भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की हठधर्मिता
पर सर्वोच्च न्यायालय का तमाचा
श्रीप्रकाश
शुक्ला
वैश्विक स्तर पर अपने धन-धान्य और हुकूमत का रौब झाड़ने
वाला भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड फिलवक्त मुश्किल में है। देश की हुकूमत के
सामने कभी न झुकने वाला यह खेल संगठन सर्वोच्च न्यायालय के सामने भीगी बिल्ली नजर
आ रहा है। सच्चाई यह है कि पहली बार शेर को सवा शेर मिला है। दरअसल यह सब भारतीय
क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के मठाधीशों के अपने निजी स्वार्थों का ही नतीजा है। देखा
जाए तो इन मठाधीशों ने अपने जनसमुदाय की भावनाओं की रत्ती भर परवाह किए बिना देश
में क्रिकेट के वर्तमान और भविष्य को ही दांव पर लगा दिया है। क्रिकेट के
दुर्भाग्यपूर्ण फलसफों से कई बार मुल्क को शर्मसार होना पड़ा लेकिन उसने अपने
धन-बल की रौब में भारतीय हुकूमत को भी सिरे से खारिज करने का दुस्साहस दिखाने से गुरेज
नहीं किया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वतंत्र ऑडीटर की नियुक्ति और राज्य क्रिकेट
संघों को अनुदान पर रोक दरअसल भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के हम नहीं सुधरेंगे
वाली सोच का ही नतीजा है। इसके लिए और इससे भविष्य में उत्पन्न होने वाली
स्थितियों के लिए सर्वोच्च न्यायालय और न्यायमूर्ति लोढ़ा समिति को दोषी ठहराना
सर्वथा अनुचित होगा। बेहतर होगा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अपनी सोच ही नहीं
अपना चोला भी बदल ले वरना उसे अर्श से फर्श में आने से कोई नहीं रोक पाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय और उसके द्वारा क्रिकेट प्रबंधन में
सुधार के लिए गठित समिति का उद्देश्य देश में सबसे ज्यादा लोकप्रिय इस खेल और इसके
प्रबंधन में पारदर्शिता, जिम्मेदारी और जवाबदेही लाना ही है। सर्वोच्च न्यायालय के
उद्देश्य को नाकाम करने की हरसम्भव कोशिश कर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड दरअसल जनसमुदाय
में व्याप्त इस धारणा को ही पुष्ट कर रहा है कि उस पर धंधेबाज राजनेताओं,
नौकरशाहों और निहित स्वार्थियों का कब्जा है। देखा जाए तो इन मठाधीशों का क्रिकेट
की बेहतरी से कुछ भी लेना-देना नहीं है। क्रिकेट में राजनीतिज्ञों की पैठ उनके
बुरे वक्त का ऐसा राजमहल है जिसमें वह मनचाहे समय तक रहने को स्वतंत्र हैं।
राजनीतिज्ञों की यही धारणा इस खेल के लिए नासूर बनती जा रही है। देखा जाए तो भारतीय
क्रिकेट को धंधेबाजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय
क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को पर्याप्त समय दिया है। सर्वोच्च न्यायालय चाहता है कि भारतीय
क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अपनी रीति-नीति में आमूलचूल सुधार लाए, लेकिन उसकी हठधर्मिता
से लगातार यही संकेत गये कि वह स्वयंभू है, उसे किसी की परवाह नहीं है।
देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश
न्यायमूर्ति लोढ़ा जिनके कार्यकाल में यह सुनवाई शुरू हुई थी, की अगुआई में गठित
समिति भी क्रिकेट प्रबंधन में सुधार के लिए ठोस सिफारिशें दे चुकी है। इन
सिफारिशों पर अमल के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को
बार-बार अल्टीमेटम दे चुका है बावजूद इसके हर बार नया बहाना सामने आ जाता है। दरअसल,
एक राज्य एक वोट, एक व्यक्ति एक पद सरीखे प्रावधान और 70 वर्ष की आयु पूरी कर चुके लोगों और मंत्रियों के
पद पर रोक जैसी सिफारिशें स्वीकार कर लेने से क्रिकेट प्रबंधन और संचालन कैसे
चरमरा जायेगा, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सर्वोच्च न्यायालय इसे समझाने में सफल
नहीं हुआ है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सर्वोच्च न्यायालय की सुधारवादी
सिफारिशों पर अमल कर इस खेल में व्याप्त अंधेरगर्दी को दूर कर एक नजीर स्थापित कर
सकता था। क्रिकेट को चंद निहित स्वार्थियों के चंगुल से मुक्त करवा कर देश में
क्रिकेट प्रबंधन और संचालन को अधिक पारदर्शी, जिम्मेदार और जवाबदेह बनाना समय की
नजाकत है। समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि पारदर्शिता, जिम्मेदारी और जवाबदेही
आने के बाद दुनिया के सबसे अमीर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पर काबिज लोगों की
मनमानी कारगुजारियों पर अंकुश लग जायेगा। दरअसल लोढ़ा समिति की सिफारिशों के विरोध
के पीछे यही मुख्य कारण भी है। इसीलिए लोढ़ा समिति की सिफारिशों और सर्वोच्च
न्यायालय की सख्ती को क्रिकेट के विरुद्ध पेश करने की कोशिश वाली गलतबयानी करने से
भी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड बाज नहीं आया।
पिछले दिनों जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्य क्रिकेट
संघों को भुगतान पर रोक लगाई गयी तो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने भारत-न्यूजीलैंड
सीरीज पर संकट का बहाना बताकर मामले को और पेंचीदा बनाने की भूल कर दी। राज्य क्रिकेट
