Wednesday 20 July 2016

लंदन का प्रदर्शन दोहराने की चुनौती



 श्रीप्रकाश शुक्ला
ब्राजील का रियो-डी-जेनेरियो शहर दुनिया के 206 देशों के लगभग 10 हजार से अधिक खिलाड़ियों के पौरुष का इम्तिहान लेने को तैयार है। इन खेलों के दौरान जहां फर्राटा किंग उसेन बोल्ट से लेकर तरणताल के जादूगर माइकल फेल्प्स तक कई दिग्गज शानदार और जानदार प्रदर्शन कर ओलम्पिक खेलों को अलविदा कहना चाहेंगे वहीं भारत के सामने लंदन का प्रदर्शन दोहराने की दुर्लभ चुनौती होगी। पांच से 21 अगस्त तक होने वाले 31वें ओलम्पिक खेलों के महासमर की रणभेरी बज चुकी है। हर मुल्क वर्षों की तैयारी के बाद अधिक से अधिक पदक जीत लेने के इरादे से ही ओलम्पिक खेलों में उतरा है। भारत के भी 122 सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी विभिन्न स्पर्धाओं में लंदन के प्रदर्शन को पीछे छोड़ देने की तैयारी के साथ ब्राजील पहुंचे हैं। सवा अरब की आबादी वाले भारत के करोड़ों खेलप्रेमियों का दिल भी चाहता कि उसका हर खिलाड़ी गले में पदक लटकाकर ही मादरेवतन वापस लौटे। आना भी चाहिए आखिर यह मुल्क की अस्मिता का सवाल जो है।
खेलों में जहां रिकार्ड बनते और टूटते हैं वहीं कभी-कभी खराब प्रदर्शन पर खेलप्रेमियों के दिल भी टूट जाते हैं। भारत ने हाकी को छोड़कर ओलम्पिक खेलों के महासमर में कभी कोई ऐसा अजूबा नहीं किया जिसे साल दर साल याद किया गया हो। आज लंदन में जीते छह पदक लोगों के जेहन में जरूर हैं। उन्हीं छह पदकों की उम्मीदों का एक बड़ा बोझ हमारे सूरमा खिलाड़ियों पर भी है। हर ओलम्पिक से पहले हम अपने खिलाड़ियों से अपार अपेक्षाएं करते हैं लेकिन वह कभी पूरी होती नहीं दिखीं। लंदन से भारतीय खेलों के एक नए युग का आगाज हुआ। तब हमारे 81 खिलाड़ियों ने 13 स्पर्धाओं में न केवल पदकों की जोर-आजमाइश की थी बल्कि सर्वाधिक छह पदकों के साथ वतन लौटे थे। इस बार भारतीय खेलनहारों और कुछ एजेंसियों के आकलन जहां भारत को 10 से अधिक पदक जीतता बता रहे हैं वहीं मेरी नजर में भारतीय खिलाड़ी लंदन के प्रदर्शन को भी दोहारा दें तो बड़ी बात होगी। इस बार भारतीय खिलाड़ियों की संख्या बेशक अधिक है लेकिन ब्राजील पहुंचे 70 खिलाड़ी तो हाकी (पुरुष-महिला) और एथलेटिक्स से ही हैं, जहां भारत का एक भी पदक की उम्मीद करना बेमानी सा लगता है। दरअसल हमारी सारी उम्मीदें उन 52 खिलाड़ियों और उन खेलों पर ही टिकी हैं जिन्होंने लंदन में मुल्क का मान बढ़ाया था।
देखा जाए तो भारत में खेलों को लेकर हमेशा विधवा विलाप ही हुआ है। खेल अभी भी हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं लिहाजा हमेशा ऊहापोह की स्थिति बनी रहती है। दरअसल, खेलों में बदलाव की शक्ति होती है, प्रेरणा देने की शक्ति होती है, लोगों को जोड़ने की शक्ति होती है। खेल हर उस सिक्के की तरह है जिसके दो पहलू होते हैं। अफसोस जहां आज दुनिया ऊपर चढ़ने के लिए स्वचालित सीढ़ियों का सहारा ले रही है वहीं हम आज भी