Saturday, 5 November 2016

नर नहीं नारायण

जगदगुरू श्री रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य महाराज

भारतीय धरा पर वैसे तो हर युग और हर काल में एक से बढ़कर एक महापुरुषों ने जन्म लेकर मानवता की सेवा की है लेकिन कलयुग में दिव्यांगों की सेवा का जो पुनीत कार्य चित्रकूट में जगदगुरू श्री रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य महाराज द्वारा किया जा रहा है, वह अतुलनीय है। चित्रकूट की जहां तक बात है दीनदयाल शोध संस्थान और नानाजी देशमुख के ग्राम विकास के प्रकल्पों के नाते इसकी ख्याति चहुंओर गूंजी है लेकिन जगदगुरू श्री रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य महाराज ने अपनी प्रतिभा और प्रयत्नों की पराकाष्ठा से चित्रकूट की पावन धरा को मानव सेवा का अभिनव-तीर्थ बना दिया है। इस तीर्थस्थली में देश भर के लगभग दो हजार दिव्यांग बालक-बालिकाओं की न केवल परवरिश हो रही है बल्कि उन्हें अपने पैरों पर भी खड़ा किया जा रहा है। सिर्फ 15 साल में ही यहां संचालित जगदगुरू रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय दिव्यांगों का तीर्थस्थल सा बन गया है। यहां अध्ययनरत सैकड़ों छात्र-छात्राओं के चेहरे की मुस्कान और उनका कुछ कर गुजरने का जुनून यही सिद्ध करता है कि उन्होंने वाकई दिव्यांगता पर फतह हासिल कर ली है।  
हमारे समाज से हमेशा से यही आवाज मुखरित होती रहती है कि संत-महात्माओं को मठों-मन्दिरों से निकल कर पीड़ित मानवता की सेवा को ही राघव सेवा मानकर अपना सर्वस्व अर्पित करना चाहिए। समाज की इस जरूरत को जगदगुरू स्वामी रामभद्राचार्य ने न केवल आत्मसात किया बल्कि मानवता यानि दिव्यांगों की सेवा के महती कार्य को उन्होंने चरितार्थ भी कर दिखाया है। चित्रकूट में देश का पहला विकलांग विश्वविद्यालय जगदगुरू स्वामी रामभद्राचार्य की साधना का प्रतिबिम्ब ही नहीं उनकी सेवाभावना का अतुलनीय मंदिर है। 26 जुलाई, 2001 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने इसका विधिवत उद्घाटन किया था। तत्समय वहां दिव्यांगों के साथ ही सामान्य छात्र-छात्राओं को भी अध्ययन का मौका दिया गया। समय बीता और स्वामी जी ने महसूस किया कि हम अपने उद्देश्य से कहीं न कहीं भटक तो नहीं गए। दिव्यांगों में हीनभावना का विकार जन्म ना ले इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इस विश्वविद्यालय में सिर्फ दिव्यांगों को ही तालीम देने का निश्चय किया।
जगदगुरू श्री रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य महाराज इस विश्वविद्यालय के आजीवन कुलाधिपति हैं। आज इस विश्वविद्यालय में अध्ययनरत विद्यार्थियों की संख्या लगभग 1400 है जिसमें लगभग दो सैकड़ा छात्राएं भी अपना जीवन संवार रही हैं। यहां अध्ययनरत छात्र-छात्राओं को विश्वविद्यालय की ओर से छात्रावास सुविधा के साथ ही खेलने-कूदने की भी सभी सुविधाएं मयस्सर हैं। यहां अध्ययनरत बच्चे जिम में जाकर अपने आपको फौलादी बना सकते हैं। विश्वविद्यालय में दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए अधिकांश सुविधाएं निःशुल्क या फिर नाममात्र के शुल्क पर उपलब्ध हैं। फिलहाल यहां उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तरांचल के विद्यार्थी ही ज्यादा हैं। कुछ विद्यार्थी असम, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के भी तालीम हासिल कर रहे हैं। जगदगुरू के तुलसी-पीठ आश्रम में छात्राओं को छात्रावास सुविधा मिली हुई है। इसके अतिरिक्त आश्रम परिसर में ही प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन) मूक-बधिर एवं अस्थि विकलांग बच्चों के लिए प्राथमिक पाठशाला से लेकर उच्चतर माध्यमिक स्तर तक विद्यालय भी चलता है। यहां अध्ययनरत सभी बच्चों को आवास, भोजन, वस्त्र आदि सुविधाएं भी निःशुल्क प्राप्त हैं। स्वामी रामभद्राचार्य दिव्यांगों को अपना भगवान मानते हैं। स्वामी जी की अनूठी भगवद्साधना का ही प्रतिफल है कि आज यहां अध्ययन के लिए देश भर से छात्र-छात्राएं आ रहे हैं।
