हर चुनावी महासमर से पहले कमल दल ही नहीं बल्कि मुल्क की आम आवाम के जेहन में रामलला को लेकर उथल-पुथल सी मचने लगती है। भगवान राम सबके हैं यह बात जानते हुए भी भारतीय जनता पार्टी सहित अन्य राजनीतिक दल भी इस मामले पर सियासत करने से बाज नहीं आते। राम नाम जनभावना से जुड़ा मसला है उसे चाहकर भी खारिज नहीं किया जा सकता। जो भाजपा 1986 से 1992 तक रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे का राग अलाप रही थी, वह भी अब सत्ता सुख के लिए राम नाम से परहेज करती दिख रही है। वजह साफ है, जिस देश की 60 फीसदी से अधिक आबादी 40 साल से कम उम्र की हो उसके लिए जाहिरतौर पर रामलला मंदिर से कहीं अधिक शिक्षा मंदिरों की दरकार है। आज मुल्क में बेरोजगारी चरम पर है। ऐसे में युवा वर्ग को नौकरी चाहिए,आगे बढ़ने के मौके चाहिए और एक ऐसा माहौल चाहिए जो मंदिर-मस्जिद की लड़ाई से परे हो।
भाजपा मुल्क के युवाओं का मन भांप चुकी है यही वजह है कि उसके कट्टरपंथियों को छोड़कर अधिकांश लोग राम नाम को अपने एजेण्डे से दूर मानने लगे हैं। भाजपा ने मुल्क में राम नाम की जो आग 1992 में लगाई थी, सत्ता मिलते ही उसे बिसर गई। कमल दल को अपनी वादाखिलाफी की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। राम नाम से छल करने के चलते ही उसका जनाधार अर्श से फर्श पर आ गिरा है। जहां तक राम मंदिर की बात है, इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला आ चुका है। कोर्ट मान चुका है कि राम लला अयोध्या में ही विराजमान हैं और मंदिर के ऊपर मस्जिद बनाई गयी थी। जन्म स्थान की 2.7 एकड़ जमीन निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड और रामलला के बीच एक-एक तिहाई करके बांटी गयी है। निर्मोही अखाड़े के हिस्से राम चबूतरा और सीता रसोई आई है। भीतरी हिस्से पर हिन्दू और मुस्लिम दोनों का हक कोर्ट ने बताया है। इस फैसले को सुन्नी बोर्ड और राम जन्म भूमि न्यास ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है। जाहिर है कि अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में होना है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब आयेगा कहना मुश्किल है पर जन भावना के इस मुद्दे पर कोर्ट के बाहर दोस्ताना फैसले की जो कोशिशें चल रही हैं, उनमें भी कोई हर्ज नहीं है।
भाजपा के राम मंदिर मसले पर बैकफुट होने के अपने निहितार्थ हैं। उसे पता है कि अब लोगों को राम मंदिर के नाम पर मतदान बूथों तक नहीं लाया जा सकता। राम नाम का जादू हिन्दीभाषी राज्यों में तो कारगर हो सकता है लेकिन अन्य राज्यों में तो उसे कमल खिलाने के लिए विकास की ही अलख जगानी होगी। भाजपा को मालूम है कि राम के बिना उसका काम कभी नहीं पूरा हो सकता। पिछले एक दशक में कमल दल की राम नाम की भूल ने ही उसके बढ़ते जनाधार को जबर्दस्त ठेस पहुंचाई है। पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने में महज कुछ घण्टे शेष बचे हैं। मीडिया रिपोर्टें चार राज्यों में कमल खिला रही हैं। ऐसे में देश की सल्तनत के लिए भाजपा को राम मंदिर मुद्दा संघ और संतों पर छोड़ना ही हितकारी दिख रहा है। देखा जाये तो भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और कठोर हिन्दुत्व के पहरुआ नरेन्द्र मोदी भी नहीं चाहते कि मुल्क की आवाम को धोखे में रखा जाये। यही वजह है कि वे इलाहाबाद के कुम्भ तक में नहीं गये क्योंकि वहां संतों की धर्म संसद चल रही थी। इतना ही नहीं उन्होंने अयोध्या की यात्रा से भी परहेज किया। मोदी जहां-जहां जा रहे हैं, उनको सुनने लाखों लोग अपना काम-धाम छोड़कर आ रहे हैं। अब तक मोदी ने जितनी भी सभाएं सम्बोधित की हैं उनमें उन्होंने हिन्दुत्व से परे गुजरात मॉडल के विकास को ही फोकस किया है और लोगों को मोदी का विकास एजेण्डा खूब भा रहा है।
