अपनी शर्तों, मान्यताओं और सिद्धांतों पर जीने वाली साहित्य साधक
मृत्यु शाश्वत सत्य है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मौत भी होगी लेकिन इंसान का कृतित्व हमेशा जीवंत रहता है। पच्चीस जनवरी, 2019 को जैसे ही दुखद खबर मिली कि कृष्णा सोबती नहीं रहीं, साहित्य जगत शोक में डूब गया। कृष्णा सोबती जितनी अच्छी साहित्यकार थीं, उतना ही शानदार व्यक्तित्व भी। अत्यंत स्वाभिमानी। कृष्णा सोबती ने लगभग सात दशक तक अपने लेखन से भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। खूब लिखा, लेकिन अपनी शर्तों पर। इनका पहला उपन्यास था चन्ना। चन्ना की पूरी पांडुलिपि कम्पोज हो गई तो प्रकाशक ने भाषा में कुछ रद्दोबदल के लिए कहा। वे सहमत नहीं हुईं और पुस्तक की छपाई पर आई पूरी लागत देकर पुस्तक तथा पांडुलिपि वापस ले ली। कृष्णा सोबती जी ने इसी आन को पुरस्कारों और सम्मानों के मामले में भी कायम रखा। के.के. बिरला फाउंडेशन का व्यास सम्मान उनको दिए जाने का निर्णय हुआ, परंतु उसे स्वीकार नहीं किया। इसी प्रकार दिल्ली अकादमी का शलाका सम्मान भी लौटा दिया।
कृष्णा सोबती की अपनी कोई राजनीति नहीं थी, परंतु जब-जब देश की राजनीति में कोई विचलन आया, उन्होंने असहमति में अपनी आवाज बुलंद की। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ गांधी के असहयोग और अहिंसक प्रतिरोध की समर्थक रहीं। उन्होंने आजादी के बाद कांग्रेस के शासनकाल में लगी सेंसरशिप और सिखों के नृशंस संहार का मुखर विरोध किया तो भाजपा सरकार की कुछ नीतियों पर भी अपनी नाराजगी दर्ज की। लेखकों को उनकी सलाह थी, कभी धीमे मत बोलो। ये शब्द ही हैं जो मरने के बाद भी जीवित रहते हैं। हमारी आवाज में ठसक, धमक होनी चाहिए। कृष्णा सोबती जी की कथनी और करनी में कभी कोई फर्क नहीं रहा। साफगोई और खुलापन उनके लेखन में हर तरफ मिलता है।
कृष्णा जी ने 94 वर्षों का लम्बा जीवन अपनी शर्तों, मान्यताओं और सिद्धांतों पर जिया। उनसे कभी कोई समझौता नहीं किया। उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा था, मुझे इस्टैबलिशमेंट या सिस्टम की हां में हां मिलानी नहीं आती। इसलिए मैंने कई बड़े पुरस्कारों को लेने से मना कर दिया। एक दिन मेरे पास फोन आया कि आपको पद्मभूषण देना चाहते हैं। मैंने विनम्रता से मना कर दिया। मेरा मानना है कि हिन्दी बहुत बड़ी भाषा है। इन पुरस्कारों को लेकर अब सोच बदलने की जरूरत है। जब तक किसी हिन्दी के लेखक को पद्म पुरस्कार दिए जाने का नम्बर आता है, वह 70 पार कर चुका होता है। पुरस्कार देना ही है, तो 40 की उम्र में दीजिए। 50 में दीजिए, हद से हद 60 में दे दीजिए। यह क्या कि जब अस्पताल में जाने का समय हो गया, तब आप किसी को पुरस्कार दे रहे हैं? हिन्दी के साथ अब बड़ी भाषा जैसा बर्ताव होना चाहिए। मेरे सामने लेखकों की तीन-चार पीढ़ियां लिख रही हैं। उनकी सोच अलग है। वे आजाद हिन्दुस्तान में पैदा हुए हैं। उनमें जो काबिल हैं, उनको दीजिए सम्मान। कृष्णा सोबती जी का मानना था कि हिन्दी को सम्मान दिलाने की लड़ाई हिन्दी वालों को लड़नी चाहिए।
