बिहार की बेटी ने एक पैर से किया माउंट एवरेस्ट फतह
श्रीप्रकाश शुक्ला
कहते हैं हवा के अनुकूल चलने वाला जहाज कभी
बन्दरगाह नहीं पहुंचता। प्रतिकूल परिस्थितियों में जो अपने लक्ष्य से विचलित नहीं
होता सफलता उसी के कदम चूमती है। कृत्रिम पैर के सहारे हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट
एवरेस्ट फतह कर उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर का नाम रोशन करने वाली अरुणिमा
सिन्हा कहती हैं मेरा कटा पांव मेरी कमजोरी था, जिसे मैंने अपनी ताकत बनाया।
बास्केटबॉल खिलाड़ी अरुणिमा को 11 अप्रैल, 2011 की वह काली रात
आज भी याद आती है जब पद्मावत एक्सप्रेस से वह दिल्ली जा रही थीं। बरेली के पास कुछ
अज्ञात बदमाशों ने उनके डिब्बे में प्रवेश किया। अरुणिमा को अकेला पाकर वे उनकी चैन
छीनने लगे। छीना-झपटी के बीच बदमाशों ने उन्हें ट्रेन से नीचे फेंक दिया। जिससे
उनका बांया पैर कट गया। लगभग सात घण्टे तक वे बेहोशी की हालत में तड़पती रहीं। इस
दौरान दर्जनों ट्रेनें गुजर गईं।
सुबह टहलने निकले कुछ लोगों ने जब पटरी के
किनारे अरुणिमा को बेहोशी की हालत में पाया तो तुरंत अस्पताल पहुंचाया। जब मीडिया
सक्रिय हुआ तो अरुणिमा को दिल्ली के एम्स में भर्ती कराया गया। एम्स में इलाज के
दौरान उनका बांया पैर काट दिया गया। तब लगा बास्केटबॉल की राष्ट्रीय स्तर की
खिलाड़ी अरुणिमा अब जीवन में कुछ नहीं कर पायेगी। लेकिन उसने जिन्दगी से हार नहीं
मानी। अरुणिमा की आंखों से आंसू निकले लेकिन उन आंसुओं ने उन्हें कमजोर करने के
बजाय साहस प्रदान किया और देखते ही देखते अरुणिमा ने दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने की ठान ली। अरुणिमा ने ट्रेन पकड़ी और सीधे जमशेदपुर
पहुंच गईं। वहां उन्होंने एवरेस्ट फतह कर चुकी बछेन्द्री पाल से मुलाकात की। फिर
तो मानो उनके पर से लग गये। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद 31 मार्च को उनका मिशन एवरेस्ट शुरू हुआ। 52 दिनों की इस चढ़ाई में 21 मई को माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर वे
विश्व की पहली विकलांग पर्वतारोही बन गईं। अरुणिमा का कहना है विकलांगता व्यक्ति
की सोच में होती है। हर किसी के जीवन में पहाड़ से ऊंची कठनाइयां आती हैं जिस दिन
वह अपनी कमजोरियों को ताकत बनाना शुरू करेगा हर ऊंचाई बौनी हो जायेगी।
अम्बेडकर नगर के शहजादपुर इलाके में एक मुहल्ला
है पंडाटोला वहीं एक छोटे से मकान में रहने वाली अरुणिमा सिन्हा के जीवन का बस एक
ही लक्ष्य था- भारत को वॉलीबाल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाना। छठी कक्षा
से ही वे इसी जुनून के साथ पढ़ाई कर रही थीं। समय गुजरता गया, समाजशास्त्र में
स्नातकोत्तर और कानून की डिग्री लेने के साथ अरुणिमा राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबाल
खिलाड़ी के रूप में पहचान बनाने लगीं। इसी बीच 11 अप्रैल, 2011 की घटना ने उनकी जिन्दगी ही बदल दी। नई दिल्ली