भाजपा को यदि लोकसभा 2014 का महासमर फतह करना है तो उसे हिन्दीभाषी राज्यों में अधिक से अधिक सफलता हासिल करनी होगी। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की बात करें तो फिलहाल कमल दल सपा और बसपा से भी पीछे है। भाजपा आगत लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में 50 से 60 सीटें जीतने का लक्ष्य सामने रखे है, पर सवाल यह उठता है कि वह मुलायम और माया के वोट बैंक में सेंध लगाएगी भी तो कैसे? उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी अमित शाह और विनय कटियार जैसे हिन्दुत्व के पहरुआ यदि राम मंदिर का राग अलाप भी रहे हैं तो उसकी वजह है। दरअसल भाजपा में ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ऊर्जा मिलती है। अटलकाल में जो संघ पर्दे के पीछे अपना खेल खेलता था वही आज सियासत में खुलकर सामने है। भाजपा की आंतरिक मजबूती में संघ के दखल और उसके योगदान को सहजता से नहीं बिसराया जा सकता। यही वजह है कि संघ कुछ समय से भाजपा के अंत:पुर में तेजी से सक्रिय हुआ है। मोदी के उत्थान और आडवाणी के पतन को राजनीतिक वीथिका में लोग किसी भी नजर से देखें पर संघ केलिए यह दोनों ही पुरोधा महत्वपूर्ण हैं। सच तो यह है कि संघ ने अब बाहर से राय देने का अपना चोला उतार दिया है। उसे लगता है कि सत्ता में टिकी कांग्रेस को बेदखल करने का इससे अच्छा मौका अब शायद ही मिले, यही वजह है कि उसने आडवाणी की जगह मोदी को देश की राजगद्दी हासिल करने को आगे किया है। मोदी को आगे करने के बाद भी संघ को आडवाणी की भी जरूरत है। संघ जानता है कि कट्टर हिन्दुत्व के हिमायती यदि नरेन्द्र मोदी को चाहते हैं तो गठबंधन के इस युग में लालकृष्ण आडवाणी भाजपा से इतर दूसरे दलों में सबसे लोकप्रिय हैं। संघ और संत के भरोसे सत्ता वापसी को तैयार भाजपा को पता है कि यदि वह राम लला को याद करती है तो इससे सवर्ण और उदारवादी हिन्दू उससे अलग हो सकते हैं। यह खतरा उत्तर प्रदेश की 80 में से 60 सीटों पर साफ दिखाई देता है। भाजपा की कट्टरता शहरी मध्यम वर्ग को भी बिदका सकती है, जो व्यवस्था बदलने के नाम पर मोदी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देख रहा है। सच्चाई यह है कि रामलला के मसले पर भाजपा नौ दिन चले अढ़ाई कोस की तर्ज पर चल रही है।
भाजपा मुल्क के युवाओं का मन भांप चुकी है यही वजह है कि उसके कट्टरपंथियों को छोड़कर अधिकांश लोग राम नाम को अपने एजेण्डे से दूर मानने लगे हैं। भाजपा ने मुल्क में राम नाम की जो आग 1992 में लगाई थी, सत्ता मिलते ही उसे बिसर गई। कमल दल को अपनी वादाखिलाफी की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। राम नाम से छल करने के चलते ही उसका जनाधार अर्श से फर्श पर आ गिरा है। जहां तक राम मंदिर की बात है, इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला आ चुका है। कोर्ट मान चुका है कि राम लला अयोध्या में ही विराजमान हैं और मंदिर के ऊपर मस्जिद बनाई गयी थी। जन्म स्थान की 2.7 एकड़ जमीन निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड और रामलला के बीच एक-एक तिहाई करके बांटी गयी है। निर्मोही अखाड़े के हिस्से राम चबूतरा और सीता रसोई आई है। भीतरी हिस्से पर हिन्दू और मुस्लिम दोनों का हक कोर्ट ने बताया है। इस फैसले को सुन्नी बोर्ड और राम जन्म भूमि न्यास ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है। जाहिर है कि अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में होना है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब आयेगा कहना मुश्किल है पर जन भावना के इस मुद्दे पर कोर्ट के बाहर दोस्ताना फैसले की जो कोशिशें चल रही हैं, उनमें भी कोई हर्ज नहीं है।