अपने जीवन में कृष्णा सोबती ने सम्मानपूर्वक दिए गए पुरस्कार ही स्वीकार किए। 1980 में उन्हें जिन्दगीनामा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उसकी वृहत्तर सदस्यता भी स्वीकार की। 2017 में भारतीय साहित्य जगत का प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। इसी वर्ष उनका अंतिम उपन्यास गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान प्रकाशित हुआ। इस आत्मकथात्मक उपन्यास में कृष्णा सोबती जी ने विभाजन की भुक्तभोगी त्रासदी को पूरी शिद्दत से रचनाबद्ध किया है। उपन्यास के सारे पात्र और घटनाएं सच्ची हैं। विभाजन भारतीय उपमहाद्वीप की इतनी विकराल घटना थी कि उस पर गत सात दशकों में अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और पंजाबी सहित अनेक भाषाओं में लिखी गई हैं।
18 फरवरी, 1925 को पश्चिमी पंजाब के गुजरात में जन्मी कृष्णा सोबती इस ऐतिहासिक शहर को शायद ही कभी भुला पाई होंगी। सन् 1585 में मुगल शासक अकबर द्वारा गूजरों के सहयोग से बनवाए गए एक किले के इर्द-गिर्द यह नगर फैलता हुआ एक बड़े जिले का विस्तार पा गया। कालांतर में इन्हीं गूजरों की बसाहट से गुजरात राज्य विकसित हुआ। आज के पाकिस्तान में यदि रावलपिंडी डिवीजन के तहत आने वाला गुजरात जिला विद्यमान है तो भारत का गुजरात भी एक महत्वपूर्ण राज्य है। कृष्णा सोबती के दिलों-दिमाग में विभाजन के 70 वर्षों के बाद भी किस तरह सारी स्मृतियां ताजा हैं उनका एहसास राजकमल द्वारा प्रकाशित उनके अंतिम महत्वपूर्ण उपन्यास (गुजरात पाकिस्तान से लेकर गुजरात हिन्दुस्तान) के कुछ महत्वपूर्ण अंशों से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। जेहन में लगातार कौंधते विभाजन के दंशों से मुक्ति पाने के लिए वे लिखती हैं, हिन्दुस्तान जिन्दाबाद! पाकिस्तान पायंदाबाद। यह आवाजें गुम क्यों नहीं होतीं। शीशा पिघलता रहता है कानों में। आगे की ओर देखो। छोड़ दो सपने का पीछा जो पराए मुल्क में ओझल हो गया है।
94 साल की उम्र में कृष्णा सोबती का चले जाना एक युग के खत्म होने जैसा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि कृष्णा सोबती ने कुछ कविताएं भी लिखी हैं। कुछ ऐसी कविताएं जिनसे उनके सत्ता और सरकारों के प्रति नाराजगी भी झलकती है और उनके भीतर छिपी बेचैनी भी दिखती है। उनके उपन्यास, उनकी कहानियां और संस्मरण खूब चर्चा में रहे हैं। सियासतदानों और सत्तानशीनों से उनकी हमेशा से सख्त नाराजगी रही। अपने देश के हालात उन्हें हमेशा परेशान करते। हिन्दू-मुस्लिम के बीच दरार पैदा करने की कोशिशें, देश को बांटने की सियासी साजिश और वोटबैंक की राजनीति में इंसानों को बांटने की हरकतें ये सब कृष्णा सोबती को दिल से तकलीफ देती रहीं। वो अक्सर कहती थीं क्या वजह है कि एक संविधान के होते हुए भी, हमने इसे अपनाया नहीं, इससे सीखा नहीं। यह हमारे लिए बहुत खतरनाक चीज है। इतनी मशक्कत के बाद तो आपने एक संविधान बनाया है तो कम से कम इसे मानिए तो सही।