के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में चार महीने तक भर्ती रहने के बाद जब अरुणिमा को एम्स से छुट्टी मिली
तो वह उस हादसे को भूलकर एक बेहद कठिन और असम्भव से प्रतीत होने वाले लक्ष्य को साथ
लेकर अस्पताल से बाहर निकलीं। लक्ष्य था विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट को फतह
करने का। अब तक कोई भी विकलांग ऐसा नहीं कर पाया था। कटा हुआ बायां पैर, दाएं पैर
की हड्डियों में पड़ी लोहे की छड़ और शरीर पर जख्मों के निशान के साथ एम्स से बाहर
आते ही अरुणिमा सीधे अपने घर न आकर एवरेस्ट पर चढऩे वाली पहली भारतीय महिला
पर्वतारोही बछेन्द्री पॉल से मिलने जमशेदपुर जा पहुंचीं। बछेन्द्री पॉल ने पहले तो
अरुणिमा की हालत देखते हुए उन्हें आराम करने की सलाह दी लेकिन उनके बुलंद हौसलों
के आगे आखिर वे भी हार मान गईं। अरुणिमा ने पॉल की निगरानी में नेपाल से लेकर लेह,
लद्दाख में पर्वतारोहण के गुर सीखे। उत्तराखण्ड में नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ
माउंटेनियरिंग और टाटा स्टील ऑफ एडवेंचर फाउंडेशन से प्रशिक्षण लेने के बाद एक अप्रैल, 2013 को उन्होंने
एवरेस्ट की चढ़ाई शुरू की। 52 दिनों की बेहद दुश्वार पहाड़ी चढ़ाई के बाद
आखिरकार 21 मई को वे
एवरेस्ट की चोटी फतह करने वाली विश्व की पहली महिला विकलांग पर्वतारोही बन गईं। वे
यहीं नहीं रुकीं। युवाओं और जीवन में किसी भी प्रकार के अभाव के चलते निराशापूर्ण
जीवन जी रहे लोगों में प्रेरणा और उत्साह जगाने के लिए उन्होंने अब दुनिया के सभी
सातों महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटियों को लांघने का लक्ष्य तय किया है। इस क्रम
में वे अब तक अफ्रीका की किलिमंजारो और यूरोप की एलब्रुस चोटी पर तिरंगा फहरा चुकी
हैं। अरुणिमा ने केवल पर्वतारोहण ही नहीं आर्टीफीशियल ब्लेड रनिंग में भी अपनी धाक
जमाई है। इसी वर्ष चेन्नई में हुए ओपन नेशनल गेम्स (पैरा) में उन्होंने 100 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता। इस बीच समय
निकाल कर वे उन्नाव के बेथर गांव में शहीद चंद्रशेखर आजाद खेल अकादमी और
प्रोस्थेटिक लिम्ब रिसर्च सेंटर के रूप में अपने सपने को आकार देने में भी जुटी
हैं। वह एक किताब भी लिख चुकी हैं।
अरुणिमा
से बातचीत के अंश-
प्रश्न- एवरेस्ट फतह करने
का मन आपने कब और क्यों बनाया।
उत्तर- ट्रेन हादसे में हमने अपने पैर गंवा दिये थे।
अस्पताल में बिस्तर पर बस पड़ी रहती थी। परिवार के सदस्य, मेरे अपने मुझे देखकर
पूरा दिन रोते, हमें सहानुभूति की भावना से अबला व बेचारी कहकर सम्बोधित करते। यही
मुझे मंजूर न था। पर मुझे जीना था, कुछ करना था। मैंने मन ही मन कुछ अलग करने की
ठानी जो औरों के लिए एक मिशाल बने।
प्रश्न- क्या परिस्थितियां थीं उस समय।
उत्तर- मूलतः हम बिहार के रहने वाले थे। पिताजी फौज
में थे जिस कारण हम लोग सुल्तानपुर आ गये। चार वर्ष की उम्र में पिता का स्वर्गवास
हो गया। मां के साथ हम अम्बेडकर नगर पहुंचे वहां उन्हें स्वास्थ्य विभाग में नौकरी
