Tuesday 4 October 2016

इनकी जांबाजी को देश का सलाम

मरियप्पन थंगवेलु, देवेन्द्र झाझरिया, दीपा मलिक, वरुण भाटी ने बढ़ाया मान
यदि कुछ कर गुजरने की चाहत और जुनून हो तो हर कामयाबी हासिल की जा सकती है। हम जिन निःशक्तजनों को हेयदृष्टि से देखते हैं या जिन पर तरस खाते हैं, उनकी कामयाबियों पर नजर डालें तो क्या नहीं लगता कि भारत का असली गौरव तो यही हैं। ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरियो में खत्म हुए ओलम्पिक खेलों की धूम दुनिया भर में किस कदर रही, यह सभी जानते हैं लेकिन उसी शहर में हुए पैरालम्पिक खेल मुकाबलों में बहुतों की कोई रुचि ही नहीं दिखी। हमने यह जानने का भी प्रयास नहीं किया कि भारतीयों ने वहां चार पदक जीते जिनमें एक विश्व कीर्तिमान के साथ दो स्वर्ण पदक भी शामिल हैं।
राजस्थान के देवेन्द्र झाझरिया ने रियो में इतनी दूर भाला फेंका कि लोग दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो गये। पैरालम्पिक इतिहास में दो स्वर्ण पदक जीतने वाले देवेन्द्र पहले भारतीय हैं। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इन्हीं खेलों में हरियाणा की जांबाज एथलीट, देविका और अम्बिका की मां दीपा मलिक ने गोला फेंक में चांदी का पदक जीत दिखाया। दीपा यह कारनामा करने वाली भारत की पहली महिला पैरा एथलीट हैं। यह गर्व की बात है कि ओलम्पिक के समानान्तर शारीरिक-मानसिक तौर पर किसी कमी के शिकार खिलाड़ियों के लिए होने वाले इस आयोजन में भारत के चार खिलाड़ियों ने देश का नाम रोशन किया है। ऊंची कूद में मरियप्पन थंगवेलु की स्वर्णिम छलांग के बाद चुरू (राजस्थान) के देवेन्द्र झाझरिया ने भालाफेंक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया। इससे पहले 2004 के एथेंस पैरालम्पिक में भी उन्होंने स्वर्ण पदक जीता था। इस तरह पैरालम्पिक खेलों में दो स्वर्ण पदक जीतने वाले वे पहले भारतीय खिलाड़ी हैं।
गौरतलब है कि आठ साल की उम्र में पेड़ पर चढ़ते हुए देवेन्द्र का हाथ उच्चदाब की बिजली की चपेट में आकर बुरी तरह जल गया, जिसे बाद में काटना पड़ा। लेकिन उनके जीवट में कोई कमी नहीं आई। बार-बार उन्होंने साबित किया कि वे किसी से कम नहीं हैं। इससे पहले मरियप्पन थंगवेलु ने पुरुषों की ऊंची कूद के मुकाबले में भारत को पहला स्वर्ण पदक दिलाया तो कमर से नीचे पोलियो की शिकार दीपा मलिक ने गोलाफेंक में रजत हासिल किया और वरुण भाटी ने भी ऊंची कूद में कांस्य पदक जीता। इस साल के ओलम्पिक में भारत ने अपनी सबसे बड़ी टीम भेजी थी और उम्मीद थी कि हमारे खिलाड़ी कम से कम दस पदक जरूर लेकर आएंगे लेकिन देश को सिर्फ दो पदकों से संतोष करना पड़ा, वह भी दो बेटियों शटलर पी.वी. सिन्धु और पहलवान साक्षी मलिक के बूते।
ओलम्पिक की तैयारियों में झोंके गए संसाधनों के मुकाबले उपेक्षित पैरालम्पिक खिलाड़ियों ने सीमित सुविधाओं के बीच अपनी किसी शारीरिक या मानसिक कमी के सवाल को पीछे छोड़ते हुए निःसंदेह शानदार प्रदर्शन किया है।
भारत में व्यवस्थागत रूप से खेलों को लेकर क्या रुख रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। इसका नतीजा अमूमन हर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में देखने को मिलता रहा है। जब भारत की झोली में एक-दो पदक आ जाते हैं तो उसे किसी बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश किया जाता है। जबकि क्षेत्रफल, आबादी और संसाधनों के स्तर पर भारत के मुकाबले कई गुना पीछे रहने वाले देश इस मामले में हमसे काफी आगे दिखते हैं। सवा अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में यह तस्वीर अफसोसजनक ही कही जाएगी। हम 116 साल से ओलम्पिक खेलों में शिरकत कर रहे हैं लेकिन पदकों की संख्या सिर्फ 28 है, जिनमें 11 पदक तो उस हाकी से हैं जिसमें 36 साल से हमें कोई तमगा ही नहीं मिला है। टके भर का सवाल है, क्या खेलों की बदहाल स्थिति के लिए अकेले खिलाड़ी ही कसूरवार हैं। अब तक जिन खिलाड़ियों को पदक मिले हैं उनका आकलन किया जाए तो यही तथ्य सामने आता है कि उनकी तैयारी में जितनी भूमिका देश के खेल-तंत्र की रही, उससे ज्यादा उन्होंने अपने स्तर पर कोशिश की। रियो ओलम्पिक के दौरान भारत के खिलाड़ियों को जिन असुविधाओं और व्यवस्थागत अभाव का सामना करना पड़ा, वह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में किसी शारीरिक या मानसिक कमी का सामना करने के बावजूद पैरालम्पिक में हमारे खिलाड़ियों ने जो देश के नाम शानदार कामयाबी दर्ज की है वह इन खिलाड़ियों के जीवट की ही जीत कही जाएगी। अगर खेलों के मामले में पर्याप्त इंतजाम और प्रतिभाओं की खोज के साथ-साथ उन्हें हर स्तर पर उचित प्रोत्साहन मिले तो अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं की पदक-तालिका में भारत का नाम अग्रणी देशों के बीच आ सकता है। आओ मरियप्पन थंगवेलु, देवेन्द्र झाझरिया, दीपा मलिक तथा वरुण भाटी की कामयाबी पर जश्न मनाएं ताकि अगले पैरालम्पिक में भारत के खिलाड़ी और बेहतर प्रदर्शन करें।


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