सीढ़ियों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। साल 1996 से 2004 तक के ओलम्पिक की बात करें तो एक समय हमारे पास सिर्फ एक पदक था। उसके बाद ये बढ़कर तीन हुए और अब ये दोगुना होकर छह तक जा पहुंचे हैं लेकिन यदि इस प्रदर्शन को सवा अरब की जनसंख्या को ध्यान में रखकर सोचें तो लंदन में जीते छह पदकों को भी नगण्य ही कहा जाएगा। इसका मतलब तो यही हुआ कि भारत में हर बीस करोड़ की आबादी में सिर्फ एक ही पदकवीर है। हमें यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि भारत एक खिलाड़ी देश नहीं, एक ऐसा देश है जिसे अभी ओलम्पिक पदकों से कहीं ज्यादा शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना की जरूरत है। खिलाड़ी तभी बेहतर कर पाएंगे जब हम उन पर और अधिक पैसा खर्च कर सकेंगे।
बीते ओलम्पिक की ही तरह इस बार भी भारत तीरंदाजी, मुक्केबाजी, निशानेबाजी, बैडमिंटन, टेनिस और कुश्ती में पदकों का दावेदार है। सच्चाई तो यह है कि बीजिंग ओलम्पिक ने भारतीय खिलाड़ियों के सपनों को जो पंख दिए थे वे लंदन में फड़फड़ा चुके हैं। बीजिंग में निशानेबाज अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण, सुशील कुमार और मुक्केबाज विजेंदर सिंह के कांस्य पदक ने नई उम्मीदें जगाते हुए अतीत की नाकामियों की कसक काफी हद तक कम कर दी थी। लंदन के रजत पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार और कांस्य पदक विजेता एमसी मैरीकाम जहां रियो नहीं जा सके हैं वहीं नई उड़ान भरने को तैयार खिलाड़ियों के हालिया प्रदर्शन को देखते हुए नहीं लगता कि वे भारतीय उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। भारतीय खिलाड़ियों ने रियो ओलम्पिक की तैयारी काफी पहले शुरू कर दी थी और अधिकांश खिलाड़ियों ने लगातार गैर मुल्कों में रहकर कड़ी मशक्कत भी की है। हमारे खिलाड़ियों को सरकार और निजी स्रोतों से मिली सहायता के कारण आधुनिक सुविधाएं और विदेशों में अभ्यास मयस्सर हो सका लिहाजा खिलाड़ी कमजोर प्रदर्शन के लिए सरकार पर तोहमत नहीं लगा सकते।
रियो में भारत की नुमाइंदगी करने वाला यह सर्वश्रेष्ठ दल है। ओलम्पिक खेलों की जहां तक बात है कुछ साल पहले तक हमारे खिलाड़ी बैरंग लौटने के लिए बदनाम होते रहे हैं। इन खेलों में भारत ने सुनहरा अतीत भी देखा है, जब हॉकी टीम ने उसे आठ स्वर्ण पदक दिलाए जोकि आज भी ओलम्पिक खेलों का कीर्तिमान है। व्यक्तिगत स्तर पर भारत को अभिनव बिन्द्रा, गगन नारंग, सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त, मैरीकाम, विजेन्दर सिंह, साइना नेहवाल के अलावा के.डी. जाधव (हेलसिंकी-1952-कुश्ती) लिएंडर पेस (अटलांटा-1996-टेनिस) कर्णम मल्लेश्वरी (सिडनी-2000-भारोत्तोलन) ने पदक दिलवाए तो निशानेबाज राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने एथेंस ओलम्पिक 2004 में रजत पदक जीता था। लिएंडर पेस का यह रिकॉर्ड सातवां ओलम्पिक है और वह अपने आखिरी ओलम्पिक में एक और पदक जीतने को बेकरार हैं। लिएंडर पेस रोहन बोपन्ना के साथ युगल में भारत को पदक दिला दें तो बड़ी बात नहीं होगी।