मिल गई, पर परिवार को चलाना अब भी मुश्किल था। फिर भी इण्टर के बाद एलएलबी की
पढ़ाई की। खेलों में रुझान होने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर वॉलीबाल व फुटबाल में
कई पुरस्कार जीते लेकिन कुछ खास हाथ न लग सका। मेरा सपना था कुछ अलग करने का।
प्रश्न- उस भयानक ट्रेन हादसे पर क्या कहेंगी।
उत्तर- उस रात को मैं सारी उम्र नहीं भूल सकती। मैं
दिल्ली जा रही थी। रात के लगभग दो बजे थे। चारों ओर सन्नाटा था कब मेरी आंख लगी
कुछ पता न चला। तभी बरेली के पास कुछ बदमाश गाड़ी पर चढ़े। अकेला जान वे मेरी चैन
छीनने लगे, मैंने भी डटकर उनका सामना किया। झपटा-झपटी के बीच उन लोगों ने मुझे
ट्रेन से नीचे फेंक दिया, जिससे मेरा बांया पैर कट गया।
प्रश्न- बछेन्द्री पाल से आपने ट्रेनिंग ली, कैसे
पहुंचीं उन तक।
उत्तर- एम्स में इलाज के दौरान ही मैंने बछेन्द्री पाल
जी का मोबाइल नम्बर इण्टरनेट से प्राप्त किया। उनसे मैंने अपनी पूरी कहानी बतायी
और कहा मैं एवरेस्ट पर चढ़ना चाहती हूं। उन्होंने मुझे जमशेदपुर बुलाया। फिर क्या
था अगले ही पल मैं वहां थी। दो वर्ष तक मैंने उनसे ट्रेनिंग ली।
प्रश्न- हिमालय की चढ़ाई के दौरान कैसी चुनौतियां थीं।
उत्तर- 52 दिनों की यात्रा हर पल रोमांच खतरों और हौसलों की कहानी से
भरी थी। सबसे मुश्किल क्षण डेथ जोन एरिया खम्बू आइसलैण्ड के थे। बर्फ की चट्टानों
पर चढ़ाई करनी थी। सिर पर चमकता सूरज था। कब कौन सी चट्टान पिघल कर गिर जाए,
अंदाजा लगाना मुश्किल था।
प्रश्न- माउंट एवरेस्ट पर लाशें देख कैसा लगा।
उत्तर- जब मैं माउंट एवरेस्ट पर चढ़ रही थी, उसके पहले
उसे पार करने की कवायद कर चुके आधा दर्जन से ज्यादा पर्वतारोहियों की सामने पड़ी
लाशें रोंगटे खड़ी कर देती थीं। कभी बर्फ उन्हें ढंक देती, कभी हवा के झोंके उन पर
ढंकी बर्फ हटा देते। ऐसे मंजर का सामना मुश्किल था लेकिन नामुमकिन नहीं।
प्रश्न- सब कह रहे थे वापस आ जाओ, फिर क्या हुआ।
उत्तर- पर्वत पर चुनौतियों का सामना करना बहुत
मुश्किल था, पर धैर्य नहीं खोया। इसी बीच मेरा आक्सीजन सिलेण्डर खत्म हो गया।
कैम्प से मेरे पास फोन आ रहे थे कि अरुणिमा तुम वापस आ जाओ जहां तक तुम पहुंची हो
वो भी एक रिकार्ड है लेकिन मैंने तो मंजिल को पाने की ठानी थी बीच में कैसे आ
जाती।
प्रश्न- आप युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगी।
उत्तर- मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि परिस्थितियां
बदलती रहती हैं, पर हमें अपने लक्ष्य से भटकता नहीं चाहिये बल्कि उनका सामना करना
चाहिये। जब मैं हॉकी स्टिक लेकर खेलने जाती तो मोहल्ले के लोग मुझ पर हंसते थे,
मेरा मज़ाक उड़ाते थे। शादी हुई और फिर तलाक पर मैंने हार नहीं मानी। बड़ी बहन व
मेरी मां ने मेरा साथ दिया। हादसे के बाद मेरे जख्मों को कुरेदने वाले बहुत थे पर
मरहम लगाने वाले बहुत कम। इतना कुछ होने के बाद मैंने अपने लक्ष्य को पाने के लिए
पूरा जोर लगा दिया। अंततः मुझे सफलता मिली।
No comments:
Post a Comment