हिन्दी और उर्दू के साथ ही तमाम भाषाओं और संस्कृतियों की खूबियों का जिक्र वे हमेशा करती थीं। जब भी आप उनसे इस बारे में चर्चा करें तो वह हिन्दुस्तान की तमाम संस्कृतियों और भाषाओं की बहुलता और विविधता के बारे में डूब कर बताती थीं। लेकिन उन्हें इस बात की तकलीफ रही कि अपने देश में सियासत अपनी इसी खूबी को दांव पर लगाकर खेली जाती है जो बेहद खतरनाक है।
वह कहती थीं- हर चीज को पॉलिटिकली देखना और इंसानी चीज को अलग करके उसके लिए दबाव डालना मुनासिब नहीं है। हर भाषा की अपनी एक संस्कृति है। हिन्दुस्तान ही ऐसा है जहां इतना कल्चर है। बंगाल अलग है, तमिल अलग है, तेलुगू अलग है। एक हिन्दुस्तानी होने के नाते हमारे अंदर ये जिज्ञासा होनी चाहिए कि आखिर वह भाषा और संस्कृति कैसी है। कृष्णा सोबती का गुजर जाना साहित्य, अपने देश के लिए एक पूरे दौर और इतिहास के गुजर जाने जैसा है। कृष्णा सोबती अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वह अपने रचना संसार में कई पीढ़ियों तक जीवित रहेंगी। 1950 में अपनी पहली कहानी लामा से शुरू करके उन्होंने सात दशक तक निरंतर विपुल लेखन किया है। उनमें उल्लेखनीय हैं- डार से बिछुड़ी, मित्रों मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, बादलों के घेरे, सूरजमुखी अंधेरे के, जिन्दगीनामा, ऐ लड़की, दिलों दानिश, हम हशमत, समय सरगम, शब्दों के आलोक में, जैनी मेहरबान सिंह, सोबती-वैद संवाद और लद्दाख: बुद्ध का कमंडल।
मृत्यु शाश्वत सत्य है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मौत भी होगी लेकिन इंसान का कृतित्व हमेशा जीवंत रहता है। पच्चीस जनवरी, 2019 को जैसे ही दुखद खबर मिली कि कृष्णा सोबती नहीं रहीं, साहित्य जगत शोक में डूब गया। कृष्णा सोबती जितनी अच्छी साहित्यकार थीं, उतना ही शानदार व्यक्तित्व भी। अत्यंत स्वाभिमानी। कृष्णा सोबती ने लगभग सात दशक तक अपने लेखन से भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। खूब लिखा, लेकिन अपनी शर्तों पर। इनका पहला उपन्यास था चन्ना। चन्ना की पूरी पांडुलिपि कम्पोज हो गई तो प्रकाशक ने भाषा में कुछ रद्दोबदल के लिए कहा। वे सहमत नहीं हुईं और पुस्तक की छपाई पर आई पूरी लागत देकर पुस्तक तथा पांडुलिपि वापस ले ली। कृष्णा सोबती जी ने इसी आन को पुरस्कारों और सम्मानों के मामले में भी कायम रखा। के.के. बिरला फाउंडेशन का व्यास सम्मान उनको दिए जाने का निर्णय हुआ, परंतु उसे स्वीकार नहीं किया। इसी प्रकार दिल्ली अकादमी का शलाका सम्मान भी लौटा दिया।
कृष्णा सोबती की अपनी कोई राजनीति नहीं थी, परंतु जब-जब देश की राजनीति में कोई विचलन आया, उन्होंने असहमति में अपनी आवाज बुलंद की। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ गांधी के असहयोग और अहिंसक प्रतिरोध की समर्थक रहीं। उन्होंने आजादी के बाद कांग्रेस के शासनकाल में लगी सेंसरशिप और सिखों के नृशंस संहार का मुखर विरोध किया तो भाजपा सरकार की कुछ नीतियों पर भी अपनी नाराजगी दर्ज की। लेखकों को उनकी सलाह थी, कभी धीमे मत बोलो। ये शब्द ही हैं जो मरने के बाद भी जीवित रहते हैं। हमारी आवाज में ठसक, धमक होनी चाहिए। कृष्णा सोबती जी की कथनी और करनी में कभी कोई फर्क नहीं रहा। साफगोई और खुलापन उनके लेखन में हर तरफ मिलता है।
