नरक से नोबेल तक का मर्मांतक सफर
संघर्ष और सहनशक्ति के मामले में महिलाएं पुरुषों से कहीं आगे होती हैं। वात्सल्य की प्रतिमूर्ति महिलाएं किसी भी चुनौती को न केवल हंसकर सहने की क्षमता रखती हैं बल्कि समय की शिला पर नए प्रतिमान स्थापित करने का हुनर और कौशल भी उनमें होता है। छह भाईयों व माता-पिता का कत्ल करके इंसानी भेड़ियों की यौन दासी बनने का दुख कितना भयावह होता है, इसे नादिया मुराद के अलावा कौन महसूस कर सकता है। रात-दिन खूंखार आईएस लड़ाकों द्वारा महीनों लगातार नोचे जाने, बार-बार मालिक के बदलने, कोड़े खाने के बावजूद नादिया ने साक्षात नरक से निकलने का सपना नहीं छोड़ा। आधा दर्जन बार भागी, फिर जिस्म के शिकारियों के आगे फेंक दी गईं, मगर मुक्ति की छटपटाहट इतनी प्रबल थी कि वह एक भले परिवार की मदद से मोसूल से निकलकर तुर्किस्तान की सीमा तक जा पहुंचीं। बिना नागरिकता प्रमाणों के खुद को साबित करना कितना मुश्किल होता है, यह नादिया ही जानती हैं। फिर इराक से जर्मनी पहुंचकर उन्होंने सारी दुनिया को आईएस के अमानवीय अत्याचारों के बारे में बताया। नादिया ने बताया कि उस जैसी हजारों महिलाएं और बच्चियां आज भी आईएस लड़ाकुओं की यौन गुलाम बनी हुई हैं तथा हर दिन एक नई मौत मरती हैं।
यौन हिंसा को युद्ध का हथियार बनाने के खिलाफ मुहिम चला चलाने वाले कांगो गणराज्य के डेनिस मुकवेगे को जहां पिछले साल बलात्कार पीड़िताओं की मदद के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिला वहीं नादिया मुराद को उस असाधारण साहस के लिए यह सम्मान मिला, जो उन्होंने बलात्कार के खिलाफ जागरूकता फैलाने के लिए दिखाया। नादिया मुराद को वर्ष 2014 में इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों ने अगवा कर लिया था और उन्हें बंधक बनाकर महीनों तक यौन हिंसा का शिकार बनाया। उसने न केवल पूरी दुनिया को अपनी आपबीती सुनाई बल्कि अन्य बंधकों को मुक्त कराने की मुहिम भी चलाई।
दरअसल, दुनिया के सबसे पुराने मजहबों में से एक यजीदी समुदाय हमेशा से सुन्नी लड़ाकों के निशाने पर रहा है। इस अल्पसंख्यक समुदाय को नेस्तनाबूद करने के लिए हजारों यजीदियों को गोलियों से भूनने के साथ लड़कियों और महिलाओं को यौन गुलाम बना दिया गया। उन्हें इस्लाम कबूलने के लिए आतंकित किया गया और फिर मारकर सामूहिक कब्रों में दफन कर दिया गया। इराक के शिंजा पर्वत के पास बसे कोचू गांव में सत्रह सौ लोगों के समूह में नादिया ने आंखें खोलीं। तीन अगस्त, 2014 को इनके गांव को आईएस लड़ाकों ने चारों तरफ से घेर लिया। हथियार, सम्पत्ति-जेवर आदि लूटकर एक दो मंजिला इमारत में सबको बंधक बना लिया गया। तीन हजार लोगों की हत्या और पांच हजार महिलाओं-बच्चियों को बंधक बनाने की खबर ने गांव का मनोबल तोड़ दिया। स्कूल की एक मंजिल में महिलाओं व बच्चियों को तथा दूसरी में पुरुषों व लड़कों को रखा गया। जिसने इस्लाम दबाव में कबूला, उसे भी इस धारणा के तहत मारा गया कि हर यजीदी को इस्लाम कबूल करके मर जाना चाहिए। सभी मर्दों को गोली मार दी गई। उन महिलाओं को भी जो शादी लायक नहीं थीं। इस मर्मांतक पीड़ा का वर्णन नादिया ने द लास्ट गर्ल: माई स्टोरी ऑफ कैप्टिविटी एण्ड माई फाइट अगेंस्ट द इस्लामिक स्टेट पुस्तक में किया है।
यजीदियों के साथ हुए अत्याचार दिल दहला देने वाले हैं। साक्षात नरक भोगने वाली नादिया बताती हैं कि सेक्स स्लेव की जिंदगी से मुक्ति की छटपटाहट में उन्होंने छह बार भागने का प्रयास किया। लेकिन उन लोगों ने फिर आईएस लड़ाकों को सौंप दिया। फिर अत्याचारों का सिलसिला और भयानक हो गया। मोसूल से भागने का सातवां प्रयास कामयाब रहा और वह किसी तरह जुल्मो-सितम से निकलकर शरणार्थी शिविर तक जा पहुंचीं। जर्मनी पहुंचकर नादिया ने सारी दुनिया को यजीदी समाज, खासकर उनकी महिलाओं के साथ हुए अमानवीय अत्याचारों के बारे में बताया। नादिया ने संयुक्त राष्ट्र के कई कार्यक्रमों में अपनी दर्दनाक दास्तान बयां कीं। हालांकि नादिया का मानना था कि हर बार उन घटनाओं का जिक्र मुझे उसी भयावह माहौल की याद ताजा करा देता है, मगर मैं यजीदी समाज की टीस को दुनिया को बताना चाहती हूं कि कैसे यौन हिंसा को युद्ध के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। उस अकल्पनीय खौफ को बयां करने का मकसद अभी भी कब्जे में फंसी हजारों महिलाओं को मुक्त कराना है।
हर क्षण को यातनादायक व धीमी मौत को करीब से महसूस करने वाली नादिया आज यजीदी समुदाय की बुलंद आवाज बन गई हैं। हालांकि, इन यातनाओं से गुजर कर इसे एक स्त्री के रूप में बार-बार बयां करना भी खासा मुश्किल था, लेकिन वह एक भयावह सच्चाई से दुनिया को रूबरू कराना चाहती हैं। वह बताना चाहती हैं कि शांतिप्रिय कौम को कैसे नेस्तनाबूद करने की कोशिश हुई। आज नादिया ने अपने साथ हुए अमानवीय अत्याचारों को अपनी ताकत बना लिया है। उसने पूरी दुनिया के सामने आईएस के शर्मनाक कारनामों का खुलासा किया है। उसे विश्वास है कि एक न एक दिन यजीदी समाज की काली रात का अंत जरूर होगा। तब एक नई सुबह उनके खोये मनोबल को लौटाएगी। नादिया को इसी असाधारण साहस के लिए शांति के सर्वोच्च नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया, जिसकी वह वाकई हकदार भी थीं। नादिया मुराद के संघर्ष और जज्बे को सलाम।
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