देखा जाए तो खेलों में एथलेटिक्स और तैराकी ही वह विधाएं हैं जिनमें सर्वाधिक पदक दांव पर होते हैं। अफसोस इन दोनों ही विधाओं पर हमारे देश में कभी भी संजीदगी से प्रयास नहीं हुए। कहने को रियो ओलम्पिक में भारतीय एथलीटों का 38 सदस्यीय दल 116 साल का पदक सूखा समाप्त करने के इरादे से पहुंचा है लेकिन यह एक मुश्किल चुनौती है। यद्यपि इस बार हमारे कई एथलीट राष्ट्रीय रिकार्ड तोड़कर ओलम्पिक गांव पहुंचे हैं लेकिन रियो में वे चमत्कार कर पाएंगे इसको लेकर संशय बरकरार है। रियो ओलम्पिक में एथलेटिक्स के मुकाबले 12 से 21 अगस्त तक होंगे। भारत ने अपने ओलम्पिक इतिहास में एथलेटिक्स में सिर्फ दो रजत पदक जीते हैं। ये दोनों पदक एंग्लो इंडियन एथलीट नार्मन प्रिचार्ड ने 1900 के पेरिस ओलम्पिक में पुरुषों की 200 मीटर दौड़ और 200 मीटर बाधा दौड़ में दिलाये थे। उसके बाद से भारत को एथलेटिक्स में अपने पहले पदक की तलाश है। भारतीय एथलेटिक्स दल में 20 पुरुष और 18 महिलाएं शामिल हैं। 800 मीटर दौड़ में पीटी ऊषा की शिष्या टिंटू लूका, 3000 मीटर स्टीपलचेज में सुधा सिंह और ललिता बाबर, 400 मीटर दौड़ में मोहम्मद अनस, 200 मीटर दौड़ में धर्मवीर सिंह और लम्बी कूद में अंकित शर्मा से अच्छे प्रदर्शन की तो उम्मीद है लेकिन इन खिलाड़ियों को पदक जीतने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाना होगा।
ओलम्पिक खेलों की एथलेटिक्स स्पर्धाओं में भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की जहां तक बात है उड़न सिख मिल्खा सिंह 1960 के रोम ओलम्पिक की 400 मीटर दौड़ तो उड़नपरी पीटी ऊषा 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में 400 मीटर बाधा दौड़ में चौथे स्थान पर रहे थे। इसके अलावा लांग जम्पर अंजू बॉबी जार्ज 2004 के एथेंस ओलम्पिक और डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ा, कृष्णा पूनिया 2012 के लंदन ओलम्पिक में अपनी-अपनी स्पर्धाओं के फाइनल तक पहुंचे थे। एथलेटिक्स में भारत के भारी-भरकम दल में सबसे ज्यादा उम्मीदें पुरुष डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ा पर ही हैं लेकिन उनके कंधे में चोट है। विकास लंदन ओलम्पिक के फाइनल में आठवें स्थान पर रहे थे। विकास 2014 के ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेलों के स्वर्ण विजेता और उसी वर्ष इंचियोन एशियाई खेलों के रजत पदक विजेता हैं। विकास के अलावा 100 मीटर दौड़ में महिला एथलीट दुती चंद पर भी सभी की निगाहें हैं जो 1980 में पीटी ऊषा के बाद 100 मीटर दौड़ में ओलम्पिक में उतरने वाली पहली भारतीय एथलीट हैं। पुरुष 4 गुणा 400 मीटर रिले टीम ने इस साल दूसरा सबसे तेज समय तो निकाला है लेकिन ओलम्पिक में पदक जीतने के लिए यह प्रदर्शन नाकाफी है।
