Friday 27 December 2013

...रहम को तरसती जिन्दगी


सियासत बुरी बला है, यदि यह न होती तो शायद मुल्क के अमन को कभी कोई राजनीतिक दल आग न लगा पाता। मुजफ्फरनगर दंगों को हुए तीन माह से अधिक समय बीत चुका है लेकिन वहां की आवाम आज भी खून के आंसू रो रही है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव करीब आते जा रहे हैं, राजनीतिक दल मुजफ्फरनगर को लेकर घड़ियाली आंसू बहाने का कोई मौका जाया नहीं करना चाहते। हर दल पीड़ितों का मसीहा बनने की कोशिश तो कर रहा है पर लोगों की पीड़ा कम होने की बजाय बढ़ती ही जा रही है। अब भी वहां दुर्दशा ऐसे पसरी हुई है, मानो इन पीड़ितो की कोई सरकार नहीं है। तीन माह पहले भी राजनीतिक दलों ने पीड़ितों की पीड़ा हरने की खूब बातें की थीं और आज भी खूब तमाशा हो रहा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर जहां आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं वहीं पीड़ित शिविरों को छोड़कर घर जाने को तैयार नहीं हैं।
शिविरों में रह रहे लोग सरकार और प्रशासन की अनदेखी, संवेदनहीनता, लापरवाही का बखान करते नहीं थक रहे जबकि राजनीतिक दल ऐसी बातें कर रहे हैं मानों वहां सब कुछ भला-चंगा हो। इन दंगों ने उस समाज का क्रूर चेहरा एक बार फिर उजागर कर दिया, जिसे हम सभ्य समझने की खुशफहमी लम्बे समय से पाले हुए हैं। राजनीतिक दलों ने मुजफ्फरनगर साम्प्रदायिक हिंसा की नाजुक घड़ी में संयम और समझदारी दिखाने के बजाय समाज का ध्रुवीकरण करने का उतावलापन अधिक दिखाया है। राजनीतिक दलों के इसी नतीजे का परिणाम है कि तीन महीने बाद भी पीड़ित आवाम किसी पर भी विश्वास करने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी दंगा पीड़ितों के शिविरों में जाकर उनका हालचाल लेकर उन्हें अपने घर वापस लौटने की सलाह देते हैं तो समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव इसे सियासत की नजर से देख रहे हैं। बकौल मुलायम सिंह मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों के लिये बनाये गये राहत शिविरों में अब कोई पीड़ित नहीं रह रहा है। जो लोग वहां हैं वे षड्यंत्रकारी हैं। यह भाजपा और कांग्रेस का षड्यंत्र है। भाजपा और कांग्रेस के लोग रात में जाकर पीड़ितों से कहते हैं कि बैठे रहो, धरना दो और लोकसभा चुनाव तक इसे मुद्दा बनाए रखो। हो सकता है मुलायम जो कह रहे हों वही सच हो पर उन्होंने यदि पीड़ितों के आंसू पोछने में उदारता दिखाई होती तो आज शिविरों में कोई शरणार्थी नहीं होता।
शिविरों में शरणार्र्थी खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। उन्हें डर है कि अगर वे अपने गांव गए तो वापस उन्हें साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार होना पड़ेगा। उनका यह डर दरअसल केन्द्र और प्रदेश सरकार की नाकामी का ही परिचायक है। यह सच है कि दंगों के बाद मृतकों के परिजनों और पीड़ितों को उत्तर प्रदेश सरकार तथा प्रधानमंत्री सहायता कोष से इमदाद के रूप में करोड़ों रुपए की सहायता राशि दी गई है, पर टके भर का सवाल यह है कि जो लोग अपने घर नहीं लौटना चाहते, उन्हें मुआवजा राशि देकर दूसरी जगह बसाने की व्यवस्था क्यों नहीं की गई? हालात बद से बदतर आखिर क्यों हैं? इन शिविरों में आज भी लगभग नौ सौ से अधिक बच्चे घुटनभरी जिन्दगी जी रहे हैं और 34 बच्चे ठण्ड के आगोश में समा चुके हैं। तीन माह पहले मुजफ्फरनगर में जो करुण क्रंदन हुआ उस पर राजनीतिक दल सियासत तो कर रहे हैं पर पीड़ितों के आंसू पोछने की जहमत उठाने को कोई तैयार नहीं है। किसी पर तोहमत लगाने से पहले प्रदेश सरकार ने यदि स्वविवेक से पीड़ितों की मदद की होती तो शायद सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप न करना पड़ता। देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही प्रदेश सरकार नींद से जागी और उसने अस्थायी अस्पताल बनाने से लेकर दूध, दवा व अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करवाई। उत्तर प्रदेश में कितनी भीषण ठण्ड पड़ती है, यह सभी जानते हैं। हर वर्ष शीतलहर से कितने ही लोगों की मौत हो जाती है। दंगों के कारण अपनी जमीन से बेदखल लोग शिविरों में किन परिस्थितियों में रह रहे हैं, इससे सरकार का अनजान रहना चिन्ता की ही बात है।  ठण्ड के पहले एहतियात बरती गई होती तो मासूम बच्चे ठण्ड में ठिठुर-ठिठुर कर नहीं मरते। प्रदेश सरकार कह रही है कि बच्चे ठण्ड से नहीं बल्कि बीमारी से मरे हैं, पर बच्चे मरे तो हैं। दरअसल इन नौनिहालों का नाम भी दंगों के कारण मृत हुए लोगों की सूची में जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि ये बच्चे संवेदनहीनता की परोक्ष हिंसा का शिकार हुए हैं। आश्चर्य की ही बात है कि तीन दर्जन से अधिक बच्चे मौत के आगोश में समा गये लेकिन किसी राजनीतिक दल ने इसे संज्ञान में नहीं लिया। मुल्क में इस बात को लेकर कोई हंगामा नहीं मचा कि आखिर क्यों मासूमों को साम्प्रदायिक ताकतों और सरकार की अनदेखी का खामियाजा अपनी जान देकर चुकाना पड़ा? जो भी हो, फिलहाल राजनीतिक दलों की निगाहें मुजफ्फरनगर पीड़ितों की तरफ कम आगामी आम चुनाव पर अधिक टिकी हुई हैं। राजनीतिक दल गठबंधन के सम्भावित स्वरूप को लेकर एक-दूसरे से मंत्रणा कर रहे हैं। देखा जाये तो फिलवक्त देश में बहुत कुछ हो रहा है, पर साम्प्रदायिकता का शिकार लोग पुन: सम्मान का जीवन बसर करें, उनके दिलों से दोबारा पीड़ित होने का खौफ खत्म हो, वे अपने रोजगार में फिर से लगें और किसी की दया पर गुजारा न करें, इसके लिए कोई ठोस प्रयास   होते नहीं दिख रहे। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि केन्द्र तथा राज्य सरकार वोटों के ध्रुवीकरण में तो लगी हैं लेकिन फिलवक्त मुजफ्फरनगर के लोई, शामली के मदरसा तैमुल शाह, मलकपुर, बरनवी तथा ईदगाह शिविरों में घुट-घुट कर जी रहे 4783 लोगों के लिए किसी राजनीतिज्ञ के दिल में कोई जगह नहीं है। मुजफ्फरनगर को लेकर ये अल्फाज बरबस याद आते हैं:-
ये कैसी तौहीन-ए-शग्ले मस्ती है,
रहने वालों ये कैसी बस्ती है?
मौत को तो लोग देते हैं कांधा,
जिन्दगी रहम को तरसती है।

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