कृष्णा जी ने 94 वर्षों का लम्बा जीवन अपनी शर्तों, मान्यताओं और सिद्धांतों पर जिया। उनसे कभी कोई समझौता नहीं किया। उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा था, मुझे इस्टैबलिशमेंट या सिस्टम की हां में हां मिलानी नहीं आती। इसलिए मैंने कई बड़े पुरस्कारों को लेने से मना कर दिया। एक दिन मेरे पास फोन आया कि आपको पद्मभूषण देना चाहते हैं। मैंने विनम्रता से मना कर दिया। मेरा मानना है कि हिन्दी बहुत बड़ी भाषा है। इन पुरस्कारों को लेकर अब सोच बदलने की जरूरत है। जब तक किसी हिन्दी के लेखक को पद्म पुरस्कार दिए जाने का नम्बर आता है, वह 70 पार कर चुका होता है। पुरस्कार देना ही है, तो 40 की उम्र में दीजिए। 50 में दीजिए, हद से हद 60 में दे दीजिए। यह क्या कि जब अस्पताल में जाने का समय हो गया, तब आप किसी को पुरस्कार दे रहे हैं? हिन्दी के साथ अब बड़ी भाषा जैसा बर्ताव होना चाहिए। मेरे सामने लेखकों की तीन-चार पीढ़ियां लिख रही हैं। उनकी सोच अलग है। वे आजाद हिन्दुस्तान में पैदा हुए हैं। उनमें जो काबिल हैं, उनको दीजिए सम्मान। कृष्णा सोबती जी का मानना था कि हिन्दी को सम्मान दिलाने की लड़ाई हिन्दी वालों को लड़नी चाहिए।
अपने जीवन में कृष्णा सोबती ने सम्मानपूर्वक दिए गए पुरस्कार ही स्वीकार किए। 1980 में उन्हें जिन्दगीनामा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उसकी वृहत्तर सदस्यता भी स्वीकार की। 2017 में भारतीय साहित्य जगत का प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। इसी वर्ष उनका अंतिम उपन्यास गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान प्रकाशित हुआ। इस आत्मकथात्मक उपन्यास में कृष्णा सोबती जी ने विभाजन की भुक्तभोगी त्रासदी को पूरी शिद्दत से रचनाबद्ध किया है। उपन्यास के सारे पात्र और घटनाएं सच्ची हैं। विभाजन भारतीय उपमहाद्वीप की इतनी विकराल घटना थी कि उस पर गत सात दशकों में अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और पंजाबी सहित अनेक भाषाओं में लिखी गई हैं।
18 फरवरी, 1925 को पश्चिमी पंजाब के गुजरात में जन्मी कृष्णा सोबती इस ऐतिहासिक शहर को शायद ही कभी भुला पाई होंगी। सन् 1585 में मुगल शासक अकबर द्वारा गूजरों के सहयोग से बनवाए गए एक किले के इर्द-गिर्द यह नगर फैलता हुआ एक बड़े जिले का विस्तार पा गया। कालांतर में इन्हीं गूजरों की बसाहट से गुजरात राज्य विकसित हुआ। आज के पाकिस्तान में यदि रावलपिंडी डिवीजन के तहत आने वाला गुजरात जिला विद्यमान है तो भारत का गुजरात भी एक महत्वपूर्ण राज्य है। कृष्णा सोबती के दिलों-दिमाग में विभाजन के 70 वर्षों के बाद भी किस तरह सारी स्मृतियां ताजा हैं उनका एहसास राजकमल द्वारा प्रकाशित