रियो ओलम्पिक में
धाक जमाने से पहले ही भारतीय पहलवान नरसिंह यादव और अब गोलाफेंक एथलीट इंद्रजीत
सिंह पर डोपिंग का डंक लग जाने की खबर ने पदक की उम्मीद लगाए करोड़ों खेलप्रेमियों
को गहरा धक्का पहुंचाया है। इससे न केवल खिलाड़ियों का मनोबल टूटेगा बल्कि मुकाबले
से पहले ही देश बार-बार शर्मसार होगा। आज ही नरसिंह यादव के मामले की सुनवाई के
बाद पता चल जाएगा कि वह रियो जाएंगे या नहीं। खैर, इन दोनों शर्मनाक घटनाओं ने एक बार फिर भारत
में बढ़ती डोपिंग की प्रवृत्ति पर सोचने को मजबूर कर दिया है। जब भी अंतरराष्ट्रीय
खेल प्रतिस्पर्धाएं शुरू होती हैं, कुछ न कुछ खिलाड़ी डोपिंग के फंदे में फंसे पाए जाते हैं। एशियाई खेल हों या
फिर ओलम्पिक, तमाम देशों के
होनहार खिलाड़ियों को इस कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है और हर बार कुछ खिलाड़ी
डोपिंग परीक्षण पास न कर पाने के कारण खेलों में हिस्सा लेने से रह जाते हैं।
दरअसल, दुनिया भर में
डोपिंग को लेकर एक आचार संहिता बनी हुई है, जिसका सभी देशों को पालन करना पड़ता है। इसमें
कई ऐसी दवाएं लेने पर प्रतिबंध है, जिनसे खिलाड़ी का रक्तसंचार तेज हो जाता है, वह कुछ अधिक ताकत महसूस करने लगता है और उसकी
खेलने की क्षमता बढ़ जाती है।
अक्सर देखा जाता
है कि जिन खिलाड़ियों को अपनी प्रदर्शन क्षमता पर कुछ संदेह होता है, वे ऐसी शक्तिवर्द्धक दवाएं चुपके से ले लेते
हैं। कई बार उनके प्रशिक्षक भी उन्हें ऐसी दवाएं लेने को कहते हैं। फिर जब डोपिंग
जांच में मामला सामने आता है तो वे तरह-तरह की दलीलों के जरिए बचने का प्रयास करते
हैं कि जुकाम-खांसी-बुखार वगैरह के चलते उन्हें ऐसी दवाएं लेनी पड़ीं। रूस में
खिलाड़ियों के शक्तिवर्द्धक दवाएं लेने पर प्रतिबंध नहीं है। इसलिए ओलम्पिक महासंघ
ने वहां के खिलाड़ियों पर प्रतिबंध लगा रखा है। भारत की राष्ट्रीय डोपिंग निरोधक
एजेंसी यानी नाडा इस मामले में काफी सजग और सख्त है। नरसिंह यादव और इंद्रजीत सिंह
के खून में अगर ऐसा तत्व मिला है जो डोपिंग निरोधक नियमों के तहत प्रतिबंधित है,
तो वह उन्हें ओलम्पिक में
हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है।
ओलम्पिक में
हिस्सेदारी के लिए नरसिंह यादव का चुनाव शुरू से विवादों में घिरा रहा। 74 किलोग्राम भार वर्ग में दोहरा ओलम्पिक पदक
जीतने वाले सुशील कुमार की जगह जब उन्हें भेजने का फैसला किया गया तो सुशील कुमार
ने कड़ी आपत्ति दर्ज की। यहां तक कि उन्होंने अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। अब वही
नरसिंह यादव अगर ओलम्पिक में पदक हासिल करने के लिए शक्तिवर्द्धक दवाएं लेते पाए
गए हैं तो उन लोगों को एक बार फिर उंगली उठाने का मौका मिल गया है जो सुशील कुमार
के समर्थन में थे। जिस तरह नरसिंह यादव के चयन को लेकर देशभर में माहौल बना उससे
निसंदेह उन पर पदक लाने का मानसिक दबाव रहा होगा। क्या पता इससे उनका आत्मविश्वास
कुछ डिगा हो। उनके प्रशिक्षक की प्रतिष्ठा भी दांव पर होगी। इसलिए दवाओं के जरिए
यादव ने अपनी क्षमता बढ़ाने की कोशिश की हो। अगर ऐसा है तो यह नहीं भूलना चाहिए कि
ओलम्पिक खेलों के दौरान अगर परीक्षण में बाहर हो गए तो न सिर्फ उनकी बल्कि पूरे
देश की किरकिरी होगी। आखिर कृत्रिम ताकत के सहारे पदक जीत लेना उनका कौन सा कौशल
माना जाएगा। खेल प्रशिक्षकों को भी सोचना चाहिए कि धोखे से किसी खिलाड़ी को पदक की
प्रतिस्पर्धा में शामिल कराने से बेहतर है कि उसकी वास्तविक क्षमता को पहचाना और
विकसित किया जाए।
देखा जाए तो भारत
में नाडा की सक्रियता जनवरी 2009 से प्रभावी हुई। सात साल में ही डोप परीक्षण में सात सौ से अधिक खिलाड़ी
डोपिंग रोधी नियमों के उल्लंघन के दोषी पाए गए हैं। डोपिंग रोधी अनुशासन पैनल ने
सैकड़ों खिलाड़ियों को सजा भी सुनाई है। डोपिंग के दोषियों की सूची में एथलीट सबसे
ऊपर हैं। नाडा सात साल में 2000 से अधिक खिलाड़ियों के डोप परीक्षण कर चुकी है। डोपिंग से मुल्क को शर्मसार
करने वाले खिलाड़ियों में एथलीट, भारोत्तोलक सबसे ऊपर हैं। कहा तो यहां तक जाता रहा है कि जब से भारत में रूसी
प्रशिक्षकों का आना हुआ तभी से देश में यह कृत्य बढ़ा। एथलेटिक्स और भारोत्तोलन के
अलावा डोपिंग के दोषियों की सूची में कबड्डी, बाडीबिल्डिंग, पावर लिफ्टिंग, कुश्ती, मुक्केबाजी और जूडो के खिलाड़ी शामिल हैं।
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