भाजपा के राम मंदिर मसले पर बैकफुट होने के अपने निहितार्थ हैं। उसे पता है कि अब लोगों को राम मंदिर के नाम पर मतदान बूथों तक नहीं लाया जा सकता। राम नाम का जादू हिन्दीभाषी राज्यों में तो कारगर हो सकता है लेकिन अन्य राज्यों में तो उसे कमल खिलाने के लिए विकास की ही अलख जगानी होगी। भाजपा को मालूम है कि राम के बिना उसका काम कभी नहीं पूरा हो सकता। पिछले एक दशक में कमल दल की राम नाम की भूल ने ही उसके बढ़ते जनाधार को जबर्दस्त ठेस पहुंचाई है। पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने में महज कुछ घण्टे शेष बचे हैं। मीडिया रिपोर्टें चार राज्यों में कमल खिला रही हैं। ऐसे में देश की सल्तनत के लिए भाजपा को राम मंदिर मुद्दा संघ और संतों पर छोड़ना ही हितकारी दिख रहा है। देखा जाये तो भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और कठोर हिन्दुत्व के पहरुआ नरेन्द्र मोदी भी नहीं चाहते कि मुल्क की आवाम को धोखे में रखा जाये। यही वजह है कि वे इलाहाबाद के कुम्भ तक में नहीं गये क्योंकि वहां संतों की धर्म संसद चल रही थी। इतना ही नहीं उन्होंने अयोध्या की यात्रा से भी परहेज किया। मोदी जहां-जहां जा रहे हैं, उनको सुनने लाखों लोग अपना काम-धाम छोड़कर आ रहे हैं। अब तक मोदी ने जितनी भी सभाएं सम्बोधित की हैं उनमें उन्होंने हिन्दुत्व से परे गुजरात मॉडल के विकास को ही फोकस किया है और लोगों को मोदी का विकास एजेण्डा खूब भा रहा है।
भाजपा को यदि लोकसभा 2014 का महासमर फतह करना है तो उसे हिन्दीभाषी राज्यों में अधिक से अधिक सफलता हासिल करनी होगी। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की बात करें तो फिलहाल कमल दल सपा और बसपा से भी पीछे है। भाजपा आगत लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में 50 से 60 सीटें जीतने का लक्ष्य सामने रखे है, पर सवाल यह उठता है कि वह मुलायम और माया के वोट बैंक में सेंध लगाएगी भी तो कैसे? उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी अमित शाह और विनय कटियार जैसे हिन्दुत्व के पहरुआ यदि राम मंदिर का राग अलाप भी रहे हैं तो उसकी वजह है। दरअसल भाजपा में ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ऊर्जा मिलती है। अटलकाल में जो संघ पर्दे के पीछे अपना खेल खेलता था वही आज सियासत में खुलकर सामने है। भाजपा की आंतरिक मजबूती में संघ के दखल और उसके योगदान को सहजता से नहीं बिसराया जा सकता। यही वजह है कि संघ कुछ समय से भाजपा के अंत:पुर में तेजी से सक्रिय हुआ है। मोदी के उत्थान और आडवाणी के पतन को राजनीतिक वीथिका में लोग किसी भी नजर से देखें पर संघ केलिए यह दोनों ही पुरोधा महत्वपूर्ण हैं। सच तो यह है कि संघ ने अब बाहर से राय देने का अपना चोला उतार दिया है। उसे लगता है कि सत्ता में टिकी कांग्रेस को बेदखल करने का इससे अच्छा मौका अब शायद ही मिले, यही वजह है कि उसने आडवाणी की जगह मोदी को देश की राजगद्दी हासिल करने को आगे किया है। मोदी को आगे करने के बाद भी संघ को आडवाणी की भी जरूरत है। संघ जानता है कि कट्टर हिन्दुत्व के हिमायती यदि नरेन्द्र मोदी को चाहते हैं तो गठबंधन के इस युग में लालकृष्ण आडवाणी भाजपा से इतर दूसरे दलों में सबसे लोकप्रिय हैं। संघ और संत के भरोसे सत्ता वापसी को तैयार भाजपा को पता है कि यदि वह राम लला को याद करती है तो इससे सवर्ण और उदारवादी हिन्दू उससे अलग हो सकते हैं। यह खतरा उत्तर प्रदेश की 80 में से 60 सीटों पर साफ दिखाई देता है। भाजपा की कट्टरता शहरी मध्यम वर्ग को भी बिदका सकती है, जो व्यवस्था बदलने के नाम पर मोदी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देख रहा है। सच्चाई यह है कि रामलला के मसले पर भाजपा नौ दिन चले अढ़ाई कोस की तर्ज पर चल रही है।
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