रियो में भारत की ओर से 52 साल बाद ओलम्पिक खेलों के लिये क्वालीफाई करने वाली पहली और एकमात्र महिला कलात्मक जिम्नास्ट दीपा करमाकर करिश्मा कर सकती है। दीपा ने अप्रैल में ओलम्पिक के लिये क्वालीफाई किया था। वह इन खेलों का टिकट पाने वाली देश की पहली महिला जिम्नास्ट हैं तो वर्ष 1964 के बाद वह पहली भारतीय भी हैं, जिसने जिम्नास्टिक में ओलम्पिक के लिये क्वालीफाई किया है। देश की आजादी के बाद से 11 भारतीय पुरुष जिम्नास्ट ओलम्पिक में शिरकत कर चुके हैं जिसमें से दो ने 1952, तीन ने 1956 और छह ने 1964 में भाग लिया था। दीपा की जहां तक बात है वह तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में अब तक 77 पदक जीत चुकी है, जिसमें 67 स्वर्ण पदक शामिल हैं। दीपा ने वर्ष 2014 के ग्लास्गो राष्ट्रमण्डल खेलों में देश को कांस्य पदक दिलाया था। दीपा का सफर काफी कांटों भरा रहा है। एक समय ऐसा भी था जब चपटे पैर के कारण उन्हें इस खेल का हिस्सा नहीं बनाया जा रहा था लेकिन उसने अपने दृढ़ संकल्प से ओलम्पिक तक का सफर तय किया।
भारतीय मुक्केबाजों की जहां तक बात है रियो ओलम्पिक के रिंग में शिवा थापा (56 किलोग्राम) मनोज कुमार (64 किलोग्राम) और विकास कृष्णन (75 किलोग्राम) ही जौहर दिखाएंगे। लंदन ओलम्पिक में भारत के आठ मुक्केबाज उतरे थे जिनमें मैरीकाम ने कांस्य पदक दिलाया था। इस बार भारत की कोई बेटी क्वालीफाई नहीं कर सकी है। रियो में 24 वर्षीय विकास कृष्णन से हम पदक की उम्मीद कर सकते हैं। लंदन ओलम्पिक में विकास कृष्णन 69 किलोग्राम भारवर्ग में अमेरिका के एरोल स्पेंस के खिलाफ बाउट जीतने के बाद भी टेक्निकल जजों की समीक्षा में असफल घोषित कर दिए गये थे, वह रियो में पदक जीतकर उस विफलता को दूर कर सकते हैं। 116 साल के अपने ओलम्पिक इतिहास में भारत सिर्फ 24 पदक ही जुटा सका है जिसमें हाकी के रिकार्ड 11 पदक शामिल हैं। हाकी में भारत ने रिकार्ड आठ स्वर्ण पदक जीते हैं। भारत ने अंतिम बार 1980 के मास्को ओलम्पिक में हाकी का स्वर्ण पदक जीता था उसके बाद से स्वर्ण की कौन कहे कांसा भी नसीब नहीं हुआ है। लंदन ओलम्पिक में भारतीय हाकी टीम अंतिम पायदान पर थी। इस साल चैम्पियंस ट्राफी हाकी में चांदी का पदक जीतने के बाद श्रीजेश की युवा पलटन से हाकी मुरीदों को पदक की उम्मीद बंधी है लेकिन इसके लिए भारतीय युवा तुर्कों को बड़ी टीमों को पराजय का हलाहल पिलाना होगा। पुरुष हाकी टीम ने जहां 36 साल से ओलम्पिक में कोई तमगा नहीं जीता है वहीं महिला हाकी टीम 36 साल में दूसरी बार ओलम्पिक खेलने पहुंची है। महिला टीम पदक तो दूर की बात अंतिम चार में भी स्थान बना ले तो चमत्कार होगा।
