Tuesday, 15 November 2016

मोदी जी शब्द नहीं दिव्यांगों का जीवन बदले


लगभग दो करोड़ दिव्यांग समाज की मुख्यधारा से वंचित
दिव्य चिंतन में डूबे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 दिसम्बर, 2015 को आकाशवाणी से प्रसारित अपने लोकप्रिय कार्यक्रम मन की बात में विकलांगजनों का उल्लेख करते हुए कहा कि देशवासियों विकलांगों को अब दिव्यांग नाम से जाना जाए क्योंकि इनके अंदर ऐसी प्रतिभा होती है जो आम आदमी में नहीं होती। दिव्यांगता कोई अभिशाप नहीं बल्कि यह शारीरिक अंगों में कमी के कारण होती है। कुछ कमियों का प्रभाव समझ में नहीं आता जबकि कुछ कमियां हमारे जीवन को प्रभावित कर देती हैं। एक अंग बेकार होने पर व्यक्ति निशक्त नहीं हो जाता। भारत वह देश है जहां अंधे, गूंगे-बहरे और लंगड़े लोगों के साथ हकलाने वालों पर चुटकुले बनाने जाते हैं। एक तरह से यह दिव्यांगों का उपहास है। एक तो तकदीर की बेरहम मार और ऊपर से समाज के तिरस्कार का दंश शायद ही किसी को भला लगे। इन लोगों की बदनसीबी का आलम यह कि इनके नाम पर खरीदी गई बैशाखी तक घोटाले की चादर में लिपटकर कहीं गुम हो जाती है। समाज से सम्मानजनक व्यवहार और बराबरी के मौके हासिल करने की इन लोगों की लड़ाई आजादी के बाद से चली आ रही है, लेकिन आज तक इसमें कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिला।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बधाई के पात्र हैं कि उनके मन में मुल्क के लगभग दो करोड़ दिव्यांग लोगों के प्रति असीम वेदना है। मोदीजी दिव्यांगों को समाज की मुख्य धारा में वह स्थान दिलाना चाहते हैं जोकि आज तक उन्हें नहीं मिला। प्रधानमंत्री जी ने सही कहा कि विकलांगों के पास भौतिक अंग भले न हों लेकिन उनके पास दिव्य अंग होते हैं। इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और हमारा हिन्दी समाज शारीरिक अक्षम लोगों के लिए अभी तक कोई कायदे का शब्द नहीं ढूंढ पाया है। विकलांग बहुत उपयुक्त शब्द नहीं है फिर भी उसमें एक तरह की करुणा है, लेकिन दिव्यांग। एक कटे हुए टांग वाले आदमी को दिव्यांग पुकारा जाना कैसा लगेगा। मुझे आशंका है कहीं ये नया नाम क्रूर समाज के लिए मनोविनोद का जरिया न बन जाये। मुमकिन है, फिजिकली चैलेंज्ड लोगों का समाज इस नाम पर उसी तरह रियेक्ट करे, जिस तरह कभी दलित लोगों ने हरिजन नाम पर किया था। यह लोग कह सकते हैं कि हमें चने की झाड़ पर मत चढ़ाओ, पहले हमें व्हील-चेयर दिलाओ, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और शौचालयों को हमारे लायक बनाओ, हमें नौकरियां दो। फोकट में एक और नया नाम लेकर हम क्या करेंगे।
दिव्यांग शब्द पर अब तक जो कुछ भी कहा गया उसका मकसद नमो की नेक मंशा पर सवाल उठाना ही है। प्रधानमंत्री मोदी की जहां तक बात है वह युगदृष्टा होने के साथ बहुत बड़े दार्शनिक भी हैं। विकलांगों के पास एक दिव्य अंग होता है, कितनी गहरी बात कही है नमो ने। इंसान के पास जो चीज ना हो, उसकी चिन्ता कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो नहीं है, वह असल में उसके पास दिव्य रूप में मौजूद होती है। आज प्रधानमंत्री जी के दिव्यांग शब्द में छिपे गहरे अर्थ को समझना चाहिए। मोदी जी को यकीन है कि नाम बदलने से सब कुछ बदल जाता है। वायलेंट गुजरात को वाइब्रेंट गुजरात में बदलते ही गुजरात फिर से सचमुच वाइब्रेंट हो गया। योजना आयोग के नीति आयोग बनने से यह बात साबित हो गई, देश में नीति आ चुकी है। अब से पहले तो सिर्फ अनीति ही अनीति थी। औरंगजेब मार्ग बदलकर कलाम मार्ग हुआ तो औरंगजेब के नाम का कलंक इतिहास के पन्नों से हमेशा के लिए धुल गया। नया नाम कई समस्याओं के लिए रामबाण है। नमो की नामकरण क्रांति अभी बहुत आगे जाएगी। कुतात्माओं को हुतात्मा बनाने का रिवाज इस देश में पुराना है।