उनके अंतिम महत्वपूर्ण उपन्यास (गुजरात पाकिस्तान से लेकर गुजरात हिन्दुस्तान) के कुछ महत्वपूर्ण अंशों से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। जेहन में लगातार कौंधते विभाजन के दंशों से मुक्ति पाने के लिए वे लिखती हैं, हिन्दुस्तान जिन्दाबाद! पाकिस्तान पायंदाबाद। यह आवाजें गुम क्यों नहीं होतीं। शीशा पिघलता रहता है कानों में। आगे की ओर देखो। छोड़ दो सपने का पीछा जो पराए मुल्क में ओझल हो गया है।
94 साल की उम्र में कृष्णा सोबती का चले जाना एक युग के खत्म होने जैसा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि कृष्णा सोबती ने कुछ कविताएं भी लिखी हैं। कुछ ऐसी कविताएं जिनसे उनके सत्ता और सरकारों के प्रति नाराजगी भी झलकती है और उनके भीतर छिपी बेचैनी भी दिखती है। उनके उपन्यास, उनकी कहानियां और संस्मरण खूब चर्चा में रहे हैं। सियासतदानों और सत्तानशीनों से उनकी हमेशा से सख्त नाराजगी रही। अपने देश के हालात उन्हें हमेशा परेशान करते। हिन्दू-मुस्लिम के बीच दरार पैदा करने की कोशिशें, देश को बांटने की सियासी साजिश और वोटबैंक की राजनीति में इंसानों को बांटने की हरकतें ये सब कृष्णा सोबती को दिल से तकलीफ देती रहीं। वो अक्सर कहती थीं क्या वजह है कि एक संविधान के होते हुए भी, हमने इसे अपनाया नहीं, इससे सीखा नहीं। यह हमारे लिए बहुत खतरनाक चीज है। इतनी मशक्कत के बाद तो आपने एक संविधान बनाया है तो कम से कम इसे मानिए तो सही।
हिन्दी और उर्दू के साथ ही तमाम भाषाओं और संस्कृतियों की खूबियों का जिक्र वे हमेशा करती थीं। जब भी आप उनसे इस बारे में चर्चा करें तो वह हिन्दुस्तान की तमाम संस्कृतियों और भाषाओं की बहुलता और विविधता के बारे में डूब कर बताती थीं। लेकिन उन्हें इस बात की तकलीफ रही कि अपने देश में सियासत अपनी इसी खूबी को दांव पर लगाकर खेली जाती है जो बेहद खतरनाक है।
वह कहती थीं- हर चीज को पॉलिटिकली देखना और इंसानी चीज को अलग करके उसके लिए दबाव डालना मुनासिब नहीं है। हर भाषा की अपनी एक संस्कृति है। हिन्दुस्तान ही ऐसा है जहां इतना कल्चर है। बंगाल अलग है, तमिल अलग है, तेलुगू अलग है। एक हिन्दुस्तानी होने के नाते हमारे अंदर ये जिज्ञासा होनी चाहिए कि आखिर वह भाषा और संस्कृति कैसी है। कृष्णा सोबती का गुजर जाना साहित्य, अपने देश के लिए एक पूरे दौर और इतिहास के गुजर जाने जैसा है। कृष्णा सोबती अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वह अपने रचना संसार में कई पीढ़ियों तक जीवित रहेंगी। 1950 में अपनी पहली कहानी लामा से शुरू करके उन्होंने सात दशक तक निरंतर विपुल लेखन किया है। उनमें उल्लेखनीय हैं- डार से बिछुड़ी, मित्रों मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, बादलों के घेरे, सूरजमुखी अंधेरे के, जिन्दगीनामा, ऐ लड़की, दिलों दानिश, हम हशमत, समय सरगम, शब्दों के आलोक में, जैनी मेहरबान सिंह, सोबती-वैद संवाद और लद्दाख: बुद्ध का कमंडल।
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