रियो में भारत की उम्मीदें एक बार फिर पहलवानों, शूटरों, शटलरों, तीरंदाजों और मुक्केबाजों पर ही आ टिकी हैं। भारतीय कुश्ती दल में शामिल पहलवान संदीप तोमर को विश्वास है कि इस बार भारत को एक-दो नहीं कुश्ती में आठ पदक मिलेंगे। इसी साल बैंकॉक में हुई एशियन चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल हासिल करने वाले संदीप ने खुद के लिए कहा कि इस बार वह दिग्गज पहलवान सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त की सफलता को दोहराना चाहेंगे। फ्रीस्टाइल 75 किलोग्राम भारवर्ग के इस जांबाज की उम्मीदें पूरी हों, यही तो हर भारतवासी चाहता भी है। रियो में भारत के आठ पहलवान दांव-पेच दिखाने गये हैं जिनमें तीन महिला पहलवान शामिल हैं। इस बार कुश्ती में भारत के पांच पुरुष पहलवान संदीप तोमर, योगेश्वर दत्त, नरसिंह यादव फ्रीस्टाइल वर्ग तो रविन्द्र खत्री और हरदीप सिंह ग्रीको रोमन में ताल ठोकेंगे वहीं महिला पहलवान वीनेश फोगाट, साक्षी मलिक और बबिता फोगाट फ्रीस्टाइल वर्ग में दमखम दिखाएंगी। विश्व चैम्पियन वीनेश फोगाट से भारतीय कुश्ती प्रेमी 48 किलोग्राम भारवर्ग में पदक की उम्मीद कर सकते हैं। बैडमिण्टन की जहां तक बात है भारतीय शटलर और लंदन ओलम्पिक की कांस्य पदकधारी साइना नेहवाल यदि अंतिम समय तक फिट रहीं तो पोडियम तक पहुंच सकती हैं। इस बार टेनिस में लिएंडर पेस और रोहन बोपन्ना की जोड़ी युगल तो सानिया मिर्जा रोहन बोपन्ना की मिश्रित युगल जोड़ी इतिहास लिख सकती हैं।
भारतीय शूटरों की जहां तक बात है इस बार भी भारत की सारी उम्मीदें उन्हीं पर टिकी हैं। अभिनव बिन्द्रा, गगन नारंग, क्यानन चेनाई, मानवजीत सिंह संधू, मेराज अहमद खान, प्रकाश नाजप्पा, चैन सिंह, जीतू राय, गुरप्रीत सिंह पुरुषों की निशानेबाजी में कुछ भी कर सकते हैं तो अपूर्वी चंदेला, हिना सिद्धू, अयोनिका पाल में से किसने निशाने सटीक लगेंगे यह देखने की बात होगी। सच कहें तो यदि हमारे शूटरों के निशाने लक्ष्य पर लगे तभी भारत की जय-जयकार होगी वरना हम लंदन के प्रदर्शन तक भी नहीं पहुंच पाएंगे। इस बार निशानेबाजी में अप्रत्याशित परिणाम मिलने की सम्भावना को देखते हुए भी बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती, वजह इस बार संगीत की सुर लहरियों के बीच शूटरों को निशाने साधने होंगे, इससे भारतीय शूटरों का ध्यान जरूर भंग हो सकता है क्योंकि वे इसके अभ्यस्त नहीं हैं। इस बार भारत के तीरंदाज इतिहास लिखने को बेताब हैं। दीपिका कुमारी, बोम्बलया देवी जहां लंदन की नाकामयाबी को पीछे छोड़ना चाहेंगी वहीं पुरुष तीरंदाज भी करिश्मा दिखाने की काबिलियत रखते हैं। भारतीय खिलाड़ी टेबल टेनिस, भारोत्तोलन में भी उतर रहे हैं लेकिन इन खेलों में पदक जीतना दूर की कौड़ी साबित होगा।
                 सात ओलम्पिक खेलने वाला भारत का सपूत लिएंडर पेस
कुछ कर गुजरने का जज्बा और मन में विश्वास हो तो कुछ भी असम्भव नहीं है। भारत के मशहूर और सफल टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस ने इस बात को एक बार नहीं अनेकों बार साबित किया है। लिएंडर पेस टेनिस जगत ही नहीं सही मायने में असली भारत रत्न हैं। इस खिलाड़ी ने खेल के प्रति अपनी मेहनत, लगन और जुनून से वह मुकाम हासिल किया जोकि सदियों तक असम्भव होगा। लगातार सात ओलम्पिक खेलना किसी अचम्भे