संघों के भुगतान पर रोक से सीरीज पर संकट की बात कहना पूरी तरह निराधार और असत्य जुमलेबाजी
थी। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट काउंसिल में भी इन सिफारिशों के विरुद्ध दुष्प्रचार और
लॉबिंग से पता चलता है कि क्रिकेट पर काबिज इन मठाधीशों के निहित स्वार्थ कितने
गहरे हैं। अपनी ऐसी हरकतों से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और उस पर काबिज मठाधीश
अपनी रही-सही प्रतिष्ठा भी खोते जा रहे हैं। अगर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और
उसके मठाधीशों के प्रति सर्वोच्च न्यायालय की कुछ टिप्पणियां तल्ख भी नजर आती हैं,
तो इसके लिए भी वे खुद ही जिम्मेदार हैं। देश की सर्वोच्च अदालत के प्रति ऐसा
अवमाननापूर्ण रुख भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को ही कठघरे में खड़ा करने वाला है।
लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने में आनाकानी कर रहे भारतीय क्रिकेट कंट्रोल
बोर्ड के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर के रवैए से भी सर्वोच्च न्यायालय का आगबबूला होना
जायज है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर की अगुआई वाली तीन
सदस्यीय पीठ ने फिलहाल उनके खिलाफ फैसला सुरक्षित कर लिया है और भारतीय क्रिकेट
कंट्रोल बोर्ड की ओर से दाखिल पुनरीक्षण याचिका पर विचार करने के लिए एक पखवाड़े
का समय भी दे दिया है। इस मामले में अदालत का अंतिम फैसला जो भी हो लेकिन अब तक जो
तथ्य सामने आए हैं उसमें भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड खासकर उसके अध्यक्ष की
किरकिरी ही हुई है। गौरतलब है कि लोढ़ा समिति की प्रमुख सिफारिशों में एक यह भी है
कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सभी पदाधिकारियों को हटा दिया जाए और उनकी जगह
प्रशासकों का एक पैनल बनाया जाए जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मंजूर सिफारिशों को
लागू कर सके। समझा जाता है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अध्यक्ष समेत दूसरे
पदाधिकारियों को जो बात नागवार गुजर रही है, वह उनका पद से हटाया जाना ही है।
इसीलिए जब से सिफारिशें घोषित हुई हैं तभी से हरसम्भव कोशिश इस पर अमल लटकाने की
रही है। क्रिकेट को अपनी मिल्कियत बना चुके राजनीतिज्ञ, पूंजीपति और अफसरशाह इसका
मोह नहीं त्याग पा रहे हैं और एन-केन-प्रकारेण खुद को जमाए रखने की हिकमतें आजमा
रहे हैं।
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अध्यक्ष अनुराग ठाकुर पर आरोप
है कि उन्होंने अंतराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद से ऐसा बयान जारी करने के लिए कहा था
जिसमें इस बात का उल्लेख हो कि लोढ़ा समिति की सिफारिशें सरकारी हस्तक्षेप हैं। हालांकि
अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ने शीर्ष अदालत में दिए अपने एक हलफनामे में इस आरोप से
इनकार किया है लेकिन इतना जरूर कहा है कि वे अगस्त में दुबई में आईसीसी अध्यक्ष
शशांक मनोहर से एक बैठक में मिले थे और उन्हें यह याद दिलाया था कि भारतीय क्रिकेट
कंट्रोल बोर्ड अध्यक्ष रहने के दौरान उन्होंने बोर्ड की शीर्ष परिषद में कैग की
नियुक्ति को सरकारी हस्तक्षेप मानते हुए आईसीसी द्वारा बीसीसीआई को निलम्बित करने
की बात कही थी। अब जबकि शशांक मनोहर खुद आईसीसी के अध्यक्ष हैं तो इस मामले में
पत्र जारी करें। हालांकि शशांक मनोहर ने कोई पत्र जारी नहीं किया। इस मामले में
अदालत के न्यायमित्र के तौर पर गोपाल सुब्रहमण्यम ने स्पष्ट किया कि आईसीसी द्वारा
बीसीसीआई की सदस्यता रद्द किए जाने की धमकी का जिक्र उठाना अपने आप लोढ़ा समिति की
सिफारिशों और उच्चतम न्यायालय के फैसले का पालन न करने का ही प्रयास है।
देखा जाए तो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अध्यक्ष का रवैया
हर जगह बाधा पहुंचाने वाला प्रतीत होता है। न्यायमित्र ने सवालिया लहजे में कहा कि
क्या ऐसे शख्स पर भरोसा किया जाए कि वे सुधारों को लागू करेंगे जबकि वे खुद आईसीसी
के अध्यक्ष से पत्र जारी करने को कह रहे हों। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वह इसकी
तह तक जाएगा और यह भी देखेगा कि कहीं यह तौहीन-ए-अदालत का मामला तो नहीं बनता। सर्वोच्च
न्यायालय की इस सख्ती का साफ संकेत है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के
पदाधिकारियों को अदालत के निर्देशों का सम्मान करना सीखना ही होगा। उम्मीद की जानी
चाहिए कि लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा
दी गयी तीन दिसम्बर तक की नई समय सीमा का भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सकारात्मक
उपयोग करेगा। इस उम्मीद का आधार यह भी है कि अगले 10 वर्षों के मीडिया प्रसारण के उसके अधिकार पर भी
अब स्वतंत्र ऑडिटर के रूप में तलवार लटक गयी है। हम कह सकते हैं कि सर्वोच्च
न्यायालय के हस्तक्षेप से ही सही गुरूर का ऊंट पहाड़ के नीचे आ ही गया है।
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