Thursday, 3 November 2016

बिना हाथों खींची उम्मीदों की किरण


चित्रकूट में निखरी पानीपत हरियाणा की रुचि ग्रोवर की मेधा

 देश ही नहीं विदेशियों को भी भा रही रुचि की कलाकारी
10-11 साल की उम्र में ही जब बच्चे खेल-खेल में सपने देखना शुरू करते हैं, ऐसे समय में ही यदि उन पर वज्राघात हो जाए तो उनका भविष्य निःसंदेह अंधकारमय हो जाता है। 16 अप्रैल, 1982 को पानीपत (हरियाणा) में एंशी लाल ग्रोवर-अनिता ग्रोवर के घर एक बिटिया ने जन्म लिया। बचपन से ही शांत-सौम्य इस बेटी को क्या पता था कि 11 साल की उम्र में ही वह किसी हादसे का शिकार हो जाएगी, मां का साया उसके सर से उठ जाएगा और सारे अरमान चूर-चूर हो जाएंगे। जगत गुरु स्वामी भद्राचार्य विश्वविद्यालय चित्रकूट में अध्ययनरत लगभग डेढ़ हजार दिव्यांग छात्र-छात्राएं अपने अरमानों को पर लगाने की कोशिश में जुटे हैं। इन पर किसी न किसी रूप में कुदरत का कहर बरपा है लेकिन इनका हौसला देखने के बाद नहीं लगता कि यह अपनी जिन्दगी से निराश हैं। अलसुबह आँख खोलते ही दर्द की सांवली परछाइयां इन दिव्यांगों को कुछ कर गुजरने का हौसला देती हैं। इन सब में कुछ न कुछ नया करने का जुनून है लेकिन इनमें रुचि ग्रोवर सबसे अलग है। वह कला साधना में लीन पैरों से उम्मीदों की किरणें खींच रही है। उसके बनाए चित्र बताते हैं कि दिव्यांगता शरीर की पीड़ा हो सकती है, मन की कदाचित नहीं।
रुचि ग्रोवर चार सितम्बर, 1993 के उस भयावह हादसे को याद करते ही सहम सी जाती है। उस दिन एंटीना सही करते वक्त गिरे 22 हजार वोल्टेज के बिजली के तार ने उसके दोनों कान और हाथ ही नहीं छीने बल्कि उसकी मां तथा भाई को भी उससे जुदा कर दिया। उस हादसे ने रुचि की मुस्कान ही छीन ली। समय बदला लेकिन उसे सुकून महसूस नहीं हुआ। वह तन्हाइयों के किले में कैद हो गई। आखिरकार रुचि के पिता ने दूसरी शादी कर ली। बस फिर क्या रुचि के ख्यालों और जज्बातों ने उसे कुछ कर गुजरने के सपने दिखाए और वह तन्हाइयों के किले से बाहर निकल पड़ी। हाथों की जगह उसने पैरों को अपना सम्बल बनाया। वह कहती है कि वक्त और उम्र के साथ कुछ ख्वाब आते-जाते मेरी आँखों के रोशनदान में चुपके से झांक गये। जिन्दगी में कहने को बहुत से अपने हैं, मगर कोई अपना नहीं। रिश्ते रिसते घावों की तरह तकलीफदेह हैं। बस एक दर्द, एक तन्हाई है। और है एक बेमौत मरती-सी जिंदगी, जो मेरी साँसों के साथ-साथ अपना सफर तय कर रही है। अनचाहे-अनबोले।

मैंने स्वामी भद्राचार्य को अपना आदर्श मानते हुए संकल्प लिया कि अब मैं अपने पैरों से कुछ ऐसा करूंगी जिसे देश ही नहीं दुनिया सराहेगी। रुचि पिछले तीन साल से विकलांग विश्वविद्यालय चित्रकूट में अपनी कला साधना को मूर्तरूप देने में प्राणपण से जुटी है। उसके द्वारा बनाए चित्र आंखों को भाने के बाद कुछ बोलते से नजर आते हैं। रुचि अपने सारे कार्य स्वयं करती है, यहां तक कि वह पैरों से ही अपने मोबाइल को आपरेट करने के साथ ही देश-दुनिया को करीब से देख और समझ पा रही है। रुचि कला को ही अपनी अंतिम सांस और जीवन मानने लगी है। उसके चित्रों को भारत ही नहीं विदेशी कलाप्रेमियों द्वारा भी खूब सराहा जा रहा है। उसे जगह-जगह से नौकरी के आफर भी मिल रहे हैं लेकिन रुचि अपनी तालीम को मुकम्मल स्थान देना चाहती है। वह कला के क्षेत्र में एक ऐसी इबारत लिखना चाहती है जो हर निःशक्त की ताकत बने। रुचि का जुनून देखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि यह बेटी अपने मकसद में न केवल सफल होगी बल्कि एक नया कीर्तिमान भी स्थापित करेगी।     

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