से कम नहीं है। भारत के इस श्रेष्ठ टेनिस खिलाड़ी का जन्म कोलकाता में 17 जून, 1973 को हुआ। पेस के माता-पिता दोनों का ही खेल जगत से गहरा ताल्लुक रहा है। उनके पिता वेस पेस अंतरराष्ट्रीय स्तर के हॉकी खिलाड़ी तो उनकी मां जेनिफर पेस एक बास्केटबॉल खिलाड़ी रहीं। लिएंडर का रुझान बचपन में फुटबॉल की तरफ था लेकिन पिता के कहने पर उन्होंने टेनिस खेलना शुरू किया और खेलते-खेलते उनकी दिलचस्पी इस खेल के प्रति बढ़ती ही चली गई। उनके पिता की यह सलाह उनके लिए भाग्यशाली साबित हुई और उन्होंने टेनिस जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाई।
पेस ने अपनी स्कूली पढ़ाई कोलकाता के ला मार्टिनीयर स्कूल से की। सेंट जेवियर कॉलेज से अपनी स्नातक की पढ़ाई करने के बाद 1985 में पेस ने मद्रास के ब्रिटानिया अमृतराज टेनिस अकादमी में दाखिला लिया। कोच देव ओमेरिया के मार्गदर्शन में पेस ने अपनी टेनिस प्रतिभा को निखारा। टेनिस में अपने प्रोफेशनल करियर की शुरुआत के पहले ही पेस ने खुद को एक होनहार खिलाड़ी साबित कर दिखाया था। उन्होंने जूनियर यूएस ओपन और जूनियर विम्बलडन का खिताब जीतकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और जूनियर रैंकिंग में नम्बर वन का दर्जा हासिल किया। इन शानदार कामयाबी के बाद पेस ने टेनिस को अपना प्रोफेशन बनाने का निर्णय लिया और 1991 में एक प्रोफेशनल टेनिस खिलाड़ी के रूप में सामने आए। पेस की खेल प्रतिभा सिंगल से ज्यादा युगल मुकाबलों में उभर कर सामने आई। अब तक पेस युगल और मिश्रित युगल मुकाबलों में कई कीर्तिमान रच चुके हैं। 18 खिताब उनकी मेहनत और लगन का ही सूचक हैं। उन्होंने टेनिस के 18 युगल और मिश्रित युगल खिताबों में जीत दर्ज कर भारत के गौरव को बढ़ाया है। रियो ओलम्पिक में वह रोहन बोपन्ना के साथ मिलकर कोई भी करिश्मा कर सकते हैं। पेस 1996 में अटलांटा ओलम्पिक्स में कांस्य पदक जीतकर भारत के लिए ओलम्पिक पदक जीतने वाले दूसरे खिलाड़ी बने थे। इस जीत के बाद लिएंडर पेस ने महेश भूपति के साथ जोड़ी के रूप में अपने करियर को आगे बढ़ाया। पेस-भूपति की जोड़ी भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि साबित हुई। पेस-भूपति ने साथ मिलकर भारत और भारत के बाहर कई महत्वपूर्ण मुकाबलों में जीत हासिल की। लिएंडर पेस को टेनिस में अपने योगदान के लिए 1996 में भारत के गौरवपूर्ण राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड और 2001 में पद्मश्री अवॉर्ड से नवाजा गया। पेस भारत के सफल टेनिस खिलाड़ियों में से एक हैं और टेनिस में अपने इस योगदान के कारण वे टेनिस टीम की कप्तानी की बागडोर भी सम्हाल चुके हैं। टेनिस जगत में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह भारतीय सितारा आज अनेक टेनिस प्रेमी युवाओं का आदर्श है तो मेरे लिहाज से भारत रत्न। पेस के जोश और जुनून से युवाओं को प्रेरणा लेनी चाहिए।




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