पिता ही मेरे रोल
माडल
श्रीप्रकाश शुक्ला
मैदान चाहे जो भी हो, वहां जज्बा, हिम्मत और लगन ही किसी व्यक्ति को सफलता के
शिखर तक पहुंचा सकती है। मैं जब अपनी जिन्दगी से निराश थी उस समय लोग ढांढस तो
बंधाते थे लेकिन मानसिक चिड़चिड़ेपन की शिकार होने की वजह से मेरे लिए यह निर्णय
लेना कठिन था कि आखिरकार मुझे क्या करना चाहिए। मैं शुक्रगुजार हूं ओलिवर डिसूजा
का जिन्होंने मेरे अंदर न केवल उत्साह का संचार किया बल्कि आगे बढ़ने के लिए भी प्रोत्साहित
किया। आज दिव्यांगों के समुन्नत भले की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन उसका जो लाभ
दिव्यांगों को मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। मुझे लगता है कि दिव्यांगों का रोल माडल
कोई सक्षम व्यक्ति नहीं बल्कि एक दिव्यांग ही हो सकता। सबको उदाहरण की जरूरत होती
है, ऐसे में एक सफल दिव्यांग चाहे तो हजारों हजार दिव्यांगों का भला कर सकता है। पुरुषों
की अपेक्षा आज देश में महिला दिव्यांगों की स्थिति काफी दयनीय होती है। महिलाओं को
दया की दृष्टि से तो देखा जाता है लेकिन उनकी मदद को कोई सामने नहीं आता। यह कहना
है मुम्बई निवासी सफल आर्टिस्ट और कामयाब खिलाड़ी निशा गुप्ता का।
22 मार्च, 1986 को गांव गोपालापुरा, जिला जौनपुर में काली प्रसाद गुप्ता और
सितारा गुप्ता के घर जन्मीं निशा गुप्ता बताती हैं कि मुसीबत के क्षणों में मेरी
मदद करने वालों में मेरे कजिन सुशांत, अंकित, सीमा, रवीना, आकाश का अहम योगदान है
लेकिन जो प्रोत्साहन ओलिवर डिसूजा से मिला, उसे मैं कभी नहीं भूल सकती। मुम्बई
जैसे महानगर में अपने जमीर को जिन्दा रखते हुए मंजिल हासिल करना बहुत कठिन काम था
लेकिन मैंने ओलिवर डिसूजा को देखकर यह निश्चय किया कि यदि वह कठिनाइयों पर फतह
हासिल कर सकता है, तो मैं क्यों नहीं। मेरा यही आत्मविश्वास आज मेरी सफलता का राज
है। मेरे पिताजी ही मेरे रोल माडल हैं क्योंकि उन्होंने मेरे लिए बहुत कष्ट सहे हैं।
मैंने उनके हर संघर्ष को करीब से देखा है। वह पल-पल मेरे सफल जीवन के लिए संघर्ष
करते रहे। शादी के बाद मैंने जो कुछ करने का मन बनाया उसमें पति चेतन राठौर का
पूरा सहयोग मिला। मेरे पति को पता है कि जो मैं ठान लेती हूं वह कर दिखाती हूं
इसलिए वह हमेशा प्रोत्साहित करते हैं।
राष्ट्रीय स्वीमर, ह्वीलचेयर डांसर, आर्टिस्ट मुम्बई निवासी निशा गुप्ता को
दिव्यांगता से जूझते कोई 12 साल हो गये हैं। निशा के लिए एक मई, 2004 न बिसरने
वाली तारीख है। वह बताती हैं कि मैं मुम्बई में 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी। गर्मी
की छुट्टियों में हमेशा घर जाना होता था लिहाजा अपने गांव गोपालापुर (जौनपुर) गई।
वहां दीवार के सहारे पेड़ से आम तोड़ने के प्रयास में संतुलन बिगड़ा और मैं पीठ के
बल धड़ाम से गिर गई। मेरी रीढ़ की हड्डी टूट गई और कोई चार साल तक मैं चारपाई में
