Tuesday, 26 July 2016

मैं और आपका खेलपथ

आपके स्नेह से मिला सम्बल हर पल-हर क्षण खेलों के लिए कुछ करने को अभिप्रेरित करता है। खेलों से जुड़ाव की जहां तक बात है, बचपन से पचपन तक किसी न किसी रूप में मैदानों से जुड़ा रहा हूं। रायबरेली जिले के कोड़रा गांव के ऊबड़-खाबड़ 52 बीघे के मैदान में ही सुबह-शाम होती थी। खेलों के इस जुनून को लोगों की शाबासी मिलने की बजाय उपहास का दंश झेलना पड़ता था, बावजूद मैं अपनी धुन में लगा रहा। स्कूल-कालेज स्तर पर एथलेटिक्स की कई विधाओं में मिली अनापेक्षित सफलता तो गंवारू क्रिकेट में हरफनमौला खिलाड़ी के रूप में जवारि के लोग जानते थे। खैर, कानपुर के प्रतिष्ठित पीपीएन कालेज से हिन्दी में मास्टर डिग्री और बनारस के काशी विद्यापीठ से बीपीएड करने के बाद तत्काल एक शासकीय विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्ति हुई। एक साल के अध्यापन के बाद मन नहीं लगा। देश में खेलों की दुर्दशा पर श्रीप्रकाश किस तरह प्रकाश डाले इस बात को लेकर मन उलझन में रहने लगा।
आखिर शिक्षक की नौकरी छोड़ भोपाल चला गया। वर्ष 1987 में मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में नवभारत समाचार पत्र सबसे लोकप्रिय था। मैंने वहां नौकरी का मन बना लिया। एक रात अपने मामा रमेश चंद्र दीक्षित, जोकि नवभारत पत्र समूह के ही अंग्रेजी समाचार पत्र क्रानिकल में थे, उनसे पत्रकारिता करने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने समझाया कि पप्पू पत्रकारिता में कुछ नहीं है, मास्टरी करते रहो। मैं नहीं माना और उन्होंने कोल्हटकर जी से बात की, पत्रकार की जगह तो वहां नहीं थी लेकिन एक प्रूफरीडर का पद जरूर रिक्त था। मुझे नवभारत में प्रवेश मिले, इसके लिए मैंने यह पद स्वीकार लिया।
बहुरंगी परिशिष्टों का प्रकाशन तब नहीं था लेकिन नवभारत ने पहल की। रविवारीय के साथ बुधवारीय प्रकाशित होने लगा। प्रूफरीडिंग के साथ मेरी फीचर पेजों में दिलचस्पी बढ़ी। मैंने लेखन की शुरुआत फिल्मों से की। राम तेरी गंगा मैली में फिल्माए दृश्य पर जब सारे देश में हंगामा बरप रहा था, उसी समय फिल्म तो महज एक दृश्य है, पर मेरा आलेख प्रकाशित हुआ। इस आलेख में समाज पर चोट करती मेरी कलम को न केवल सराहा गया बल्कि एक हजार से अधिक पत्र भी आए। इससे मेरा मनोबल ही नहीं खेलों पर लिखने की ललक भी बढ़ गई। उसके बाद खेलों पर चली कलम आज तक चल रही है। इसका श्रेय मैं अपने हृदय गुरु, पद्मश्री सप्रे संग्रहालय के संचालक आदरणीय विजय दत्त श्रीधर को दूंगा। श्रीधर जी ने मेरी लेखनी को धार दी। वह मुझे अपना शिष्य मानते भी हैं या नहीं, कह नहीं सकता लेकिन पत्रकारिता में मैं उन्हीं को अपना गुरु मानता हूं।
प्रूफरीडर के रूप में मुझे देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकारों के लिखे पर सुधार की छूट थी तो उनसे बहुत कुछ सीखने के मंत्र भी मिले। मेरा किसी लेख को 10 प्रकार से लिखना, वरिष्ठजनों से मिली अमूल्य धरोहर है। नवभारत की रविवारीय का एक पेज खेलों के लिए था। श्रीधर जी के सान्निध्य में नवभारत का हर रविवार मेरे नाम रहने लगा। खेलों पर जो लिखूं वह देश के अन्य राज्यों में भी पढ़ा जाए इसके लिए मैंने अन्य समाचार पत्रों राजस्थान पत्रिका, नई दुनिया, भास्कर, जनसत्ता, क्रिकेट सम्राट सहित अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में अंशुल शुक्ला, एसपी शुक्ला नामों से हजारों आलेख प्रकाशित हुए। तब पारिश्रमिक तो कम था लेकिन मिलता जरूर था। दूरदर्शन और आकाशवाणी पर भी समय-समय पर बुलाया जाता है। 1995 में ग्वालियर से नवभारत के नए संस्करण के प्रकाशन के साथ ही मैं ग्वालियर का हो गया। पद आए-गए लेकिन मैं लिखता रहा। सिर्फ खेल ही नहीं अन्य विषयों पर भी लेखनी खूब चली। इस यात्रा में कई अच्छे साथी मिले जो कहीं भी रहें खूब याद आते हैं।

दरअसल, खेलों में कुछ विशेष करने की कुचेष्टा ही वर्ष 2009 में खेलपथ के प्रकाशन का कारण बनी। खेलों का समाचार पत्र निकालने से पहले जो बातें आसान लग रही थीं, वे काफी दुरूह साबित हुईं। खेलपथ के प्रथमांक प्रकाशन के ही दिन पितृ-विछोह ने अंदर से तोड़ दिया था। खैर, धर्मपत्नी जी ने हिम्मत दी कि खेलपथ का प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए। समय के साथ समझौता करना नहीं बल्कि चलना सीखो। सच कहें खेलपथ अब चल नहीं लोगों के बीच अपनी पहचान स्थापित कर रहा है। देश के लगभग पांच सैकड़ा अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के साथ-साथ एक लाख से अधिक खेलप्रेमियों द्वारा (खेलपथडाटकाम) पढ़ा और सराहा भी जा रहा है। खेलपथ का बहुरंगी रियो ओलम्पिक विशेषांक शीघ्र ही आपके हाथ होगा। सोशल मीडिया के इस दौर में खेलपथ को निरंतर मिल रही लोकप्रियता के लिए मैं खिलाड़ियों, खेलप्रेमियों और मित्रों का आभार मानता हूं।          

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