निशक्त व्यक्ति अधिनियम 1995 के मुताबिक जब शारीरिक कमी का प्रतिशत 40 से अधिक होता है तो वह दिव्यांगता की श्रेणी में आता है। दिव्यांगता ऐसा विषय है जिसके बारे में समाज और व्यक्ति कभी गम्भीरता से नहीं सोचते। क्या आप ने कभी सोचा है कि कोई छात्र या छात्रा अपने पिता के कंधे पर बैठकर, भाई के साथ साइकिल पर बैठकर या मां की पीठ पर लदकर या फिर ज्यादा स्वाभिमानी हुआ तो खुद ट्राईसाइकिल चलाकर ज्ञान लेने स्कूल जाता है, किंतु सीढ़ियों पर ही रुक जाता है क्योंकि वहां रैंप नहीं है और ऐसे में वह अपनी व्हीलचेयर को सीढ़ियों पर कैसे चढ़ाए। उसके मन में एक कसक उठती है, क्या उसके लिए ज्ञान के दरवाजे बंद हैं, क्या शिक्षण संस्थाओं में उसको कोई सुविधा नहीं मिल सकती। शौचालय तो दूर उस के लिए एक रैंप वाला शिक्षण कक्ष भी नहीं है जहां वह स्वाभिमान के साथ अपनी व्हीलचेयर चलाकर ले जा सके एवं ज्ञान प्राप्त कर सके। अफसोस की बात है कि आजादी के बाद से ही दिव्यांगों की बेहतरी के लिए ढेर सारी योजनाएं बनीं लेकिन कोई दफ्तर, बैंक, एटीएम, पोस्ट आफिस, पुलिस थाना, कचहरी ऐसी नहीं है जहां दिव्यांगों के लिए अलग से सुविधाएं मौजूद हों। सामान्य दिव्यांगों की तो छोड़िये यहां के दिव्यांग कर्मचारियों के लिए भी कोई सुविधा नहीं है। अगर दिव्यांगों को बराबर का अधिकार है तो वह नजर क्यों नहीं आता।
ट्रेनों की ही बात करें तो क्या ट्रेन में दिव्यांग अकेले यात्रा कर सकते हैं। प्लेटफार्म, अंडरब्रिज यहां तक कि ट्रेन तक पहुंचने के लिए भी दिव्यांगों को दूसरों की सहायता चाहिए। उनके लिए कोई मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं, किसी तरह अगर वे डिब्बे में चढ़ भी जाएं तो ट्रेन में उनके लिए अलग से शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है। यहां तक कि मतदान केंद्रों पर भी दिव्यांगों को कोई अलग से सुविधा नहीं दी जाती। अधिकांश मतदान केंद्रों पर रैंप न होने के कारण वे मताधिकार से वंचित रह जाते हैं। यह सरकारी तंत्र एवं समाज के लिए सोचनीय और शर्मनाक बात है। हर साल बजट में दिव्यांगों के लिए भारी सहायता राशि की घोषणा की जाती है, कागज पर योजनाएं एवं सुविधाएं उकेरी जाती हैं लेकिन अभी तक कोई भी तंत्र उन्हें मौलिक अधिकार एवं सुविधाएं नहीं दे सका है।
देखा जाए तो हमारे समाज में दिव्यांगता थोथी संवेदनाओं का केंद्र बनकर रह गई है। दिव्यांगों से तो सभी सहानुभूति रखते हैं लेकिन उन्हें दोयम-दर्जे का व्यक्तित्व मानते हैं। बेचारे, पंगु, निर्बल, निशक्त न जाने कितने संवेदनासूचक शब्दों से हम उन्हें पुकारते हैं। कितनी सरकारी योजनाएं, विभाग बन गए लेकिन क्या दिव्यांगों को हम सबल बना पाए, क्या उनको राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़कर राष्ट्र निर्माण में उनका योगदान ले पाए हैं। इसके लिए सिर्फ सरकार ही नहीं हम सभी जिम्मेदार हैं। दरअसल, दिव्यांगों के अधिकारों को आवाज देता संयुक्त राष्ट्र दिव्यांगता समझौता, विश्वव्यापी मानवाधिकार समझौता है। यह समझौता स्पष्ट रूप से दिव्यांगों के अधिकारों एवं विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा निर्बाध रूप से दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें बेहतर सुविधाएं प्रदान करने की पैरवी करता है।
देश की संसद ने दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण, पूर्ण भागीदारी) अधिनियम-1995 दिव्यांगता अधिनियम पारित किया। स्वाभाविक तौर पर अशक्त लोगों के अधिकारों को प्रतिपादित करते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के शाइट्स आफ पर्सन्स विद डिस्एबिलिटीज कन्वेंशन में कही गई बातों को 2007 में स्वीकार किया और दिव्यांगों के लिए बने अधिनियम 1995 को संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा पारित कन्वेंशन जिस पर 2008 में अमल शुरू हुआ, के आधार पर बदलने की बात कही। फिलहाल देश भर में करीब 40 कम्पनियां दिव्यांगों को नौकरियां दे रही हैं। गैर सरकारी संस्थानों की यह पहल निश्चित रूप से दिव्यांगों के जीवन में नए रंग भर सकती है। आज आवश्यकता है दिव्यांगों को समान अधिकार देने की व सम्मानपूर्वक जीवन की मुख्यधारा से जोड़ने की ताकि वे देश निर्माण में अपना योगदान दे सकें। मोदीजी आपको इन दिव्यांगों के लिए कुछ नया करना होगा वरना इस शब्द पर उपहास उड़ेंगे और दिव्यांगों को भी अच्छा नहीं लगेगा।


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