ही पड़ी रही। मेरे कमर के नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। मैं अवसाद में
रहने लगी। मैं चिड़चिड़ी हो गई। लगने लगा कि अब मैं शायद ही कुछ कर पाऊं। ऐसे
नाजुक क्षणों में मैंने ओलिवर डिसूजा को देखा जोकि मेरी ही तरह दिव्यांगता का
शिकार हैं। मैं उनसे मिली और यह जानने का प्रयास किया कि क्या मैं कुछ कर सकती
हूं। ओलिवर डिसूजा ने मुझे विश्वास दिलाया कि मैं हर वह काम कर सकती हूं जोकि
असम्भव लगता है। आखिरकार मैंने संकल्प लिया और अपने कुछ लक्ष्य तय किए। मेरा खेलों
की तरफ रुझान बढ़ा और मैंने तैराकी तथा बास्केटबाल में हाथ आजमाने शुरू कर दिए।
मैं मनमौजी स्वभाव की हूं, जो भी ठान लेती हूं, उसे कर दिखाती हूं। मुझे अपने
कामकाज में किसी का दखल पसंद नहीं, इस बात को हमारे अपने सभी जानते हैं। हमारे
परिजनों को भी पता है कि निशा जो ठान लेगी उसे किए बिना नहीं मानने वाली। निशा बताती
हैं कि जब मैंने तैराकी में हिस्सा लेने का मन बनाया तब मन में सफलता को लेकर किसी
तरह का दबाव नहीं था, लेकिन अब मैं देश के लिए खेलना चाहती हूं। मैं तैराकी,
बास्केटबाल के साथ एथलेटिक्स में भी हाथ आजमा रही हूं। इसके लिए मैंने जिम जाना
शुरू कर दिया है। मैंने टोकियो पैरालम्पिक में देश का प्रतिनिधित्व करने का लक्ष्य
तय किया है। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए ही, मैं अभी मां नहीं बनना चाहती। पिछले
साल की ही बात है जब मैंने राष्ट्रीय स्तर पर तरणताल में अपने लाजवाब प्रदर्शन से
तीन कांस्य पदक जीते तो बास्केटबाल में अपनी टीम को कांस्य पदक दिलाया था।
निशा सिर्फ खेल ही नहीं अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भी खासा दखल रखती हैं।
वह शानदार आर्टिस्ट के साथ ही बेहतरीन ह्वीलचेयर डांसर भी हैं। टैटू बनाने का
इन्हें काफी शौक है। निशा 2010 से लोगों के शरीर पर टैटू बना रही हैं। निशा ने
2013 में मिस ह्वीलचेयर इंडिया प्रतियोगिता में सहभागिता कर अपनी प्रतिभा का लोहा
मनवाया था। सच कहें तो 30 साल की निशा हरफनमौला शख्सियत हैं। निशा के हर क्षेत्र
में दखल को देखते हुए डांसर सुधा चंद्रन उन्हें महिला सम्मान से भी नवाज चुकी हैं।
निशा कहती हैं कि यदि वह दिव्यांग नहीं होतीं तो शायद जिस मुकाम पर आज वह हैं,
वहां नहीं पहुंच पातीं। निशा को पढ़ाई-लिखाई से गहरा लगाव है। वह दिव्यांगों के
बीच जाकर हमेशा उनकी हौसलाअफजाई करती हैं। उन्होंने एक बार फिर पढ़ाई पर ध्यान
देना शुरू कर दिया है। निशा कहती हैं कि दिव्यांगता ही मेरी ताकत है। मैं चाहती
हूं कि हर दिव्यांग के चेहरे पर कामयाबी की मुस्कान हो। वह कहती हैं कि दिव्यांगता
को अभिशाप मानने की बजाय लोगों को निःशक्तजनों को बेहतरीन तालीम देने के प्रयास
करने चाहिए ताकि ये पढ़-लिखकर देश को सुशिक्षित कर सकें।
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