14 जनवरी, 1950 को जौनपुर जिले के गांव सांडी खुर्द, सराय भोगी में एक सरयूपारीय कृषक ब्राह्मण परिवार (स्वर्गीय राजदेव मिश्र-सची मिश्र) में उनका जन्म हुआ। चार भाई और छह बहनों में तीसरे नम्बर के गिरधर मिश्र के जन्म के ठीक दो महीने बाद आंखों में दाने पड़ गए। पास के ही एक गांव की दाई को उनकी मां ने उपचार के लिए दिखाया। दाई ने दाने फोड़ दिए किन्तु दुर्भाग्य से रोहुआ के दाने फूटने की जगह उनकी आंखें ही फूट गईं। बचपन में ही आंखें खो देने का आज स्वामी रामभद्राचार्य को कतई मलाल नहीं है। वह कहते हैं जो भगवान की इच्छा थी सो हुआ, मेरी आंखों का रोग तो गया नहीं किन्तु मेरे भव रोगों का निदान जरूर हो गया। स्वामी जी के बचपन का नाम गिरिधर था। बचपन में अपने बाबा पंडित सूर्यबली मिश्र के सान्निध्य में रहकर बालक गिरिधर ने रामचरित मानस, श्रीमद्भगवदगीता को खेल-खेल में कंठस्थ कर लिया। स्वामी जी को पठन-पाठन से रुचि थी सो आगे चलकर उन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय (वाराणसी) से अपना शोध कार्य पूर्ण किया। पढ़ाई में सदैव सिरमौर रहने के चलते उन्हें पारितोषिक बतौर दर्जनों स्वर्ण पदकों से नवाजा जा चुका है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा इनकी अनोखी प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त कर दिया गया लेकिन गिरिधर के जीवन का उद्देश्य तो और ही था। 19 नवम्बर, 1983 को तपोमूर्ति श्री रामचरण दास जी महाराज फलाहारी से उन्होंने संन्यास की दीक्षा ली और आगे चलकर उन्होंने 1987 में तुलसी जयंती के दिन चित्रकूट में तुलसी पीठ की स्थापना की। बचपन और युवावस्था में शारीरिक न्यूनता ने उनके सहज जीवन में कदम-कदम पर विपदाएं-बाधाएं पैदा कीं लेकिन इससे वह निराश नहीं हुए। स्वामी जी ने हर विपदा को न केवल हंसते हुए सहन किया बल्कि इन कष्टों की अनुभूति ने उन्हें दिव्यांगों के लिए कुछ करने की प्रेरणा दी। दिव्यांगों के प्रति असीम करुणा भावना से ओतप्रोत उन्होंने संकल्प लिया कि अपनी शिक्षा के लिए जो कष्ट उन्हें सहने पड़े, वे अब किसी अन्य दिव्यांग विद्यार्थी को सहन नहीं करने पड़ें। दिव्यांगों की शिक्षा-दीक्षा के लिए स्वामीजी ने न केवल सपना देखा बल्कि पहले प्राथमिक पाठशाला फिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय और अब विश्वविद्यालय के रूप में उसे साकार कर दिखाया।
स्वामी जी ने बातचीत में बताया कि मानवता ही मेरा मंदिर है और मैं इसका एक पुजारी हूं। सच कहें तो यह दिव्यांग ही मेरे महेश्वर हैं और मैं इनका कृपाभिखारी हूं। जगदगुरू रामभद्राचार्य जी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से काफी प्रभावित हैं। स्वामीजी कहते हैं कि इस विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिलाना ही मेरा मकसद है। यदि ऐसा हुआ तो मैं इसका नाम जगदगुरू रामभद्राचार्य दिव्यांग विश्वविद्यालय कर दूंगा। वर्ष 2001 में स्थापित जगदगुरू रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय विश्व का एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय है जो केवल दिव्यांगों के लिए है। इस विश्वविद्यालय में दिव्यांग बच्चे उच्च तालीम के साथ-साथ कला ही जीवन है, को मूलमंत्र मान चुके हैं। जगदगुरू रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय चित्रकूट (उत्तरप्रदेश) के छात्र-छात्राएं आज खेल और ललित कला के क्षेत्र में देश भर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। इन दिव्यांग छात्र-छात्राओं में मूक-बधिरों की संख्या अधिक है। श्रवण शक्ति से क्षीण ये प्रतिभाएं अपनी अतीन्द्रिय से सब कुछ अपने चित्रों में रूपायित कर उन्हें मुखरित कर रही हैं। अस्थि दिव्यांग छात्रों के हाथ भले ही टेढ़े-मेढ़े और कमजोर हों लेकिन तूलिका पकड़ने, चित्रों और मुर्तियों को आकार देने में पूर्ण समर्थ हैं। कुछ छात्र-छात्राएं जिनके हाथ भी नहीं हैं वे अपने पैरों को तूलिका और लेखनी बनाकर जो चित्र या मूर्तियां गढ़ रहे हैं, वे अप्रतिम हैं।
कितने प्रज्ञाचक्षु बालक-बालिकाओं को यहां संगीत की शिक्षा लेते, विभिन्न वाद्ययंत्रों को बजाते, कम्प्यूटर चलाते देखा जा सकता है। इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य विद्यार्थियों को मात्र साक्षर करना ही नहीं बल्कि उनमें जीवन संग्राम में जूझने के लिए हौसला पैदा करना भी है। यहां दिव्यांगों को रोजगारपरक पाठ्यक्रमों से भी जोड़ा जाता है ताकि पढ़ाई पूरी करने के बाद वह किसी पर निर्भर न रहें। यहां पढ़ने वाले सभी छात्रों के लिए कम्प्यूटर अनिवार्य है। इस पूरे गुरुकुल परिवार की एक और श्रद्धा केन्द्र हैं डा. गीता मिश्र, जो स्वामीजी की बड़ी बहन हैं। स्वामी रामभद्राचार्य के सपनों को साकार करने में उनका त्याग भी अवर्णनीय है। स्वामी जी की छत्रछाया में रहने वाले सैकड़ों बालक-बालिकाएं अनुसूचित जाति-जनजाति से सम्बन्ध रखते हैं तो कुछ मुसलिम भी हैं। जाति-पात के भेद से परे विकलांग देव की सेवा में लगे स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं भगवान की कोई जाति नहीं होती। विकलांग मेरे भगवान हैं तो इनमें जाति कैसे हो सकती है।
जगदगुरू रामभद्राचार्य जी प्रज्ञाचक्षु हैं और केवल अपनी स्मरण शक्ति के आधार पर ही सबकुछ याद रखते हैं। इनकी स्मरण शक्ति इतनी अद्भुत है की मात्र पांच साल की आयु में ही इन्होंने गीता के सम्पूर्ण 700 श्लोक और सात वर्ष की आयु में सम्पूर्ण रामचरितमानस कंठस्थ कर ली थी। यही नहीं बिना ब्रेल का उपयोग किये, इन्होंने पीएचडी तथा डीलिट तक की अपनी शिक्षा सम्पूर्ण की। स्वामी जी अब तक 152 पुस्तकें लिख चुके हैं। इन्हें साहित्य अकादमी, कविकुलरत्न, महामहोपाध्याय आदि जैसे उच्चकोटि के अनेक पुरस्कार और उपाधियों से नवाजा जा चुका है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने अपने शोध में रामभद्राचार्यजी की स्मरण शक्ति को सात कम्प्यूटरों के बराबर पाया है।
स्वामीजी के अग्रज और विश्वविद्यालय के फाइनेंशियल अधिकारी रमापति मिश्र बताते हैं कि हम लोगों का जन्म मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। मां-बाप के पास इतना पैसा नहीं था कि हम कुछ लीक से हटकर करते। स्वामीजी की अदम्य इच्छाशक्ति और कड़ी मेहनत का ही प्रतिफल है यह विश्वविद्यालय। रिजर्व बैंक में प्रबंधक की नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद स्वामी जी के कहने पर मेरे मन में भी दिव्यांगों की सेवा का बोध हुआ। मैं इस विश्वविद्यालय से पिछले 11 साल से जुड़ा हुआ हूं। स्वामीजी की दिन-रात की अथक मेहनत से कभी-कभी मैं हैरान रह जाता हूं। सच कहें तो इन दिव्यांग बच्चों की परवरिश और इनके अध्ययन के लिए ही स्वामीजी देशभर में कथा सुनाते हैं। सच कहें स्वामीजी नर नहीं नारायण हैं। ऐसी विलक्षण तथा अद्वितीय प्रतिभा के धनी जगदगुरू रामभद्राचार्य जी को मेरा शत-शत नमन।





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